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1. अन्तः करणवृत्ति अचेतन है, इसलिए वह पदार्थ को जानने में साधकतम नहीं हो सकती।
2. अन्तः करण का पदार्थ के आकार होना प्रतिति विरुद्ध है । जैसे दर्पण पदार्थ के आकार को अपने में धारण करता है, वैसे अंतः करण पदार्थ के आकार को अपने में धारण करता नहीं देखा जाता।
3. अन्तः करण वृत्ति यदि अन्तः करण से भिन्न है तो उसका इन्द्रियों से संबंध नहीं बनता और यदि अभिन्न है तो सुप्तावस्था में भी इन्द्रिय एवं अन्तः करण व्यापार जारी रहना चाहिए।
इन कारणों से अन्तः करण वृत्ति प्रमाण नहीं है। मीमांसकों का प्रत्यक्ष लक्षण - ज्ञातृव्यापार मीमांसादर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण के स्वरूप का निर्देश सर्वप्रथम जैमिनीय सूत्र में मिलता है - "सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षमनिमित्तं विद्यमानोपलम्भनत्वात्।।
जैमिनी सूत्र पर शाबरभाष्य आदि कई टीकाएं हैं, जिनमें इस लक्षण का विभिन्न दृष्टिकोणों से विवेचन है । मीमांसा श्लोक वार्तिक में भवदास की व्याख्या में इस सूत्र को प्रत्यक्ष लक्षण का विधायक माना गया है ।38 अन्य व्याख्याओं में इस लक्षण को अनुवादक माना गया है। शाबरभाष्य में इस सूत्र के शाब्दिक विन्यास में मतभेद रखकर पाठान्तर मानने वाली वृत्ति का भी उल्लेख है। कुमारिल ने पहले प्रचलित सभी मान्यताओं का खण्डन करके अपने ढंग से उसे अनुवाद रूप प्रतिपादित किया है। इस प्रकार मीमांसक ज्ञातृव्यापार को प्रत्यक्ष मानते हैं । मीमांसाश्लोकवार्तिक42 में तथा शास्त्रदीपिका43 में लिखा है कि ज्ञातृ व्यापार के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता। कारक तभी कारक कहा जाता है, जब उसमें क्रिया होती है। आत्मा, इन्द्रिय, मन तथा पदार्थ का मेल होने पर ज्ञात का व्यापार होता है और वह व्यापार ही पदार्थ का ज्ञान कराने में कारण होता है। अतः ज्ञाता का व्यापार ही प्रमाण है।
मीमांसकों के प्रत्यक्ष लक्षण की समीक्षा
मीमांसकों की इस मान्यता का खण्डन वैदिक, बौद्ध तथा जैन सभी तार्किकों ने किया है। वैदिक परम्परा में उद्योतकर ने न्यायवार्तिक+4 में, वाचस्पति ने तात्पर्यटीका45A में तथा जयन्तभट्ट ने न्यायमंजरी458 में विस्तार से खण्डन किया है। बौद्ध दार्शनिकों में सर्वप्रथम दिड्नाग ने अपने प्रमाण समुच्चय में इसका खण्डन किया है । शान्तरक्षित आदि ने इसी पद्धति का अनुसरण किया है।
जैन परम्परा में प्रभाचन्द्र47-48 अभयदेव
हेमचन्द्र तथा देवसूरि ने ज्ञातृव्यापार का विस्तार से खण्डन किया है। जिसका निष्कर्ष इस प्रकार है
1. ज्ञातृव्यापार किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, इसलिए वह प्रमाण नहीं है।
2. प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञातृव्यापार सिद्ध नहीं होता। क्योंकि न तो ज्ञातृव्यापार का संबंध है और न मीमांसक स्वसंवेदन को मानते हैं।
3. अनुमान प्रमाण से भी ज्ञातृव्यापार सिद्ध नहीं होता, क्योंकि उसमें साधन से साध्य का ज्ञान रूप अनुमान नहीं बनता।
4. अर्थापत्ति से भी ज्ञातृव्यापार सिद्ध नहीं होता, क्योंकि अर्थापत्ति के उत्थापक अर्थ का साध्य के साथ संबंध नहीं बनता। अर्हत् वचन, 24 (1), 2012