Book Title: Aradhak Banvano Marg
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Bhadrankarvijay

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Page 8
________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ शरणागति प्राप्त थई शके छे अने ए शरणागति प्राप्त थाय तो ज भवनो अंत प्रावी शके छे। भवनो अंत लाववा माटे रागद्वेष रहित वीतराग अवस्थानी अंतःकरणमां सूझ-बूझ थवी जोईये । सूझ एटले शोध अर्थात् जिज्ञासा अने बूझ एटले ज्ञान । वीतराग अवस्थानी सूझ-बूझ दुष्कृतगर्दा अने सुकृतानुमोदननी अपेक्षा राखे छे । वीतराग अवस्थानुं माहात्म्य पिछाणवा माटे हृदयनी भूमिका तेने योग्य थवी जोईये । ___ए योग्यता गर्हणीयनी गर्दा अने अनुमोदनीयनी अनुमोदनाना परिणामथी प्रगटे छ । गर्हा दुष्कृत मात्रनी होवी जोईए । अनुमोदना सुकृत मात्रनी होवी जोईये । ए बे होय त्यारे रागद्वेषनी तीव्रता घटी जाय छ । रागंनो राग न होवो अने द्वेष प्रत्ये द्वेषनी वृत्ति होवी ए रागद्वेषनी तीव्रतानो अभाव छ । दुष्कृत गर्दा अने सुकृतानुमोदननी हयातिमां तेनी सिद्धि थाय छे । एथी वीतरागतानी कदर थाय छे, वीतरागताना शरणे जवानी वृत्ति जागे छे, वीतरागता ए ज श्रद्धय, ध्येय अने शरण्य लागे छे । पछी वीतरागता अचिन्त्यशक्तियुक्त छे, तेनो अनुभव थाय छे । रागद्वष रहित वीतराग अवस्था अचिन्त्यशक्तियुक्त छे, तेनाथी विमुख रहेनारनो निग्रह अने तेनी सन्मुख थनारनो ते अनुग्रह करे छ । लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान अने केवल दर्शन के जे आत्मानु सहज स्वरूप छे, ते वीतराग अवस्थामा ज प्रकाशी उ8 छ, अन्य अवस्थामां ते विद्यमान होवा छतां अप्रगट रहे छे । केवलज्ञान-केवलदर्शन वड़े लोकालोकना भाव हस्तामलकवत् प्रतिभासे छे । सर्व द्रव्योना त्रिकालवर्ती सर्व पर्यायोनु ते ग्रहण करे छ । समये समये ज्ञानवडे सर्वने जाणे छे अने दर्शन वडे सर्वने जुए छ । वीतरागताना शरणे रहेनारने तेमना ज्ञानदर्शननो लाभ मले छे । ए ज्ञानदर्शनवडे प्रतिभासित सर्व पदार्थोना सर्व पर्यायादिनी क्रमबद्धता निश्चित थाय छ । तेथी जगतमां बनी गयेला बनीरहेला अने भविष्यमां बननारा सारा नरसा बनावोमां रागद्वेष अने हर्षशोकनी कल्पनामो नाश पामे छ । शरणगमन वडे चित्तनु समत्व समग्र विश्वतंत्र प्रभुना ज्ञानमां भासे छे अने ते ज रीते प्रवर्तित थाय छ । तेथी प्रभुने आधीन रहेनारने विश्वनी पराधीनता मटी जाय छ । विश्व ने आधीन प्रभु नथी पण प्रभुना ज्ञानने आधीन विश्व छ । एवी प्रतीति थाय छे तेथी चित्तनु समत्व अखंडपणे जलवाई रहे छ । समत्व जलवाई रहेवाथी आत्मा अखंड संवर भावमा रहे छे। नवा आवतां कर्म रोकाई जाय छे अने जुनां कर्म भोगवाई जाय छे। तेथी कर्म रहित थई आत्मा अव्याबाध सुखनो भोक्ता थाय छे । अरिहंतादि चारना शरणनो आ अचिन्त्य प्रभाव छ ।

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