Book Title: Arhat Vachan 2012 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 18
________________ ज्ञानहोता है, वह अवग्रह कहलाता है। जैसे किसी मनुष्य को देखकर यह मनुष्य है, इस रूप का सामान्य ज्ञान अवग्रह है 'अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमर्थग्रहणमवग्रहः। 78 अवग्रह दो प्रकार का होता है- (1) व्यंजनावग्रह तथा (2) अर्थावग्रह। अस्पष्ट ग्रहण को व्यंजनावग्रह कहते हैं तथा स्पष्ट ग्रहण को अर्थावग्रह । आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धिा में एक दृष्टान्त द्वारा दोनों का भेद स्पष्ट करते हुए लिखा है -- जैसे मिट्टी के नये सकोरे पर जल के दो-चार छीटे देने से वह गीला नहीं होता, किन्तु बार-बार पानी के छोटे देते रहने पर वह सकोरा धीरे-धीरे गीला हो जाता है। इसी प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियों में आया हुआ शब्द अथवा ग्रंथ आदि दो-तीन क्षण तक स्पष्ट नहीं होते, किन्तु बार-बार ग्रहण करने पर स्पष्ट हो जाते हैं। अतः स्पष्ट ग्रहण से पहले व्यंजनावग्रह होता है, बाद में अर्थावग्रह। किन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है कि जैसे अवग्रह ज्ञान दर्शनपूर्वक ही होता है, वैसे अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह पूर्वक ही हो । क्योंकि अर्थावग्रह पांचों इन्द्रियों तथा मन से होता है, जबकि व्यंजनावग्रह चक्षु ओर मन के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों से होता है। व्यंजनावग्रह केवल चार इन्द्रियों से मानने का कारण यह है कि जैन दर्शन चक्षु तथा मन को अप्राप्यकारी मानते हैं । अर्थात् चक्षु और मन अन्य इन्द्रियों की तरह वस्तु से संस्पृष्ट होकर नहीं जानते, प्रत्युत अलग रहकर ही जानते हैं। यही कारण है कि जैनों ने नैयायिकों के सन्निकर्ष का खण्डन किया है। अवग्रह के विषय में जैन आचार्यों ने विस्तार से विचार किया है, जिसमें पारस्परिक अंतर भी उपलब्ध होता है। उसके विस्तार में जाना प्रकृत में अपेक्षित नहीं है। अवग्रह से ग्रहीत अर्थ में विशेष जानने की आकांक्षा रूप ज्ञान को ईहा कहते है - 'अवगृहीतविशेषाकांक्षणमीहा।'80 जैसे चक्षु के द्वारा शुक्ल रूप को ग्रहण करने के बाद उसमें यह पताका है या बगुलों की पंक्तिहै अथवा यदि किसी पुरुष को देखा तो यह किस देश का है, किस उम्र का है आदि जानने की आकांक्षा ईहा है। ईहा ज्ञान निश्चयोन्मुखी होने से संशय ज्ञान नहीं है। क्योंकि संशय में विरुद्ध अनेक कोटियों का ग्रहण होता है। ईहा में यह बात नहीं है। अवग्रह के द्वारा गृहीत अर्थ ईहा के द्वारा निश्चयोन्मुखी होता है। अवाय या अपाय अवग्रह द्वारा सामान्य रूप से गृहीत तथा ईहा द्वारा विशेष रूप से जानने के लिए ईहित अर्थ को निर्णयात्मक रूप से जानना अवाय है। कहीं कहीं इसे अपाय भी कहा गया है । हेमचन्द्र ने अवाय का लक्षण इस प्रकार दिया है - 'ईहितविशेषनिर्णयोऽवायः। 81 जैसे ईहा के उपर्युक्त उदाहरण में पंखों के फड़फड़ाने आदि से यह निश्चयात्मक ज्ञान होना कि यह बगुलों की पंक्ति ही है। अर्हत् वचन, 24 (1), 2012

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