Book Title: Aradhak Banvano Marg
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Bhadrankarvijay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधक बनवानो मार्ग ले० पू० पंन्यासजी महाराज श्री भद्र करविजयजी गणिवर [ १ ] [ आ एक अमारा महान सद्भाग्यनी वात छे के श्री कापरड़ाजी तीर्थ स्वर्ण जयंती महोत्सव ग्रन्थना प्रारंभमां ज में श्री नमस्कार महामंत्र आदि तात्त्विक विषयोना खास चितक परम पूज्य पंन्यासजी म० श्री भद्र कर विजयजी गरिवरश्रीना मननपूर्ण बे निबंधो मेलववा भाग्यशाली थया छीए । प० पू० पंन्यासजी महाराजश्रीना हृदय मंथनमांथी नीतरेली श्रा अमृतोद्गारनी परंपरा श्राजे चारे बाजू जड़वादनी श्रागमां संतप्त जीवोने अमृत-स्नान करावी परम समता भावनी प्राप्तिमां जरूर हेतु भूत बनशे एवी अमने संपूर्ण श्रद्धाछे । ] सहजमलनो ह्रास भने भव्यत्वनो विकास कर्मना संबंधमां आववानी जीवनी पोतानी योग्यताने सहजमल कहेवाय छे अने मुक्तिना संबंधमां आववानी जीवनी योग्यताने भव्यत्व स्वभाव कहेवाय छे । दरेक जीवनी योग्यता भिन्न भिन्न होय छे तेने तथाभव्यत्व कहेवाय छे । सहजमलनो ह्रास अने तथाभव्यत्वनो विकास ऋण साधनोथी थाय छे । तेमां पहेलुं दुष्कृतगर्हा छे, बीजुं सुकृतानुमोदन छे अने त्रीजुं अरिहंतादि चारनुं शरणगमन छे । दुष्कृतगर्हानो प्रतिबंधक मुख्यत्वे रागदोष छे, सुकृतानुमोदननो प्रतिबंधक द्वेष दोष छे अने शरण गमवनो प्रतिबंधक मोह दोष छे । राग दोष ज्ञान गुण वडे जीताय छे । द्वेष दोष दर्शन गुण बडे जीता छे अने मोह दोष चारित्र गुण वडे जीताय छे । ज्ञान गुणनी पराकाष्ठा 'नमो' भावमां छे । दर्शन गुणनो पराकाष्ठा 'अहं' भावमां छे, अने चारित्र गुणनी पराकाष्ठा 'शरण' भावमां छे । ज्ञान गुण मंगलरूप छे, दर्शन गुण लोकोत्तम स्वरूप छे अने चारित्र गुण शरणागतिरूप छे । ए रीते रत्नत्रयीनो विकास श्रात्मानी मुक्तिगमन योग्यतानो परिपाक करे छे अने संसारभ्रमण योग्यतानो नाश करे छे । स्वदोष दर्शन ने परगुण दर्शन चार वस्तु मंगल छे, चार वस्तु लोकमां उत्तम छे अने चार वस्तु शरण करवा योग्य छे । मंगलनी भावना ज्ञान स्वरूप छे । उत्तमनी भावना दर्शन स्वरूप छे । शरणनी भावना Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ चारित्र स्वरूप छ। ज्ञानवड़े राग दोष जाय छ । दर्शन वड़े द्वष दोष जाय छे । चारित्र वड़े मोह दोष जाय छ । राग जवाथी पोताना दोष देखाय छ। द्वष जवाथी बीजाना गुण देखाय छे अने मोह जवाथी शरणभूत आज्ञानु स्वरूप जणाय छ। स्वदोष दर्शन दोषनी गर्दा करावे छे । परगुण दर्शन परनी अनुमोदना करावे छे अने आज्ञानु स्वरूप समजवाथी आज्ञाना शरणे रहेवानी वृत्ति पेदा थाय छ । गुणवाननी आज्ञा ज स्वीकारवा योग्य छ । दोष जवाथी ज गुण प्रगटे छ । आज्ञानु आराधन करवाथी ज दोष जाय छे, तेथी आज्ञानु अाराधन मोक्षने माटे थाय छे अने प्राज्ञानी विराधना संसार ने माटे थाय छ। स्वमति कल्पनानो मोह आज्ञापालनना अध्यवसायथी ज जाय छ। अने ते जवाथी शरण स्वीकारवामां बल पेदा थाय छ । अरिहंतनु शरण, सिद्धनुशरण, साधुनु शरण अने केवली प्रज्ञप्त धर्मनु शरण श्रे अरिहंतादि चारनी लोकोत्तमताना ज्ञान ऊपर आधार राखे छे । अ चारनी लोकोत्तमता ए चारनी मंगलमयताना स्वीकार ऊपर आधार राखे छ । श्रे चारनी मंगलमयता तेमना ज्ञान, दर्शन, चारित्रनी मंगलमयताना आधारे छे । अने ज्ञान, दर्शन, चारित्रनी मंगलमयता राग, द्वेष अने मोहनो प्रतिकार करवाना सामर्थ्यमां रहेली छ। योग्यतुं शरण लेवाथी योग्यता विकसे छे जीवने सौथी अधिक राग स्वजात ऊपर होय छे । ते रागना कारणे पोतामा रहेला अनंतानंत दोषोनुदर्शन थतु नथी। स्वजातनो राग पर प्रत्ये द्वषनो आविर्भाव करे छ। ए द्वेषना प्रभावे पर गुण दर्शन थतु नथी । स्वदोष दर्शन अने परगुण दर्शन न थवाना कारणे मोहनो उदय थाय छे । मोहनो उदय थवाथी बुद्धि अवराय छ । बुद्धिनु आवरण शरण करवा योग्यनुशरण स्वीकारवामां अंतरायभूत थाय छ । योग्यनु शरण न स्वीकारवाथी पोतानी अयोग्यता उपर काबू आवतो नथी पोतानी अयोग्यता कर्मबंधनना हेतुअो प्रत्ये दुर्लक्ष्य करावे छे अने कर्मक्षयना हेतुअोनु सेवन करवामां प्रतिबंधक थाय छे, कर्म बंधना हेतुअोथी पराङ्मुख थवा माटे अने कर्मक्षयना हेतुप्रोनी सन्मुख थवा माटे योग्यता विकसाववी जोईए। ___ योग्यनुशरण लेवाथी योग्यता विकसे छे। योग्यनु शरण लेवानी योग्यता स्वदोष दर्शन अने परगुण ग्रहणथी पेदा थायछे । रागद्वेषनी मंदता थवाथी परगुण अने स्वदोषदर्शन थाय छे । अने रागद्वेषनी मंदता ज्ञान-दर्शन गुणनो विकास थवाथी थाय छ । