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4. समवाय सन्निकर्ष - श्रोत्र का शब्द के साथ समवाय सन्निकर्ष है, क्योंकि कान के छिद्र में रहने वाले आकाश का ही नाम श्रोत्र है। शब्द आकाश का गुण है, इसलिए वहां समवाय सन्निकर्ष से रहता है।
5. समवेतसमवाय सन्निकर्ष - शब्दत्व के साथ समवेतसमवाय सन्निकर्ष है ।
6. विशेषण विशेष्यभाव सन्निकर्ष- यह घर घटाभाववाला है। इसमें विशेषणविशेष्यभाव सन्निकर्ष है क्योंकि पर विशेष्य है और उसका विशेषण घटाभाव है।
प्रत्यक्षज्ञान में सन्निकर्ष की प्रवृत्ति प्रक्रिया
प्रत्यक्षज्ञान चार, तीन अथवा दो के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है । बाह्य रूप आदि का प्रत्यक्ष चार के सन्निकर्ष से होता है आत्मा मन संबंध करता है, मन इन्द्रिय से इन्द्रिय अर्थ से सुखादि का प्रत्यक्ष तीन के सन्निकर्ष से होता है। इसमें इन्द्रिय काम नहीं करती । योगियों को जो आत्मा का
से
प्रत्यक्ष होता है । वह केवल आत्मा और मन इन दो के सन्निकर्ष से होता है | B
नैयायिकों के प्रत्यक्ष लक्षण की समीक्षा
नैयायिकों के इस प्रत्यक्ष लक्षण का निरास जैन तार्किक प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड में विस्तार के साथ किया है। संक्षेप में वह इस प्रकार है
1. वस्तु का ज्ञान कराने में सन्निकर्ष साधकतम नहीं है, इसलिए वह प्रमाण नहीं है। जिसके होने पर ज्ञान हो तथा नहीं होने पर न हो, वह उसमें साधकतम माना जाता है । सन्निकर्ष में यह बात नहीं है। कहीं कहीं सन्निकर्ष के होने पर भी ज्ञान नहीं होता। जैसे घट की तरह आकाश आदि के साथ भी चक्षु का सन्निकर्ष रहता है, फिर भी आकाश का ज्ञान नहीं होता। अतएव सन्निकर्ष प्रमाण नहीं है।
2. सभी इन्द्रियां छूकर जानती हों, यह बात नहीं है। चक्षु छूकर नहीं जानती । यदि छूकर जाती, तो आंख में लगे हुए अंजन को देखना चाहिए, किन्तु नहीं देखती। इसी प्रकार यदि छूकर जानती तो ढकी हुई वस्तु को नहीं जानना चाहिए, पर ऐसा नहीं है। कांच आदि पारदर्शी द्रव्य से ढंकी हुई वस्तु को वह जान लेती है। अतएव चक्षु प्राप्यकारी नहीं है। जैन दार्शनिकों ने तात्त्वार्थवार्तिक" न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड" में चक्षु के प्राप्यकारित्व का विस्तार से खण्डन किया है ।
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3. सन्निकर्ष को प्रमाण मानने पर सर्वज्ञ सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि यदि सर्वज्ञ सन्निकर्ष द्वारा पदार्थों को जानेगा, तो उसका ज्ञान या तो मानसिक होगा या इन्द्रियजन्य । मन और इन्द्रियों की प्रवृत्ति अपने विषयों में क्रमशः होती है तथा उनका विषय भी नियत है, जबकि त्रिकालवर्ती ज्ञेय पदार्थों का अंत नहीं है। सूक्ष्म, अंतरित तथा व्यवहित पदार्थों का इन्द्रियों के साथ सन्निकर्ष नहीं हो सकता, अतः उनका ज्ञान भी नहीं होगा। इस तरह सर्वज्ञ का अभाव हो जाएगा। 12-14
उपर्युक्त दोषों के कारण इन्द्रियादि के सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं माना जा सकता । जरन्नैयायिकों का प्रत्यक्ष लक्षण कारकसाकल्य
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जरन्नैयायिकों की मान्यता है कि अर्थ का ज्ञान किसी एक कारण से नहीं होता, प्रत्युत कारकों
के समूह से होता है। एक दो कारकों के होने पर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता और समग्र कारकों के रहने पर नियम से होता है। इसलिए कारकसाकल्य ही ज्ञान की उत्पत्ति में साधकतम कारण है । अतएव वही प्रमाण है। ज्ञान प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह तो फल है। फल को प्रमाण मानना उचित अर्हत् वचन, 24 (1), 2012
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