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षट्काय हितकर जिसतरह ये कहे हैं जिनदेव ने ।
बस उसतरह ही कहे हमने भव्यजन संबोधने ॥ ६० ॥ जिनवरकथित शब्दत्वपरिणत समागत जो अर्थ है । बस उसे ही प्रस्तुत किया भद्रबाहु के इस शिष्य ने ॥ ६१ ॥ अंग बारह पूर्व चउदश के विपुल विस्तार विद । श्री भद्रबाहु गमकगुरु जयवंत हो इस जगत में ॥ ६२ ॥
पर को जानना आत्मा का स्वभाव है । पर को तो मात्र जानना ही है अपने को जानना भी है, पहिचानना भी है, उसी में जमना भी है, रमना भी है
- गागर में सागर, पृष्ठ - ६४
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