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शताब्दि पूर्व यह सिद्ध कर दिया था कि इंसानी दिमाग की तेजी और दक्षता का मुकाबला कभी भी दुनिया के तीव्रतम कम्प्यूटर से नहीं किया जा सकेगा। वर्तमान में कम्प्यूटर की यथार्थता और दक्षता जिस 'पाई' के मान से दशमलव के अंकों के आधार पर की जाती है उसे कम्प्यूर के आविष्कार से कई दशकों पूर्व ही श्री रामानुजम के मस्तिष्क ने एक साधारण सूत्र से हल कर डाला था। सारा विश्व आज भी श्री रामानुजम का इस बात के लिए लोहा मानता है।
यह मनुष्य के मस्तिष्क की शक्ति का जीवंत उदाहरण हैं। मनुष्य का मस्तिष्क ज्ञान की विभिन्न अवस्थाओं को अनावृत करता हुआ अवधिज्ञानी व केवल ज्ञानी हो सकता हैं । जैन सिद्धांत उसे अनादिकाल से दोहराता आया है । वास्तव में यही श्रमण परंपरा में स्वीकार्य पुरुषार्थ है।
हमें एक बात पर ध्यान देना होगा कि भूगोल के आंगन में ही इतिहास पल्लवित होता है। समान भौगोलिक परिस्थितियों में जन्म लेने वाले इतिहास पुरुष भी एक ही होंगे। इससे भी महत्वपूर्ण बात इतिहास पुरुषों के लिए यह होती है कि वे इतिहास पुरुष तब बनते हैं जब सब लोगों का समर्थन उन्हें प्राप्त होता है। वे छांट छांटकर जैनों का समर्थन नहीं पाते। वे ढूंढ ढूंढकर ब्राह्मणों का समर्थन नहीं पाते। वे सब योग्य व समर्थ होने के कारण समर्थन पाते हैं। अतः जिसको जिस रूप में उसका समर्थन या सन्ध्यि मिला उसने उस रूप में उसे ग्रहण कर लिया। इसी कारण कभी कभी भ्रम पैदा हो जाता है कि राम जैनों के थे या कृष्ण वेदानुयाईयों के थे । वास्तव में वे सबके थे । ये तो हम हैं जो उन पर लेबल लगाते हैं। महावीर व बुद्ध ने जन जन को मानवीय अवधारणाओं से साक्षात्कार कराया इसलिए वे इतिहास पुरूष बने । माहवीर किसी को जैन के घेरे में और कृष्ण ने किसी को वैदिक के घेरे में नहीं बांधा। हम जैन अपने अंदर झांकें । महावीर का ही उदाहरण लीजिए। महावीर कपड़ाधारी थे? ब्रह्मचारी थे या उन्होंने विवाह किया था? यह सब विवाद भ्रम से जन्मे हैं । महावीर गृहत्याग के पूर्व कपड़ाधारी थे और दीक्षा के पश्चात नग्र रहते थे। महावीर कपड़ाधारी थे और नहीं भी थे। 2600 वर्ष पूर्व के उनके कार्य कलापों का कोई फोटोग्राफिक विवरण तो नहीं है। जो आंख से देखो और निर्णय कर लो । अतः हम इस पर तकरार करें यह कहाँ तक ठीक है? कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे समय को भ्रमित कर लोग अपने महत्व को बनाये रखना चाहते हैं। वे ऐसा क्यों नहीं सोचते कि इससे मूल मुद्दा ही उलझ जाता है। यदि हम ऐसा विवाद करते रहे तो दो चार शताब्दी बाद लोग माहवीर को भुला देंगे और कपड़े वाले साधुओं को ही याद रखेंगे । क्या यह नहीं होना चाहिए कि महावीर का अस्त्वि बना रहे भले ही इस दंगल से हमें महावीर को मुक्त करना पड़े। कैसे भ्रम फैलता है यह इसका उदाहरण है।
क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि महावीर धीरे धीरे जनमानस से दूर होते जा रहे हैं और जोर जोर से उनका इस या रूप में उद्घोष करने वाले बियबान में उद्बोधन कर रहे हैं। कभी कभी ऐसा महसूस होता है यदि महावीर स्वयम् कभी इन लोगों के बीच आ जायें तो ये उन्हे पहचानेंगे भी नहीं।
इतिहास के अध्येताओं की विवेचनाओं का आदर करते हुए हम कुछ थोड़ा सा हटकर कालक्रम को विभाजित करने का प्रयास करें तो हो सकता है कुछ नये तथ्य जो दृष्टि से ओझल हो रहे हैं उजागर हो जायें। आईये प्रयत्न करते हैं।
वेदों के गान से पूर्व का काल-इस बात से अधिकतर विद्वान सहमत हैं कि वेदों की ऋचायें 3 से 4 हजार वर्ष पूर्व गाई जाने लगी थीं। इस काल के पूर्व सुदृढ सांस्कृतिक जीवन पद्धति थी जिसे पुराविदों ने हड़प्पा संस्कृति कहा । हड़प्पा संस्कृति के पूर्व के काल को ठीक से न जानने के कारण उसे अंधकार युग कह दिया गया।
अर्हत् वचन, 24 (1), 2012
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