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाराषक बनवानो मार्ग ज्ञानदर्शन गुणनो विकास अरिहंतादिनी मंगलमयता अने लोकोत्तमताने जोवाथी अने तेमनु शरण स्वीकारवाथी थाय छ । दुष्कृत एटले स्वकृत अनंतानंत अपराध अने सुकृत एटले परकृत अनंतानंत उपकार वीतराग परमात्मा निग्रहानुग्रह सामर्थ्ययुक्त अने सर्वज्ञसर्वदर्शित्व गुणने धारण करनारा होवाथी सर्व पूज्य छ । राग दोष जवाथी करुणागुण प्रगटे छे। द्वष दोष जवाथी माध्यस्थ्य भाव प्रगटे छे । करुणा गुणनो स्थायी भाव अनुग्रह छे अने माध्यस्थ्य गुणनो स्थायी भाव निग्रह छ । जातनो पक्षपात ते राग छ । पोतानी जात सिवाय सर्वनी उपेक्षा ते द्वष छ । राग ए स्वदुष्कृत गर्हानो प्रतिबन्धक छे अने द्वष ए पर सुकृतानुमोदननो प्रतिबंधक छ । अहीं दुष्कृत एटले स्वकृत अनंतानंत अपराध अने सुकृत एटले परकृत अनंतानंत उपकार। पोताना अपराधनी गर्दा अने बीजाना उपकारनी प्रशंसा तोज थाय के अप्रशस्त रागद्वेष जाय । ज्ञान दर्शन गुण रागद्वेषना प्रतिपक्षी छे । एटले रागद्वेष जवाथी एक बाजु अनंत ज्ञान दर्शन गुण प्रगटे छे अने बीजी बाजु निग्रहानुग्रह सामर्थ्य प्रगटे छे । अने ते बनेना कारणभूत करुणा अने माध्यस्थ्य भाव जागे छ । - वीतराग एटले करुणाना निधान अने माध्यस्थ्य गुणना भंडार तथा वीतराग एटले अनंत ज्ञान दर्शन स्वरूप केवलज्ञान अने केवल दर्शनना मालिक, सर्व वस्तुने जाणनारा अने जोनारा छतां सर्वथी अलिप्त रहेनारा। सर्व ऊपर पोतानो प्रभाव पाड़नारा पण कोईना पण प्रभाव नीचे कदी पण नहीं आवनारा । मात्मामा रहेली अचिन्त्य शक्तिनो स्वीकार वीतरागता . ए आ रीते निष्क्रियता स्वरूप नहीं पण सर्वोच सक्रियतारूप ( Most Dynamic ) छे । ते क्रिया अनुग्रह-निग्रहरूप छे अने अनुग्रह-निग्रह ए रागद्वषना अभावमांथी उत्पन्न थयेल आत्मशक्तिरूप छ । आपणे जोयु के प्रात्मानी सहज शक्ति ज्यारे आवरण रहित थाय छे त्यारे तेमांथी एक बाजु सर्वज्ञता-सर्वदर्शिता प्रकटे छ। अने बीजी बाजु निग्रह अनुग्रह सामर्थ्य प्रगटे छ । ते बन्नेने प्रगटाववानो उपाय आवरण रहित थर्बु तै छ । आवरण रागद्वेष अने अज्ञानरूप छ । अज्ञान टालवा माटे स्व अपराधनो स्वीकार अने परकृत उपकारनो अंगीकार अने ए बन्ने पूर्वक अचिन्त्य शक्तियुक्त आत्मतत्वनो आश्रय अनिवार्य छ । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ आत्म तावनो आश्रय श्रेटले प्रथम आत्मामा रहेली अचिन्त्य शक्तिनो स्वीकार। (Consciousness of the Eternal Soul Power) ए स्वीकार थवाथी अनंतानुबंधी रागद्वेष टली जाय छ । पूर्वे कदी न अनुभवेलो एवो समत्व भाव प्रगटे छे । ए समत्व भाव अपक्षपातिता अने मध्यस्थवृत्तितारूप छ । ___ मोटामां मोटो पक्षपात स्वदोष छ। पोते निर्गुण अने दोषवान होवा छतां पोताने निर्दोष अने गुणवान मानवानी वृत्तिरूप पक्षपात समत्व भावथी टली जाय छ । वीतराग अवस्था ज परम पूजनीय छ पोते करेला उपकारना महत्त्व जेटलुज के तेथी अधिक परकृत उपकारोनु महत्व छ, एवो मध्यस्थवृत्तितारूप समत्व भाव ए द्वष दोषना प्रतिकार स्वरूप छे । उभय प्रकारने समत्व रागद्वेषने निर्मूल करी आत्माना शुद्ध स्वभावरूप केवलज्ञान-केवलदर्शनने उत्पन्न करे छ । तेमां लोकालोक प्रतिभासित थाय छे, परंतु ते कोईथी प्रतिभासित थतु नथी, केमके ते स्वयंभू छे । तेथी वीतराग अवस्था ज परम पूजनीय छे अने तेने प्राप्त करवाना उपायभूत दुष्कृत गर्हा, सुकृतानुमोदन अने शरण गमन ए परम उपादेय छ । वीतरागोऽप्यसौ देवो, ध्यायमानो मुमुक्षभिः । स्वर्गापवर्गफलदः, शक्तिस्तस्य हि तादृशी ॥१॥ . आ देव वीतराग होवा छतां मुमुक्षु वडे ज्यारे ध्यान कराय छे त्यारे ते स्वर्गापवर्गरूपी फलने आपे छे केमके तेमनी निश्चित तेवा प्रकारनी शक्ति छ । वीतरागोऽप्यसौ ध्येयो, भव्यानां स्याद् भवच्छिदे। विच्छिन्नबन्धनस्यास्य, तादृग् नैसर्गिको गुणः । आ ध्येय वीतराग होवा छतां भव्य जीवोना भवोच्छेदने माटे थाय छे । बंधन जेनोना छेदाई गयां छे, तेश्रोमां ा नैसर्गिक गुण होय छे । वीतराग आत्माअोनो स्वभाव ज तेमनुध्यान करनारामोना रागद्वेष छेद करवानो छे 'स्वभावोऽतर्कगोचरः ।' स्वभाव तर्कनो अविषय छ । वस्तु स्वभावना नियम मुजब वीतराग वस्तुनो स्वभाव ज स्व पर भवोच्छेदक छ । कोई पण वस्तुस्वभाव तर्कथी अग्राह्य छ। परार्थशव ए ज साची दुष्कृत गर्दा अने कृतज्ञता गुण ए साचु सुकृतनु अनुमोदन दुष्कृत मात्रनुप्रायश्चित्त परार्थवृत्ति छ । केमके परपीड़ाथी दुष्कृतनु उपार्जन छे तेथी तेनी विपक्ष परार्थवृत्तिनु सेवन तेना निराकरणनो उपाय छ । