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धारणा
अवाय द्वारा निर्णीत वस्तु को कालान्तर में न भूलना धारणा है। हेमचन्द्र ने लिखा है 'स्मृतिहेतुर्द्धारणा।'०२
जैसे सायंकाल के समय सुबह वाली बगुलों की पंक्ति को देखकर यह ज्ञान होना कि यह वही बगुलों की पंक्ति है, जिसे मैने सुबह देखा था।
ये अवग्रह आदि ज्ञान इसी क्रम से उत्पन्न होते हैं। इस क्रम में कोई व्यतिक्रम नहीं होता । क्योंकि अदृष्ट पदार्थ का अवग्रह नहीं होता, अनवगृहीत में संदेह नहीं होता, संदेह के हुए बिना ईहा नहीं होती । ईहा के बिना अवाय नहीं होता और अवाय के बिना धारणा नहीं होती ।
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अवग्रह, ईहा तथा अवाय का काल एक-एक अन्तर्मुहूर्त है, किन्तु धारणा का काल संख्या अथवा असंख्यात अंतर्मुहूर्त है। ज्ञान के इस उत्पत्ति क्रम में समय का दीर्घतर व्यापार न होने से सभी ज्ञान एक साथ होते प्रतीत होते हैं। जैसे कमल के सौ पत्तों को सुई से एक साथ छेदने पर ऐसा प्रतीत होती है कि सारे पत्ते एक ही समय में छेदे गये । काल भेद सूक्ष्म होने से वह हमारी दृष्टि में नहीं
आता ।
पूर्व-पूर्व का ज्ञान होने पर उत्तरोत्तर ज्ञान अवश्य हो ऐसा नियम नहीं, किन्तु उत्तर ज्ञान तभी होगा जब पूर्व ज्ञान हो चुकेगा। यही इनका क्रम ज्ञान ही उत्पत्ति में पाया जाता है ।
अवग्रह आदि के अवान्तर भेद -
अर्थ के अवग्रह आदि चारों ज्ञान पांच इन्द्रियों तथा मन की सहायता से होते हैं। अतएव प्रत्येक
के छह-छह भेद होने से चारों के चौबीस भेद होते हैं। व्यंजनावग्रह केवल चार ही इन्द्रियों के निमित्त से होता है इसलिए उसके चार ही भेद हैं। इस प्रकार सब मिलाकर अट्ठाइस भेद होते हैं। दिगम्बर परम्परा में इनके बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, अध्रुव तथा इनके विपरीत एक, एकविध, अक्षिप्र, निसृत, उक्त तथा ध्रुव ये बारह भेद मानकर सब तीन सौ छत्तीस भेद माने जाते हैं ।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष
जो ज्ञान इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना केवल आत्मा से होता है उसे मुख्य या पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं । इसके दो भेद हैं- ( 1 ) विकल प्रत्यक्ष या देश प्रत्यक्ष तथा (2) सकल प्रत्यक्ष । विकल प्रत्यक्ष के दो भेद हैं- (1) अवधिज्ञान, (2) मनः पर्ययज्ञान। इन सबका सामान्य स्वरूप पहले बताया है ।
मुख्य या सकल प्रत्यक्ष
जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा से त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की सभी पर्यायों को एक साथ जानता है, उसे मुख्य या सकल प्रत्यक्ष कहते हैं। इसे केवल ज्ञान भी कहते हैं। ज्ञानावरण कर्म के समूल नाश से आत्मा के ज्ञान स्वरूप का प्रकट होना केवलज्ञान है । हेमचन्द्र ने लिखा है
'सर्वथारवरणविलये चेतनस्य स्वरूपाविर्भावो मुख्यं केवलम् । 83
केवलज्ञान युक्त आत्मा को जैन दार्शनिकों ने सर्वज्ञ कहा है। जैन शास्त्रों में सर्वज्ञता का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है।
सर्वज्ञता की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि
जैन दर्शन में आत्मा को ज्ञान गुण युक्त चेतन द्रव्य माना गया है। कर्मों के आवरण के कारण अर्हत् वचन, 24 (1), 2012
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