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इसी प्रकार प्रमाण के भेदों के विषय में भी जैन दार्शनिकों ने एक विशेष दृष्टि दी है। उन्होंने प्रमाण के मूल रूप में दो भेद बताए हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष परोक्ष के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम, ये पांच भेद किए हैं। दर्शनान्तरों में स्वीकृत अन्य भेदों को इन्हीं के अंतर्गत समाहित किया गया है।
इस संदर्भ में एक विशेष बात यह है कि सामान्य रूप में दर्शनान्तरों में जिस ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है, उसे जैन दार्शनिकों ने परोक्ष कहा है। प्रत्यक्ष की यह चर्चा न केवल भेदों के निर्धारण में, प्रत्युत प्रमाण के स्वरूप निर्धारण की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इसलिए यहां प्रत्यक्ष के विशेष संदर्भ में भारतीय प्रमाण शास्त्र को जैन दार्शनिकों के अवदान का मूल्यांकन किया गया है। नैयायिकों का प्रत्यक्ष प्रमाण -
नैयायिक इन्द्रियसन्निकर्ष आदि को प्रमाण मानते हैं। वात्स्यायन ने न्याय भाष्य' में प्रत्यक्ष की व्याख्या इस प्रकार की है अक्षस्याक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम् । वृत्तिस्तु सन्निकर्षो ज्ञानं वा । यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमितिः। यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोप्रे शाबुद्धयः फलम् ।
उद्योतकर ने न्यायवार्तिक' में वात्स्यायन के भाष्य का अनुगमन करके सन्निकर्ष और ज्ञान दोनों को प्रत्यक्ष प्रमाण मानकर इसका प्रबल समर्थन किया है ।
न्यायसूत्र की व्याख्या में वाचस्पति का भी यही तात्पर्य है
इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञामव्यदेशयमव्यमिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् ।"
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न्यायभाष्य तथा न्यायमंजरी में इसका विस्तृत विवेचन है ।
सन्निकर्षवादी नैयायिकों का कहना है कि अर्थ का ज्ञान कराने में सबसे अधिक साधक सन्निकर्ष है । चक्षु का घट के साथ सन्निकर्ष होने पर ही घट का ज्ञान होता है। जिस अर्थ का इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष नहीं होता, उसका ज्ञान भी नहीं होता। यदि इन्द्रियों से असन्निकृष्ट अर्थ का भी ज्ञान माना जाएगा, तो सबको सब पदार्थों का ज्ञान होना चाहिए, किन्तु देखा जाता है कि जो पदार्थ दृष्टि से ओझल होते हैं, उनका ज्ञान नहीं होता ।
दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय कारक है, और कारक दूर रहकर अपना काम नहीं कर सकता। अतएव यह मानना चाहिए कि इन्द्रिय जिस पदार्थ से संबंध नहीं करती, उसे नहीं जानती, क्योंकि वह कारक है, जैसे बढ़ई का वसूला लकड़ी से दूर रह कर अपना काम नहीं करता । जिस प्रकार स्पशनेन्द्रिय पदार्थ को छूकर जानती है, उसी प्रकार अन्य इन्द्रियां भी पदार्थ को संस्पृष्ट होकर जानती हैं।
सन्निकर्ष के मेद
न्यायवार्तिक' तथा न्यायमंजरी में सन्निकर्ष के छह भेद किये गये हैं- 1. संयोग, 2. संयुक्तसमवाय, 3. संयुक्तसमवेतसमवाय, 4. समवाय, 5. समवेतसमवाय 6 विशेषणविशेष्यभाव। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं :
1. संयोग सन्निकर्ष चक्षु का घट आदि पदार्थों के साथ संयोग सन्निकर्ष है ।
2. संयुक्तसमवाय सन्निकर्ष घट आदि में समवाय सन्निकर्ष से रहने वाले गुण, कर्म आदि पदार्थों के साथ संयुक्तसमवाय सन्निकर्ष है ।
3. संयुक्तसमवेतसमवाय सन्निकर्ष घट आदि में समवाय संबंध से रहने वाले गुण कर्मादि में समवाय संबंध से रहने वाले गुणत्व, कर्मत्व आदि के साथ संयुक्तसमवेतसमवाय सन्निकर्ष है।
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अर्हत् वचन 24 (1) 2012
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