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... प्राराधक बनवानो मार्ग .. - कृति मात्र मन वचन कायाथी थाय छ । तेमां दुष्टत्व लावनार परपीडानो अध्यवसाय छे, अने ते अध्यवसाय राग भावमांथी, स्वार्थभावमांथी जन्मे छ । स्वार्थभावनो प्रतिपक्षीभाव परार्थभाव छे, तेथी परार्थभाव ए ज भव्यत्व परिपाकनो तात्त्विक उपाय छे, परन्तु ते परार्थभाव परपीडाना प्रायश्चित्त रूप होवो जोईए । __ परार्थभावथी एक तरफ नूतन परपीडानु वर्जन थाय छे अने बीजी तरफ पूर्वे करेली परपीडानु शुद्धिकरण थाय छे । तेथी परार्थभाव ए ज साची दुष्कृतगर्दा छे । दुष्कृत गर्हणीय छे, त्याज्य छे, हेय छे, एवी साची बुद्धि तेने ज उत्पन्न थयेली गणाय के जेने सुकृत ए अनुमोदनीय छे, उपादेय छ, अादरणीय छे, एवो भाव स्पष्ट थयेलो होय । ___षरपीडा ए दुष्कृत छे, तो परोपकार ए सुकृत छे, परोपकारमा कर्त्तव्यबुद्धि पेदा थवी ए ज दुष्कृत मात्रनु साचे प्रायश्चित्त छ । परोपकार जेने कर्त्तव्य लागे तेनामां एक बीजो गुण उत्पन्न थाय छे, तेनु नाम कृतज्ञता छे । बीजानो पोता ऊपर थयेलो उपकार जेने स्मरण पथमां नथी ते परोपकार गुणने समज्यो ज नहि । कृतज्ञता गुण सुकृतनुं अनुमोदन करावे छे तेथी परोपकार वृत्ति दृढ थाय छ । एटलुज नथी पण परार्थकरणो अहंकार तेथी विलीन थईजाय छे । पोते जे कई परार्थकरण करे छे, ते पोता ऊपर बीजामोनो जे उपकार थई रह्यो छे तेनो शतांश, सहस्रांश के लक्षांश भाग पण होतो नथी परार्थभावनी साथे कृतज्ञता गुण जोडायेलो होय तो ज ते परार्थभाव तात्त्विक बने छ । अरिहंतादिन शरण गमन __ परार्थवृत्ति अने कृतज्ञता गुण बड़े दुष्कृतगर्दा अने सुकृतानुमोदनरूप भव्यत्व परिपाकना बे उपायो नु सेवन थाय छ । त्रीजो उपाय अरिहंतादि चारनुशरण गमन छ । अहिं शरण गमननो अर्थ ए छे के जेनो परार्थभाव अने कृतज्ञता गुणना स्वामी छे, तेप्रोने ज पोताना एक आदर्श मानवा, तेमना ज सत्कार, सन्मान, आदर बहुमानने पोतानां कर्त्तव्य मानवा। ___परार्थ भाव अने कृतज्ञता गुणना साचा अर्थी जीवोमां ते बे भावनी टोचे (Climax) पहोंचेलायोनी शरणागति, भक्ति, पूजा, बहुमान वगेरे सहजपणे आवे छे । जो ते न आवे तो समजवु के तेने अंतरथी दुष्कृतगर्दा के सुकृतानुमोदन थयेलु नथी। एटलुज नहीं पण दुष्कृतगर्दा के सुकृतानुमोदननो भाव तेनामां उत्पन्न थयो होय तो पण ते सानुबंध नथी। ज्ञान श्रद्धापूर्वकनो नथी। ज्ञान अने श्रद्धाथी विहीन एवो दुष्कृतगर्हा अने सुकृतानुमोदननो भाव निरनुबंध बने छ । क्षणवार टकीने चाल्यो जाय छे । तेथी तेने सानुबंध बनाववा माटे ते बे गुणोने पामेला अने तेनी टोचे पहोंचेला पुरुषोनी शरणागति अपरिहार्य छ । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जन्यती महोत्सव ग्रन्थ ए शरणागति परार्थभाव अने कृतज्ञता गुणने सानुबंध बनाववा माटेनु सामर्थ्यं पुरु पाडे छे, वीर्य वधारे छे, उत्साह जगाडे छे अने तेमनी जेम ज्यां सुधी पूर्णत्व प्राप्त न थाय अर्थात् ते बे गुणोनी क्षायिक भावे सिद्धि न थाय त्यां सुधी साधनामां विकास थतो रहे छे । तेने अनुग्रह पण कहेवाय छे। साधनामां उत्तरोत्तर विकास वधारी सिद्धि सुधी पहोंचाडनार श्रेष्ठ प्रकारना आलंबनो प्रत्ये प्रदरनो परिणाम अने तेथी प्राप्त थती सिद्धि ए तेमनो अनुग्रह गणाय छे। कह्य ं छे के :-- आलंबनादरोद्भूतप्रत्यूहक्षययोगतः । ध्यानाद्यारोहण शो, योगिनां नोपजायते ॥ -अध्यात्मसार ऊँचे चढवामां आलंबनभूत थनारा तत्त्वो प्रत्ये आदरना परिणामथी सिद्धिनी आडे श्रावतां विघ्नोनो क्षय थाय छे अने ते विघ्नक्षयथी योगी पुरुषोने ध्यानादिना प्रारोहणथी भ्रंश थतो नथी । आलंबनोना आदरथी थता प्रत्यक्ष लाभने ज शास्त्रकारो अरिहंतादिनो अनुग्रह कहे छे । अरिहंतादि चारनुं श्रवलम्बन स्वरूपना बोधनं कारण छे जे प्रलंबन लइने जीव आगल वधे छे तेनो उपकार हृदयमां न वसे तो ते पाछो पतनने पामे छे । एटले परार्थवृत्तिरूपी दुष्कृत गर्हा, कृतज्ञता गुणना पालन स्वरूप सुकृतानुमोदना अने ते गुणोनी सिद्धिने वरेला महापुरुषोनी शरणागति, ए त्रणे उपायो मलीने जीवनी मुक्तिगमन योग्यता विसावे छे अने भवभ्रमणनी शक्तिनो क्षय करे छे । साची दुष्कृत गर्दा अने सुकृतानुमोदना दुष्कृत रहित ने सुकृतवान तत्त्वोनी भक्ति साथे जोडायेली ज होय छे । तेथी एक भक्तिने ज मुक्तिनी