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सुभाव से ही प्राप्त करते बोधि अर चक्रेश पद। नर अमर विद्याधर नमें जिनको सदा कर जोड़कर॥७५॥ शुभ अशुभ एवं शुद्ध इसविधि भाव तीन प्रकार के। रौद्रात तो हैं अशुभ किन्तु शुभ धरममय ध्यान है॥७६॥ निज आत्मा का आत्मा में रमण शुद्धस्वभाव है। जो श्रेष्ठ है वह आचरो जिनदेव का आदेश यह ॥७७।। गल गये जिसके मान मिथ्या मोह वह समचित्त ही। त्रिभुवन में सार ऐसे रत्नत्रय को प्राप्त हो ॥७८।। जो श्रमण विषयों से विरत वे सोलहकारणभावना। भा तीर्थंकर नामक प्रकृति को बाँधते अतिशीघ्र ही॥७९॥
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