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हे आत्मन्
जिनलिंगधर तू भावशुद्धी पूर्वक ।
भावशुद्धि के बिना जिनलिंग भी हो निरर्थक ॥७०॥ सद्धर्म का न वास जह तह दोष का आवास है। है निरर्थक निष्फल सभी सद्ज्ञान बिन हे नटश्रमण ॥७१॥ जिनभावना से रहित रागी संग से संयुक्त जो । निर्ग्रन्थ हों पर बोधि और समाधि को पाते नहीं ॥७२॥ मिथ्यात्व का परित्याग कर हो नग्न पहले भाव से । आज्ञा यही जिनदेव की फिर नग्न होवे द्रव्य से ||७३ || हो भाव से अपवर्ग एवं भाव से ही स्वर्ग हो । पर मलिनमन अर भाव विरहित श्रमण तो तिर्यंच हो ॥७४॥
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