दूती कहेली छे । कृतज्ञता गुण सुकृतनी अनुमोदना रूप छे । परार्थ वृत्तिदुष्कृतनी गर्हा रूप छे । दुष्कृतनी रूप परार्थ वृत्ति ने सुकृतनी अनुमोदनारूप कृतज्ञताभावथी विशुद्ध थयेल अंतःकरणमा शुद्धात्मतत्त्व प्रतिबिंब पड़े छे । शुद्ध आत्मताव अरिहंत, सिद्ध, साधु ने केवली कथित धर्मथी अभिन्नस्वरूपवालु छे । अरिहंतादि चार शरण गमन ए मुक्तिनु ं अनन्य कारण छे । मुक्ति ए स्वरूपला भरूप छे । स्वरूपनो बोध ए अरिहंतादि चारना अवलंबनथी थाय छे । अरिहंतादि चारनु अवलंबन स्वरूपना वोधनु कारण छे । श्रात्मामां आत्माथी श्रात्माने जागवानुं साधन अरिहंतादि चारनु ं शरण-स्मरण छे । ए चारनु स्मरण ए ज तत्त्वथी आत्मस्वरूप स्मरण छे । आत्मानु स्वरूप निश्चयथी परमात्म तुल्य छे, एवो बोध जेने थयेलो छे, तेने परमात्म स्मरण ए ज वास्तविक शरण गमन छे । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. प्राराधक बनवानो मार्ग प्रात्मतत्व- स्मरण विशुद्ध अंतःकरणमां थायछे आत्मतत्त्ववनु स्मरण विशुद्ध अंतःकरणमां थाय छे । अंतःकरणनी विशुद्धि दुष्कृतगर्दा अने सुकृतानुमोदनथी थाय छ । दुष्कृत परपीडारूप छे । तेनी तात्त्विक गर्दा त्यारे थाय छे के ज्यारे परपीडाथी उपार्जन करेलां पापकर्मने परोपकार वडे दूर करवानो वीर्योल्लास जागेछ । . परार्थकरणनो वीर्योल्लास ए ज परपीड़ाकृत पापनी साची गर्हाना परिणाम स्वरूप छ। दुष्कृत गर्हामां परार्थकरणनी वृत्ति छुपाएली छे । सुकृतानुमोदनमां परार्थकरणनु हार्दिक अनुमोदन छ । चतुःशरण गमनमां परार्थकरण स्वभाववाला आत्मतत्त्वनो आश्रय छ । ___ आत्मतत्त्व पोते ज परार्थकरण अने परपीड़ाना परिहार स्वरूप छे । आत्मानो ते मूल स्वभाव प्राप्त करवा माटे ज परपीड़ानु गर्हण अने परोपकार गुणर्नु अनुमोदन छ । शुद्ध स्वरूपने प्राप्त थयेला अरिहंतादि चार सर्वथा परार्थकरणोद्यत होय छे । तेथी ते स्वरूपनु शरण स्वीकारवा योग्य छ, आदरवा योग्य छे, उपासना करवा लायक छ । • शुद्ध आत्मतत्त्व हमेशां पोताना स्वभावथी ज शुद्धिकरणनु कार्य करे छे तेथी ते ज पुनः पुनः स्मरणीय छ, आदरणीय छ, ज्ञेय छे श्रद्धय छे अने ध्येय छ । सर्व भावथी शरण्य छे-शरण लेवा लायक छ । ____ ज्यांसुधी स्वकृत-पोतेकरेला दुष्कृतनी गर्दा थती नथी, एक नानु पण दुष्कृत गर्हाना विषय विनानु रहे छे, त्यां सुधी स्वपक्षपातरूपी रागदोषनो विकार विद्यमान छ एम समजवु। गर्हाना स्थाने अनुमोदना होवाथी ते मिथ्या छे, तेथी वास्तविक अनुमोदनानु स्थान जे पर सुकृत तेनी अनुमोदना पण साची थती नथी । __परकृत अल्प पण सुकृतनु अनुमोदन बाकी रही जाय छे त्यां सुधी अनुमोदनना स्थाने अनुमोदनना बदले उपेक्षा कायम रहे छे अने ते उपेक्षा पण एक प्रकारनी गर्दा ज बने छ । सुकृतनी गर्दा अने दुष्कृत अनुमोदन अंशे पण विद्यमान होय त्यां सुधी साचुं शरण प्राप्त थतुं नथी। दुष्कृतनुं अनुमोदन रागरूप छे अने सुकृतनुं गर्हण द्वेषरूप छे । तेना पायामां मोह या अज्ञान या मिथ्याज्ञान रहेलु छ । ____ए मिथ्याज्ञानरूपी मोहनीय कर्मनी सत्तामां अरिहंतादिनुं शुद्ध आत्म स्वरूप अोलखातुं नथी केमके ते रागद्वेष रहित छ । वीतराग प्रवस्थानी सूझ-बूझ रागद्वेष रहित शुद्ध स्वरूपनी साची अोलखाण थवा माटे दुष्कृत गर्दा अने सुकृतानुमोदन सर्वाश शुद्ध थर्बु जोईए । ए थाय त्यारे ज रागद्वेष रहित अवस्थावाननी साची Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ शरणागति प्राप्त थई शके छे अने ए शरणागति प्राप्त थाय तो ज भवनो अंत प्रावी शके छे। भवनो अंत लाववा माटे रागद्वेष रहित वीतराग अवस्थानी अंतःकरणमां सूझ-बूझ थवी जोईये । सूझ एटले शोध अर्थात् जिज्ञासा अने बूझ एटले ज्ञान । वीतराग अवस्थानी सूझ-बूझ दुष्कृतगर्दा अने सुकृतानुमोदननी अपेक्षा राखे छे । वीतराग अवस्थानुं माहात्म्य पिछाणवा माटे हृदयनी भूमिका तेने योग्य थवी जोईये । ___ए योग्यता गर्हणीयनी गर्दा अने अनुमोदनीयनी अनुमोदनाना परिणामथी प्रगटे छ । गर्हा दुष्कृत मात्रनी होवी जोईए । अनुमोदना सुकृत मात्रनी होवी जोईये । ए बे होय त्यारे रागद्वेषनी तीव्रता घटी जाय छ । रागंनो राग न होवो अने द्वेष प्रत्ये द्वेषनी वृत्ति होवी ए रागद्वेषनी तीव्रतानो अभाव छ । दुष्कृत गर्दा अने सुकृतानुमोदननी हयातिमां तेनी सिद्धि थाय छे । एथी वीतरागतानी कदर थाय छे, वीतरागताना शरणे जवानी वृत्ति जागे छे, वीतरागता ए ज श्रद्धय, ध्येय अने शरण्य लागे छे । पछी वीतरागता अचिन्त्यशक्तियुक्त छे, तेनो अनुभव