Book Title: Arhat Vachan 2012 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ उपर्युक्त तीनों ज्ञान आत्मसापेक्ष ज्ञान हैं। इनमें इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नहीं है । आत्मा की विशुद्धि के अनुसार इन ज्ञानों की प्रवृत्ति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर पदार्थों की ओर होती है। केवलज्ञानी या सर्वज्ञ केवलज्ञान सम्पन्न आत्मा को जैनदर्शन में सर्वज्ञ कहा है। जैन शास्त्रों में सर्वज्ञवाद का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। आगे संक्षेप में इस पर विचार करेंगे। इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है - आत्म सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष मानकर जैन दार्शनिकों ने इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान की प्रत्यक्षता को अस्वीकार किया है। इस विषय में मुख्य तर्क ये हैं : 1. इन्द्रियां जड़ हैं जबकि ज्ञान चेतन है । जड़ से चेतन ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता। 2. इन्द्रियां आत्मा से भिन्न हैं इसलिए 'पर' हैं। पर सापेक्षज्ञान परोक्ष ही होगा, प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। 3. इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने पर सर्वज्ञ ही सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि इन्द्रिय सापेक्षज्ञान सीमित तथा क्रम से प्रवृत्ति करने वाला होता है। 4. इसलिए पर से उत्पन्न होने वाला ज्ञान परोक्ष तथा जो केवल आत्मा से जाना जाए वह प्रत्यक्ष 'जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खत्ति भणिदमत्थेसु। जं केवलेण णादं हवदिहु जीवेण पञ्चक्खं ||१० जैन दार्शनिक परम्परा में प्रत्यक्ष का लक्षण और भेद - दार्शनिक परम्परा के जैन ग्रंथों में प्रत्यक्ष के लक्षण इस प्रकार मिलते हैं : 1. सिद्धेसन 'अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशाम् । प्रत्यक्षमितरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया ।।71 2. अकलंक 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमंजसा ।' 72 3. माणिक्यानन्दि - 'विशदं प्रत्यक्षम् ।'73 4. हेमचन्द्र 'विशदः प्रतयक्षम् ।'74 इस प्रकार दार्शनिक परम्परा में विशदज्ञान को प्रत्यक्ष माना गया। विशद का अर्थ अकलंक ने इस प्रकार दिया है - 'अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम्। तद्वैशचं मतं बुद्धैरवेशद्यमतः परम् ।। इसी को माणिक्यनन्दि ने इस प्रकार कहा है : 'प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम्। हेमचन्द्र ने लिखा है - 'प्रमाणान्तरान्पेक्षेदन्तया प्रतिमासो व वैशद्यम्।। प्रत्यक्ष की यह परिभाषा दार्शनिक युग के घात-प्रतिघात का परिणाम प्रतीत होती है, क्योंकि जैन और बौद्ध को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों ने इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है, जबकि जैनों ने उसे परोक्ष माना। इस मान्यता के निरन्तर विरोध का परिणाम ही यह प्रतीत होता है कि अकलंक ने प्रत्यक्ष की परिभाषा विशदज्ञान स्थिर की। अर्हत् वचन, 24 (1), 2012

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102