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भावपाहुड़
सुर-असुर-इन्द्र-नरेन्द्र वंदित सिद्ध जिनवरदेव अर। सब संयतों को नमन कर इस भावपाहुड़ को कहूँ॥१॥ बस भाव ही गुण-दोष के कारण कहे जिनदेव ने। भावलिंग ही परधान हैं द्रव्यलिंग न परमार्थ है ॥२॥ अर भावशुद्धि के लिए बस परीग्रह का त्याग हो। रागादि अन्तर में रहें तो विफल समझो त्याग सब॥३॥ वस्त्रादि सब परित्याग कोड़ाकोड़ि वर्षों तप करें। पर भाव बिन ना सिद्धि हो सत्यार्थ यह जिनवर कहें॥४॥
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