थाय छे । रागद्वष रहित वीतराग अवस्था अचिन्त्यशक्तियुक्त छे, तेनाथी विमुख रहेनारनो निग्रह अने तेनी सन्मुख थनारनो ते अनुग्रह करे छ । लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान अने केवल दर्शन के जे आत्मानु सहज स्वरूप छे, ते वीतराग अवस्थामा ज प्रकाशी उ8 छ, अन्य अवस्थामां ते विद्यमान होवा छतां अप्रगट रहे छे । केवलज्ञान-केवलदर्शन वड़े लोकालोकना भाव हस्तामलकवत् प्रतिभासे छे । सर्व द्रव्योना त्रिकालवर्ती सर्व पर्यायोनु ते ग्रहण करे छ । समये समये ज्ञानवडे सर्वने जाणे छे अने दर्शन वडे सर्वने जुए छ । वीतरागताना शरणे रहेनारने तेमना ज्ञानदर्शननो लाभ मले छे । ए ज्ञानदर्शनवडे प्रतिभासित सर्व पदार्थोना सर्व पर्यायादिनी क्रमबद्धता निश्चित थाय छ । तेथी जगतमां बनी गयेला बनीरहेला अने भविष्यमां बननारा सारा नरसा बनावोमां रागद्वेष अने हर्षशोकनी कल्पनामो नाश पामे छ । शरणगमन वडे चित्तनु समत्व समग्र विश्वतंत्र प्रभुना ज्ञानमां भासे छे अने ते ज रीते प्रवर्तित थाय छ । तेथी प्रभुने आधीन रहेनारने विश्वनी पराधीनता मटी जाय छ । विश्व ने आधीन प्रभु नथी पण प्रभुना ज्ञानने आधीन विश्व छ । एवी प्रतीति थाय छे तेथी चित्तनु समत्व अखंडपणे जलवाई रहे छ । समत्व जलवाई रहेवाथी आत्मा अखंड संवर भावमा रहे छे। नवा आवतां कर्म रोकाई जाय छे अने जुनां कर्म भोगवाई जाय छे। तेथी कर्म रहित थई आत्मा अव्याबाध सुखनो भोक्ता थाय छे । अरिहंतादि चारना शरणनो आ अचिन्त्य प्रभाव छ । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आराधक बनवीनो मार्ग अरिहंत ने सिद्ध वीतराग स्वरूप छे । साधुनु निर्ग्रन्थस्वरूप छे अने केवलिकथित धर्म दयामय स्वरूप छे । धर्म ए ध्रुव छे, नित्य अनंत ने सनातन छे । तेनुं प्रधान लक्षण दया छे । दयामा पोताना दुःखना द्वेष जेटलो ज द्वेष बीजानां दुःखो प्रत्ये पण जागे छे । पोताना सुखनी इच्छा जेटली ज इच्छा बीजाना सुखो प्रत्ये पण उत्पन्न थाय छे । ए इच्छा रागा - त्मक होवा छता परिणामे रागने निर्मूल करनारी छे । दयामां बीजा बधानां दुःखो प्रत्ये पोताना दुःख जेटलो ज द्वेष छे । छतां ते द्वेष, द्वेषवृत्ति ने अंते निर्मूल करे छे । जेम कांटाथी ज कांटो नीकले छे अने अग्निथी अग्नि शमे छे तथा विषथी विष नाश पामे छे, ए न्याये रागद्वेषनी वृत्ति रूपी कांटाने काढवा माटे सर्व जीवोना सुखनो राग अने सर्व जीवोना दुःखनो द्वेष अन्य कांटानु काम करे छे । अप्रशस्त कोटिना राग द्वेषरूपी विषने शमाववा माटे बीजा विषनुं काम करे छे । स्वजतना सुख विषयक राग अने स्वजातना दुःख विषयक द्वेषरूपी आर्त्तध्याननी अग्निने बुझाववा माटे सर्वजीवोना सुखनी अभिलाषारूपी राग अने सर्व दुःखी जीवोना दुःख प्रत्येनो द्वेष धर्मध्यान रूपी अग्निनी गरज सारे छे । धर्मवृक्षना मूलमां दया छे तेथी धर्मवृक्षना फलमां पण दया ज प्रकटे छ दया लक्षण धर्म ए रीते प्रशस्त रागद्वेषनुं शल्य दूर करवामां साधनरूप बनी, जीवने सदाने माटे रागद्वेष रहित वीतराग अवस्था पमाडनार थाय छे । वीतराग अवस्था अवश्य सर्वज्ञता अने सर्वदर्शिता अपावनारी होवाथी दया प्रधान धर्म, सर्वज्ञता ने सर्वदशिताने पमाडनार पण थाय छे । दया छे प्रधान जेमा एवो केवलि.कथित धर्म जे कोई त्रिकरणयोगे यावज्जीवित प्रतिज्ञा पूर्वक साधनारा छे, तेस्रो साधुनिर्ग्रन्थ गणाय छे। रागद्वेषनी गांठथी घणा छूटेला होवाथी अने शेष अंशथी स्वल्प कालमां ज अवश्य छुटनारा होवाथी ते पण शरण्य छे । निर्ग्रन्थ अवस्था वीतराग अवस्थाने अवश्य लावनारी होवाथी ते प्रच्छन्न वीतरागता ज छे । दया प्रधान धर्मनुं प्रथम फल निर्ग्रन्थता छे अने अंतिम फल वीतरागता छे । क्षयोपशम भावनी दयानुं परिपूर्ण पालन ते निर्ग्रन्थता छे अने क्षायिक भावनी दयानुं प्रकटीकरण वीतरागता छे । निर्ग्रन्थता ( साधु धर्म ) ए प्रयत्न साध्य दयानुं स्वरूप छे अने वीतरागता ए सहज साध्य दयामयता छे । दया सर्वमां मुख्य छे, पछी ते धर्म हो के धर्मने साधनारा साधु हो के साधुपणाना फलस्वरूप अरिहंत के सिद्ध परमात्मा हो । