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लिखित प्रमाण भी थे जो विदेश चले गये मूर्तियां व प्रतीक चिन्ह विदेश चले गये। जो आध्यात्मिक संदर्भ मूलतः श्रमण थे उन्हे अन्य चिंतको ने अपने नाम से प्रकाशित कर दिया। यह आतंक हुआ है। कई बार ऐसा कहा जाता है कि जैन धर्मावलम्बी अन्य धर्मावलम्बियों की बातों को अपनी कह कर उसका प्रचार करते हैं ।
इस परिपेक्ष्य में निम्न बातों पर ध्यान दिया जा सकता है
1. शिल्पांकन सबसे पहले जैन धर्मावलम्बियों ने प्रारंभ किया। यह तथ्य कई पुरातत्व विदों ने स्वीकार किया है।
2. आत्मा पर आधारित आध्यात्मिक सिद्धांतो को सबसे पहले अभिव्यक्ति जैनाचार्यों ने की है । यह सप्रमाण सिद्ध है। बल्कि इन सिद्धान्तों को नया चोला पहनाकर अपना कहने की सीना जोरी हुई है।
3. यह सर्वज्ञात है कि वैदिक परिवार में जन्म लिए व शिक्षित हुए बहुत से मनीषियों ने जैन धर्म ग्रहण कर लिया और वे जैन धर्म के प्रबल प्रतिपादक रहे अतः यह भ्रम पैदा हो सकता है कि उन विद्वानों का कथन जैनेतर हो किन्तु वह वास्तव में जैन होता है। ऐसे धर्म परिवर्तन को विद्वेष का आधार न बनाकर भारतीय संस्कृति के लचीलेपन के रूप में देखना चाहिए। इसे धर्म परिवर्तन नहीं कहा जाना चाहिए बल्कि यह ज्ञानोदय है। इन विद्वानों की विद्वत्ता का श्रमण दर्शन सदैव आभारी रहेगा। इन्द्रभूति के रूप में यदि महावीर को गणधर न मिलता तो हो सकता है महावीर की सूचनायें हम तक पहुँचती ही नहीं।
जितने भी जैन धर्मावलम्बी शासक हुए वे सब धर्मसहिष्णु थे । श्रेणिक, चन्द्रगुप्त, खारवेल, अशोक, सम्प्रति सभी गंग नरेश, चाणक्य, सभी राष्ट्रकूट नरेश, सभी परमार नरेश - जैन धर्म के प्रति समर्पित रहे किन्तु अन्य धर्मालम्बियों के प्रति सहिष्णु रहे। उन्होंने उन्हें भी सम्मान दिया और उनके प्रतीकों के निर्माण व व्यवस्थापन में सहयोग दिया। इन सभी नरेशों और उनके वंशों की संक्षिप्त जानकारी यथास्थान संकलित है। विश्व विख्यात इतिहासज्ञों ने इसे स्वीकार किया है।
हमें जो सूचनाएं पुराणों में मिलती हैं वे भरत खंड को लेकर ही मिलती हैं अतः अधिकतर क्षेत्र संबंधी संदर्भ इसी सीमा में आते है।
भरत खंड की भौगालिक रचना भी कई बार बदली है। यद्यपि इसके त्रिभुजाकार स्वरूप में अधिक परिवर्तन नहीं आया किन्तु उत्तरी पहाड़ों और दक्षिणी समुद्र के बीच स्थित भूखंड में कई परिवर्तनों के संकेत मिलते हैं। उत्तरी पहाड़ों और समुद्रों के आकारों में भी परिवर्तन हुआ है। इसके भी पर्याप्त प्रमाण है। इन परिवर्तनों ने मनुष्य के कार्य कलापों को अवश्य प्रभावित किया है। इन परिवर्तनों ने कई बार जलवायु सम्बन्धी परिवर्तन किये, जिसने आबादी के ह्रास से लेकर आबादी को स्थान परिवर्तन के लिए बाध्य किया। कई बार तो बहुत कुछ नष्ट हो गया जिसे प्रलय नाम दिया गया। प्राणियों ने फिर आबादी का विस्तार किया, अपनी स्मृतियों के सहारे अपनी जीवन व्यवस्थाओं का पुनर्स्थापन किया और यह क्रम चलता रहा। इस सृष्टि का कभी अंत नहीं हुआं यह निरंतर चलती रही।
आवश्यकता केवल इतनी है कि हम परिवर्तनों को पहचानें और उनमे छिपे संदेशों को पकड़े। परिवर्तन, प्रलय के बीच एक स्मृति ही तो सहारा है जो ज्ञान को आगे बढ़ाती है और सूचनाओं को भूमि प्रदान करती है। पुराणों के संदेशों को असिद्ध कहकर टाल देना एक ऐतिहासिक भूल होगी। संदेशों को डी कोड (D code) करने का नाम ही पुराण प्रणयन है। सदेंश जो गणना क्षमता सीमा से पूर्व से चले आ रहे हैं उन्हें डी कोड करना अत्यन्त दुरूह कार्य है पर पुराणकारों व ग्रंथकारों ने
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अर्हत् वचन 24 (1), 2012
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