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वर्ष - 24, अंक - 1, जनवरी - मार्च - 2012, 39-43 ____ अर्हत् वचन तीर्थंकर नेमिनाथ के पार्श्व में कृष्ण एवं बलराम कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
का प्रतिमाशास्त्रीय स्वरूप
. आनन्द कुमार गौतम*
सारांश देश में विकीर्ण कृष्ण एवं बलराम सहित नेमिनाथ की मूर्तियों का विवरण एवं विश्लेषण प्रस्तुत आलेख में दिया गया।
चौबीस तीर्थंकरों की धारणा ही जैन धर्म का मूल आधार है। कर्म व वासना पर विजय प्राप्त करने के कारण इन्हें 'जिन' कहा गया है जिसका अर्थ विजेता होता है। तीर्थ का 'कर्ता' या निर्माता होने के कारण इन्हें तीर्थंकर भी कहा जाता है।
22वें तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म हरिवंश के काश्यपगोत्री शिखामणि राजा समुद्रविजय के यहाँ हुआ था। इनकी माता का नाम शिवदेवी था जिन्होंने सोलह शुभ स्वप्न व मुख में प्रवेश करता उत्तम हाथी देखने व गर्भ में तीर्थंकर के अवतीर्ण होने के विषय में राजा द्वारा जानने के बाद श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में तीन ज्ञान के धारक जिन बालक को जन्म दिया। उत्तरपुराण में वर्णित है कि जन्म के पश्चात् इनको ऐरावत गज पर सुमेरू पर्वत पर ले जाया गया और सुवर्णमय एक हजार आठ कलशों से भरे हुए क्षीरसागर के जल से अभिषेक कर 'नेमि' नाम से संबोधित किया गया।
श्वेताम्बर परम्परा में सन्दर्भित है कि 'गर्भकाल में महाराज सभी प्रकार के अरिष्टों से बचे रहे तथा माता ने अरिष्ट रत्ननाम चक्रन्नेमि का दर्शन किया इसीलिए इनका नाम 'अरिष्टनेमि' पड़ा। जैन परम्परा में नेमिनाथ का बलराम और कृष्ण के चचेरे भाई होने के कारण विशेष महत्त्व रहा है। बलराम
और कृष्ण 63 शलाकापुरुषों की सूची में क्रमशः 9वें बलभद्र और 9वें नारायण के रूप में निरूपित हैं। इसी कारण जैन शिल्पकारों ने जैन साहित्यिक परम्परानुसार तीर्थंकर नेमिनाथ के पार्श्वदेव के रूप में सहायक मूर्तियों के अंतर्गत बाँयी तरफ कृष्ण एवं दाँयी तरफ बलराम को निरूपित करते हुए उनका प्रतिमाशास्त्रीय स्वरूप निर्धारित किया है।
नेमिनाथ की मूर्तियां पहली शती ई. से ही बनने लगी थी जिसके साक्ष्य विभिन्न संग्रहालयों में संग्रहीत हैं। इनमें मथुरा संग्रहालय में संग्रहीत एक मूर्ति में इनका लांछन शंख है जो कृष्ण से उनके सम्बन्ध का सूचक है । नेमि के यक्ष-यक्षी गोमेध एवं अम्बिका हैं। शिल्पकला में यक्ष के रूप में कुबेर का भी अंकन हुआ है। दिगम्बर स्थलों पर कुषाणकाल से ही नेमिनाथ के पार्यों में हलधर बलराम और शंख चक्रधारी कृष्ण का रूपायन हुआ है। जिसके परवर्ती उदाहरण अधोलिखित हैं ।
मथुरा के कंकाली टीला से नेमिनाथ की एक प्राचीन प्रस्तर प्रतिमा प्राप्त हुई है जो वर्तमान समय में मथुरा संग्रहालय में संग्रहीत है। (चित्र संख्या 1) इस प्रतिमा में नेमिनाथ के पार्श्व में कृष्ण व बलराम सहचर के रूप में आमूर्तित हैं। मथुरा से लगभग चौथी शती ई. की एक तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा प्राप्त है जो लखनऊ संग्रहालय में संग्रहीत है। इनके पार्श्व में चतुर्भुज बलराम व चतुर्भुज कृष्ण का अंकन है। बलराम के सिर पर पांच सर्पफण बने हैं , साथ ही इनकी तीन भुजाओं में मूसल,
शोध छात्र-कला एवं इतिहास विभाग, काशी हिन्दू वि.वि. वाराणसी, सम्पर्क : एन-10/72-ई-12,न्यू कालोनी, ककरमत्ता,डी.एल.डब्ल्यू. वाराणसी-221004