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव अन्य धर्म वृक्षना मूलमां दया छे तेथी धर्म वृक्षना फलमां पण दया ज प्रकटे छ। साधु दयाना भंडार छे तो अरिहंत अने सिद्ध ए दयाना निधान छ । दयावृत्ति अने दयानी प्रवृत्तिमां तारतम्यता भले हो पण बधानो आधार एक दया ज छे, ते सिवाय बीजुं कशुं ज नथी। अरिहंत अने सिद्ध परमात्मानु ध्यान ए कर्मक्षयर्नु असाधारण कारण छे जीवन रूपांतर करनार रसायणना स्थाने एक दया छे, ते कारणे तीर्थकरोए दयाने ज वखाणी छे । धर्मतत्त्वर्नु पालन पोषण अने संवर्धन करनारी एक दया ज छे अने ते दुःखी अने पापी प्राणीप्रोना दुःख अने पापनो नाश करवानी वृत्ति अने प्रवृत्तिरूप छे तथा क्षायिक भावमां सहज स्वभावरूप छे । ते स्वभाव दुःखरूपी दावानलने एक क्षणमात्रमा शमाववा माटे पुष्करावर्त मेघनी गरज सारे छे । पुष्करावर्त मेघनी धारा जेम भयंकर दावानलने पण शांत करी दे छे, तेम आत्मानो सहज शुद्ध स्वभाव जेओने प्रगट थयो छे, तेश्रोना ध्यानना प्रभावथी दुःख दावानलमां दाझता संसारी जीवोना दुःख दाह एक क्षणवारमां शमी जाय छ । ___ शुद्ध स्वरूपने पामेला अरिहंतादि आत्मानो ध्यान तेमना पूजन वडे, स्तवन वडे, तेमनी आज्ञाना पालन आदि वडे थाय छे । शुद्ध स्वरूपने पामेला आत्माअोनुं ध्यान ए ज परमात्मानुं ध्यान छे अने ए ज निज शुद्धात्मानुं ध्यान छ । ध्यान वडे ध्याता ध्येयनी साथे एकतानो अनुभव करे छे ते समापत्ति छ । अने ते ज एक कर्मक्षयर्नु असाधारण कारण छ । निज शुद्ध आत्मा द्रव्य, गुण अने पर्यायथी अरिहंत अने सिद्ध समान छ, तेथी अरिहंत अने सिद्ध परमात्मानुं ध्यान द्रव्य, गुण अने पर्यायथी पोताना शुद्ध आत्माना ध्यान कारण बने छ । कारणमांथी कार्य उत्पन्न थाय छ, ए न्याये अरिहंत अने सिद्ध परमात्माना ध्यान वडे सकल कर्मनो क्षय थवाथी पोतानुं शुद्ध स्वरूप प्रगटे छ। कर्मक्षयन असाधारण कारण शुद्ध स्वरूप ध्यान छ । कां छ के मोक्षः कर्म क्षयादेव, स चाऽत्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मंतं तच्च, तद्ध्यानं हितमात्मनः ॥१॥ सकल कर्मना क्षयथी मोक्ष उत्पन्न थाय छे । अने सकल कर्मनो क्षय आत्मज्ञानथी थाय छ । आत्मज्ञान परमात्माना ध्यानथी प्रगटे छे, तेनी पोतान' शुद्ध आत्मस्वरूपना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राराधक बनवानो मार्ग ११ लाभरूप मोक्ष मेलववा माटे परमात्माना ध्यानमां लीन थ जोईये केमके ते ध्यान ज प्रात्माने मोक्षसुखनु असाधारण कारण होवाथी अत्यंत हित करे छ । स्वरूपनी अनुभूति अरिहंतादि चारनुशरण ए शुद्ध आत्मस्वरूपनु स्मरण करावनार होवाथी अने तेना ध्यानमां ज तल्लीन करनार होवाथी तत्त्वतः शुद्ध आत्मस्वरूपनुज शरण छ । अने शुद्ध प्रात्मस्वरूपनु शरण एज परम समाधिने अर्पनार होवाथी परम आदेय छ । ते माटेनी योग्यता दुष्कृत गर्दा अने सुकृतानुमोदनथी प्राप्त थाय छे तेथी दुष्कृत गर्दा अने सुकृतानुमोदना पण उपादेय छ । दुष्कृत गर्दा अने सुकृतानुमोदना सहित अरिहंतादि चारनु शरण ए भव्यत्व परिपाकना उपाय तरीके शास्त्रमा वर्णवेलुछे, ते युक्ति अने अनुभवथी पण गम्य छ। __ दुष्कृतगर्दा अने सुकृतानुमोदन परार्थवृत्ति अने कृतज्ञता भावने उत्तेजित करनार होवाथी अंतःकरणनी शुद्धता करे छे, ए युक्ति छ अने शुद्ध अन्तःकरणमां ज परमात्म स्वरूपनु प्रतिबिंब पडी शके छे, एवो सर्व योगी पुरुषोनो छ पण अनुभव छ । ... समुद्र के सरोवर ज्यारे निस्तरंग बने छे त्यारे ज तेमां आकाशादिप्रतिबिंब पड़ी शके छे । तेनी जेम अन्तःकरणरूपी समुद्र के सरोवर ज्यारे संकल्प विकल्परूपी तरंगोथी रहित बने छे त्यारे ज तेमां अरिहंतादि चारनुं अने शुद्धात्मानुं प्रतिबिंब पड़े छ । ___ अंतःकरणने निस्तरंग अने निर्विकल्प बनावनार दुष्कृतगर्दा अने सुकृतानुमोदनना शुभ परिणाम के अने तेमां शुद्धात्मानुं प्रतिबिंब पाड़नार अरिहंतादि चारनुं स्मरण अने शरण छ। . स्मरण ध्यानादि वडे थाय छ अने शरणगमन आज्ञापालनाना अध्यवसाय वडे थाय छ । आज्ञापालननो अध्यवसाय निर्विकल्प चिन्मात्र समाधिने आपनारो छ । अने निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि अर्थात् शुद्धात्मानी साथे एकतानी अनुभूतिने अंग्रेजीमां Self Identification (सेल्फ आइडेन्टीफिकेशन) स्वरूपनी अनुभूति पण कहे छ । ए रीते परंपराए दुष्कृत गर्दा अने सुकृतानुमोदननुं अने साक्षात् श्री अरिहंतादि चारना शरणगमनन फल होवाथी ते त्रणेने जीव तथाभब्यत्व, मुक्तिगमन योग्यत्व पकावनार तरीके शास्त्रमा अोलखाववामां आवेल छ, ते यथार्थ छ । दुर्लभ एवा मानव जीवनमां ते त्रणे साधनोनो भव्यत्व पकाववाना उपाय तरीके आश्रय लेवो ए प्रत्येक मुमुक्षु आत्मानु परम कर्त्तव्य छ । