Book Title: Arhat Vachan 2012 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 84
________________ विद्यार्थियों को रखकर उन्हें प्रतिदिन एक घंटा धर्मशिक्षा देना लाभकारी समझा। इस ओर आपने इतना अधिक ध्यान दिया और इतना प्रयत्न किया कि इस समय दिगम्बर - समाज में उनके द्वारा स्थापित 25 बोर्डिंग स्कूल काम कर रहे हैं। संस्कृत पाठशालाओं की ओर भी आपका ध्यान गया। संस्कृत की उन्नति आप हृदय से चाहते थे, आपने संस्कृत के लिए बहुत कुछ किया । बनारस की स्याद्वाद पाठशाला ने आपके ही अर्थ सहयोग से चिरस्थायिनी संस्था का रूप धारण किया है। आपके बोर्डिंग स्कूलों में वे विद्यार्थी प्रथम स्थान पाते हैं, जिनकी दूसरी भाषा संस्कृत रहती थी और संस्कृत के कई विद्यार्थियों को आपकी ओर से छात्रवृत्तियाँ भी मिलती थी। अपने दान से वे जैन परीक्षालय को स्थायी बना गये । सेठजी बहुत ही उदारहृदय थे। आम्नाय और सम्प्रदायों की शोचनीय संकीर्णता उनमें न थी । उन्हें अपना दिगम्बर सम्प्रदाय प्यारा था परन्तु साथ ही श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोगों से भी उन्हें कम प्रेम न था । वे यद्यपि बीसपंथी थे, पर तेरहपंथियों से अपने को जुदा न समझते थे। उनके बम्बई के बोर्डिंग स्कूल में सैकड़ों श्वेताम्बरी और स्थानकवासी विद्यार्थियों ने रहकर लाभ उठाया है। एक स्थानकवासी विद्यार्थी को उन्होंने विलायत जाने के लिए अच्छी सहायता भी दी थी। उनकी सुप्रसिद्ध धर्मशाला हीराबाग में निरामिषमोजी किसी भी हिन्दू को स्थान दिया जाता था। साम्प्रदायिक और धार्मिक लड़ाइयों से उन्हें बहुत घृणा थी। उनकी प्रकृति बड़ी ही शान्तिप्रिय थी। पाठक पूछेंगे कि यदि ऐसा था तो वे मुकदमेबाजी में सिद्धहस्त रहनेवाली तीर्थक्षेत्र कमेटी के महामंत्री क्यों थे? इसका उत्तर यह है कि वे इस कार्य को लाचार होकर करते थे, पर वे इससे दुखी थे और अन्त तक दुखी रहे । तीर्थक्षेत्र कमेटी का काम उन्होंने इसलिए अपने सिर लिया था कि इससे तीर्थक्षेत्रों में सुप्रबन्ध स्थापित होगा, वहाँ के धन की रक्षा और सदुपयोग होगा। यात्रियों को आराम मिलेगा और धर्म की वृद्धि होगी। इस इच्छा को कार्य में परिणत करने के लिए उन्होंने प्रयत्न भी बहुत किये और उनमें सफलता भी बहुत कुछ मिली। कुछ ऐसे कारण मिले और समाज ने अपने विचारप्रवाह में उन्हें ऐसा बहाया कि उन्हें मुकदमें लड़ने ही पड़े-पर यह निश्चय है कि इससे उन्हें कभी प्रसन्नता नहीं हुई । अपने ढाई लाख के अंतिम दान-पत्र में तीर्थक्षेत्रों की रक्षा के लिए 7 / 100 भाग दे गये हैं, परन्तु उसमें साफ शब्दों में लिख गये हैं कि इसमें से एक पैसा भी मुकद्दमों में न लगाया जाय, इससे सिर्फ तीर्थों का प्रबंध सुधारा जाय । , जैनग्रन्थों के छपाने और उनके प्रचार करने के लिए सेठजी ने बहुत प्रयत्न किया था। यद्यपि स्वयं आपने बहुत कम पुस्तकें छपाई थीं परन्तु पुस्तक प्रकाशकों की आपने बहुत जी खोलकर सहायता की थी। उन दिनों में जब छपे हुए ग्रन्थों की बहुत कम बिक्री होती थी, तब सेठजी प्रत्येक छपी हुई पुस्तक की डेढ़-डेढ़ सौ दो-दो सौ प्रतियाँ एकसाथ खरीद लिया करते थे, जिससे प्रकाशकों, को बहुत बड़ी सहायता मिल जाती थी। इसके लिए आपने अपने चौपाटी के चन्द्रप्रभ- चैत्यालय में एक पुस्तकालय खोल रखा था उसके द्वारा आप स्वयं पुस्तकों की बिक्री करते थे और इस काम में अपनी किसी तरह की बेइज्जती न समझते थे। जैनग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय तो आपका बहुत बड़ा उपकार है। यदि आपकी सहायता न होती, तो आज वह वर्तमान स्वरूप को शायद ही प्राप्त कर पाता। आप छापे के प्रचार के कट्टर पक्षपाती थे परन्तु इसके लिए लड़ाई-झगड़ा, खंडन-मंडन आपको बिल्कुल ही पसंद न था । जिन दिनों अखबारों में छापे की चर्चा चलती थी, उन दिनों आप हमें अकसर समझाते थे कि "भाई, तुम व्यर्थ ही क्यों लड़ते हो ? अपना काम किये जाओ। जो शक्ति लड़ने में लगाते हो, वह इसमें लगाओ। तुम्हें सफलता प्राप्त होगी। सारा विरोध शान्त हो जाएगा।' - 84 अर्हत् वचन, 24 (1), 2012

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