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वर्ष-24, अंक - 1, जनवरी - मार्च - 2012,49-56
अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
श्रमण सभ्यता के सोपान
- सूरजमल बोबरा*
सारांश इतिहास कोई भ्रमों का पुलिंदा नहीं है, वह मानव के कार्यकलापों का अभिलेख है। मनुष्य ने कब क्या किया? और क्या सोचा ? हजारों लाखों वर्ष पूर्व यह सब उसने आज के वैज्ञानिकों या इतिहासकारों से पूछ कर नहीं किया। वह तो बस हुआ है। वह समय की उपज थी। आवश्यकता केवल इतनी है हम परिवर्तनों को पहचानें
और उनमें छिपे संदेशों को पकड़ें। पुराणों के संदेशों को असिद्ध कहकर टाल देना एक एतिहासिक भूल होगी।
जो कुछ गुजर चुका है उसे कोई नहीं बदल सकता। हम यह तो नही कह सकते कि ईसा मसीह नहीं हुए थे। हम यह भी नहीं कह सकते कि आदिनाथ नहीं हुए थे। यह कहना भी कठिन है कि बुद्ध और महावीर नहीं हुए थे। प्रमाण के अभाव में आप नकार दें कि ऋषभदेव व राम का जन्म अयोध्या में नहीं हुआ था यह भी संभव नहीं। कौन सा लिखित चिट्ठा है इस बात का कि कृष्ण ने अर्जुन के लिए गीता का सृजन किया था। प्रमाण बहुत कम व्यक्तियों या घटनाओं के मिलते हैं। जो बहुत पहले गुजर चुके हैं तो जो कुछ हमारे दिल और दिमाग में है, पुराणों और शास्त्रों में है वह नहीं कैसे हो जायगा? वास्तव में जिनका अस्तित्व बताया जाता है उन को नकारने के प्रमाण दिया जाना चाहिए। उनके होने को सिद्ध करने के लिए प्रमाण नहीं चाहिए। यदि आप उसे नकार रहे हैं तो प्रमाण दीजिए।
उदाहरण के लिए 'जनक' को लिजिए। जनक के अस्त्वि का कौनसा पुरात्वीय प्रमाण हमारे पास है? पर जनक था। राम कथानकों से भरा समस्त साहित्य वह चाहे वेद व्यास लिखित हो या तुलसीदास लिखित हो या रविषेण(7 वीं शताब्दी ) लिखित हो या आधुनिक साहित्यकारों द्वारा सजाया गया हो, जनक-सीता-मिथिला सब जनक के अस्तित्व को पल पल प्रतिपादित करते हैं। इनके पुरातत्वीय प्रमाण मांगना बौद्धिक प्रमाद माना जाएगा। जो सूर्य-चांद-मंगल-पृथ्वी हमे दिखाई दे रहे हैं उनके अस्तित्व की तिथि आज तक कोई वैज्ञानिक प्रमाणित नहीं कर पाया है पर सूरजचांद और तारे हैं, क्योंकि हमारी आंखें उन्हे देख रही है, उसी प्रकार हमारी स्मृति की आंखें राम को देख रही हैं, कृष्ण को देख रही हैं, आदिनाथ को देख रही हैं। पुराणकारों ने बार बार दोहरा कर उन्हें हमारी स्मृति में जीवित रखा है तो फिर उसका प्रमाण ढूंढना अपने आप पर अविश्वास करना है। कोई पुरातात्विक संदर्भ मिल जाये तो उसे सहेजें, सम्हालें, उससे कोई नया संदर्भ मिले तो उसका वैज्ञानिक परीक्षण करें। इस परीक्षण में भी एक प्रश्न सदैव जागरूक रखें कि धर्म संबंधी प्रमाणों को नष्ट करने की परंपरा रही है। प्राचीन मंदिरों को बदल कर अपनी मान्यता के प्रतीकों में बदल लेना, शिलालेखों को धराशायी कर देना, मूर्तियों को खंडित कर अपनी परंपरा का बना लेना आदि होता रहा है। अतः इन पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर ही टिके रहना पूर्णतः सत्य नहीं भी हो सकता है । यह असत्य भी हो सकता है और बार दोहराये जाने के कारण भ्रम फैल रहा हो। हिटलर कहता था, झूठ को भी बार-बार दोहराते रहो वह सत्य लगने लगेगी। * निदेशक - ज्ञानोदय फाउन्डेशन, 9/2 स्नेहलतागंज, इन्दौर