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा लेखक पू० पंन्यासजी महाराज श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर [२] मन- बल मंत्रथी विकसे छे । नमस्कार मनुष्यनी पोतानी पुंजी छ । नमवू ए ज मानवमन अने बुद्धिनुं तात्त्विक फळ छ । नमः ए दैवी गुण अने आध्यात्मिक संपत्ति छ । बीजाना गुण ग्रहण करवानी शक्ति (Receptivity) नमस्कारमा रहेली छ । शरीरने मन करतां वधु महत्त्व न मलq जोईए । शरीर ए गाडी छ अने मन ए घोडो छ । मनरूपी घोडो शरीररूपी गाडीनी आगळ जोडवो जोईए। ___ मन वडे ज तत्त्वनी प्राप्ति थाय छ । शाश्वत सुख अने साची शांति अंतरमांथी मेलववानी छ । हाथीन शरीर मोटुं अने वजनदार छ' परन्तु कामी छ । सिंहन शरीर नानुं अने हलक होवा छतां कामनो विजेता छ, तेथी हाथीने पण सिंह जीती जाय छ । मानवीन मन सिंह करतां पण बळवान होवाथी सिंहने पण वश करीने पांजरामां पूरे छ । मननं बळ मंत्रथी विकसे छे । मंत्रमा सौथी श्रेष्ठ मंत्र नमस्कार मंत्र छ । तेथी अंतरना शत्रु काम, क्रोध अने लोभ, राग, द्वेष अने मोह त्रणे जीताय छ । ___ नमस्कार मंत्रमां पापनी घृणा छ अने पापीनी दया छ । पापनी घृणा' आत्मबळ ने वधारे छ, नम्रता अने निर्भयता लावे छ । पापीनी घृणा आत्मबळने घटाडे छ, अहंकार अने कठोरता लावे छ, साचो नमस्कार प्रेम अने आदर वधारे छ, स्वार्थ अने कठोरतानो त्याग करावे छ । जेटलो अहंकार तेटलु सत्यनु पालन अोछु। जेटलु सत्यनु पालन अोछुतेटलु जितेन्द्रियपणु अोळु तथा काम, क्रोध अने लोभनु बल वधारे । नमस्कारथी वाणीनी कठोरता, मननी कृपणता अने बुद्धिनी कृतघ्नता नाश पामे छे, कोमलता, उदारता अने कृतज्ञता विकसित थाय छे। नमस्कार वडे मनोमय कोषनी शुद्धि नमस्कारमा न्याय छे, सत्य छ, दान छे अने सेवानो भाव रहेलो छ । न्यायमां क्षात्रवट छ । सत्य अने तेना बहुमानमां ब्रह्मज्ञान छ । दान अने दयामां श्री अने वाणिज्यनी सार्थकता Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा छ । सेवा अने शुश्रूषामां संतोष गुणनी सीमा छे, नमस्कार वडे क्षत्रियोनु क्षात्रवट, ब्राह्मणोनु ब्रह्मज्ञान, वैश्योनो दानगुण अने शुद्रोनो सेवागुण एक साथे सार्थक थाय छ । समर्पण, प्रेम, परोपकार अने सेवाभाव ए मानव मनना अने विकसित बुद्धिना सहज गुण छ । ___ मनुष्य जन्मने श्रेष्ठ बनावनारी कोई चीज होय तो ते पवित्र बुद्धि छे । जीव, देह अने प्राण तो प्राणी मात्रमा छे, पण विकसित मन अने विकसित बुद्धि तो मात्र मनुष्यमां ज छ । बधु होय पण सद्बुद्धि न होय तो बधानो दुरुपयोग थईने दुर्गति थाय छ । बीजुकाई न होय पण सद्बुद्धि होय तो तेना प्रभावे बधुवी मळे छ । _____ मानव मनमा अहंकार अने आसक्ति ए बे मोटा दोष छ । बीजाना गुण जोवाथी अने पोताना दोष जोवाथी अहंकार अने आसक्ति जाय छ । नमस्कार ए बीजाना गुण ग्रहण करवानी अने पोतानामां रहेला दोषो दूर करवानी क्रिया छ । नमस्कारथी सद्बुद्धिनो विकास थाय छे अने सद्बुद्धिनो विकास थवाथी सद्गति हस्तामलकवत् बने छ । .. नमस्काररूपी वज्र अहंकाररूपी पर्वतनो नाश करे छ। नमस्कार मानवना मनोमय कोषने शुद्ध करे छ । अहंकारनु स्थान मस्तक छ । मनोमय कोष शुद्ध थवाथी अहंकार आपोआप विलय पामे छ । ___ नमस्कारमा कर्म, उपासना, अने ज्ञान ए त्रणेनो सुमेळ छ। कर्मनुफळ सुख, उपासनानुफळ शान्ति अने ज्ञाननुफळ प्रभुप्राप्ति छ । नमस्कारना प्रभावे आ जन्ममां सुखशांति अने जन्मान्तरमा परमात्मपदनी प्राप्ति सुलभ बने छ । कर्मफळमां विश्वासात्मक बुद्धि ते सदबुद्धि छ । सदबुद्धि शांतिदायक छ । नमस्कारथी ते विकास पामे छ । अने तेना प्रभाव हृदयमां प्रकाश प्रकटे छ । ज्ञान-विज्ञाननु स्थान बुद्धि छे अने शांति-आनंदन स्थान हृदय छ । बुद्धिनो विकास अने हृदयमां प्रकाश ए नमस्कारनु असाधारण फळ छ । बुद्धिनी निर्मलता प्रने सूक्ष्मता मानव जन्म दुर्लभ छ, तेथी पण दुर्लभ पवित्र अने तीव्र बुद्धि छ । नमस्कार शुभ कर्म होवाथी तेना वड़े बुद्धि तीक्ष्ण बने छ । नमस्कारमां भक्तिनी प्रधानता होवाथी बुद्धि विशाल अने पवित्र बने छ । नमस्कारमा सम्यग्ज्ञान होवाथी बुद्धि सूक्ष्म पण बने छ । बुद्धिने सूक्ष्म, शुद्ध अने तीक्ष्ण बनाववानुं सामर्थ्य आ रीते नमस्कारमा रहेलु छ । परमपदनी प्राप्ति माटे बुद्धिना ते त्रणे गुणोनी आवश्यकता छ । सूक्ष्म बुद्धि विना नमस्कारना गुणो जाणी शकाता नथी। शुद्ध बुद्धि विना नमस्कार्य प्रत्ये प्रेम प्रगटी शकतो Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ नथी अने तीक्ष्ण बुद्धि विना नमस्कारना गुणोनुं स्मरण चित्तरूपी भूमिमां सुदृढ करी शकातुं नथी। ____नमस्कार कर्तामा रहेलो न्याय, नमस्कार्य तत्त्वमा रहेली दया, नमस्कार क्रियामा रहेनुं सत्य बुद्धिने सूक्ष्म, शुद्ध अने स्थिर करी आपे छ । ए रीते बुद्धिने सूक्ष्म, शुद्ध अने स्थिर करवान सामर्थ्य नमस्कारमा रहेलुं छ । __ नमस्कारमा अहंकार विरुद्ध नम्रता छ, प्रमाद विरुद्ध पुरुषार्थ छ अने हृदयनी कठोरता विरुद्ध कोमळता छ । नमस्कारथी एक बाजु मलिन वासना, बीजी बाजू चित्तनी चंचळता दूर थवानी साथे ज्ञानन घोर आवरण जे अहंकार ते टळी जाय छ । नमस्कारन क्रिया श्रद्धा, विश्वास अने एकाग्रता वधारे छ। श्रद्धाथी तीव्रता, विश्वासथी सूक्ष्मात अने एकाग्रताथी बुद्धिमां स्थिरतागुण वधे छ । नमस्कारथी साधकन मन परम तत्त्वमा लागे छ अने बदलामां परम तत्त्व तरफथी बुद्धि प्रकाशित थाय छ । ते प्रकाशथी बुद्धिना दोष मंदता, संकुचितता, संशययुक्तता, मिथ्याभिमानितादि अनेक दोषो एक साथे नाश पामे छ । नमस्कार मंत्र ए सिद्ध मंत्र छ नमस्कार एक मंत्र के अने मंत्रनो प्रभाव मन पर पड़े छ । मनथी मानवान अने बुद्धिथी जाणवानु काम थाय छ । मंत्रथी मन अने बुद्धि बंने परम तत्त्व ने समर्पित थई जाय छ । श्रद्धानु स्थान मन छ अने विश्वासन स्थान बुद्धि छ । ए बंने प्रभुने समर्पित थई जाय छ, त्यारे ते बंनेना दोषो बळीने भस्मीभूत थई जाय छ । स्वार्थांधताना कारणे बुद्धि मंद थई जाय छ, कामांधताना कारणे बुद्धि कुबुद्धि बनी जाय छ, लोभांधताना कारणे बुद्धि दुर्बुद्धि बनी जाय छ, क्रोधांधताना कारणे बुद्धि संशयी बनी जाय छ', मानांधताना कारणे बुद्धि मिथ्या बनी जाय छ, कृपणांधताना कारणे बुद्धि अतिशय संकुचित बनी जाय छ । नमस्काररूपी विद्युत चित्तरूपी बेटरीमां ज्यारे प्रगट थाय छ', त्यारे स्वार्थथी मांडीने काम, क्रोध, लोभ, मान, माया, दर्प आदि सघळा दोषो दग्ध थई जाय छ अने चित्तरत्न चारे दिशाएथी निर्मलपणे प्रकाशी उठे छ । समता, क्षमा, संतोष, नम्रता, उदारता, निःस्वार्थता आदि गुणो तेमां प्रगटी नीकळे छ ।। शब्द ए नमस्कारनु शरीर छ, अर्थ ए नमस्कारनो प्राण छ अने भाव ए नमस्कारनो आत्मा छ । नमस्कारनो भाव ज्यारे चित्तने स्पर्श छ, त्यारे मानवने मळेल आत्मविकास माटेनो अमूल्य अवसर धन्य बने छ । नमस्कारथी आरंभ थयेल भक्ति अंते ज्यारे समर्पणमां पूर्ण थाय छ त्यारे मानवी पोताने प्राप्त थयेल जन्मनी सार्थकता अनुभवे छ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा नमस्कार मंत्र ए सिद्ध मंत्र छ । ए मंत्र- स्मरण करवा मात्रथी आत्मामा जीवराशि ऊपर स्नेह परिणाम जागृत थाय छ । ए माटे स्वतंत्र अनुष्ठान के पुरश्चरणादि विधिनी पण जरूर पडती नथी । तेमा मुख्य कारण पंच परमेष्ठि भगवंतोनो अनुग्रहकारक सहज स्वभाव छ, तथा प्रथम परमेष्ठि अरिहंत भगवंतोनो “जीव मात्रनुं आध्यात्मिक कल्याण थानो" एवो सिद्ध संकल्प छ। प्रभेदमां अभय अने भेदमा भय गुण बहुमाननो परिणाम अचिन्त्य शक्तियुक्त कह्यो छ । निश्चयथी बहुमाननो परिणाम अने व्यवहारथी बहुमाननो सर्वोत्कृष्ट विषय, बेऊ मळीने कार्य सिद्धि थाय छ । गुणाधिकनुं स्मरण करवाथी रक्षा थाय छ, तेमां वस्तु स्वभावनो नियम कार्य करे छ । ध्याता अंतरात्मा ज्यारे ध्येय परमात्मानुध्यान करे छे, त्यारे चित्तमां ध्याता-ध्येयध्यान ए त्रणेनी एकता रूपी समापत्ति थाय छे, तेथी क्लिष्ट कर्मनो विगम थाय छे अने अंतरात्माने अद्भूत शांति मळे छे, तेनुं ज नाम मंत्रथी रक्षा गणाय छ । - परना सुकृतनी अनुमोदनारूप सुकृत अखंडित शुभ भावनू कारण छ । परम तत्त्व प्रत्ये समर्पण भाव एक बाजु नम्रता अने बीजी बाजु निर्भयता लावे छे अने ए बेना परिणामे निश्चिन्तता अनुभवाय छ । . अभेदमां अभय छे अने भेदमां भय छ । नमस्कारना प्रथम पदमां 'अरिहं' शब्द छे, ते अभेदवाचक छे, तेथी तेने करातो नमस्कार अभयकारक छ । अभयप्रद अभेदवाचक 'अरिहं' पदनुं पुनः पुनः स्मरण त्राण करनारूं, अनर्थने हरनारूं छे तथा आत्मज्ञानरूपी प्रकाशने करनालं होवाथी सौ कोई विवेकीने अवश्य आश्रय लेवा लायक छ । नमस्कार मंत्र ए महा क्रिया योग छे पंच मंगलरूप नमस्कार मंत्र ए महाक्रिया योग छे, केमके तेमां बने प्रकारना तप, पांचे प्रकारनो स्वाध्याय अने सर्वोत्कृष्ट तत्त्वोनुं प्रणिधान रहेलुं छे । बाह्य आभ्यंतर तप ए कर्म रोगनी चिकित्सारूप बने छ । पांचे प्रकारनो स्वाध्याय ए महामोहरूपी विषने उतारवा माटे मंत्र समान बनी रहे छ । अने परम पंचपरमेष्ठिन प्रणिधान भवभयर्नु निवारण करवा माटे परम शरणरूप बने छ । नमस्काररूप पंचमंगलनी क्रिया ए अभ्यंतर तप, स्वाध्याय अने ईश्वर प्रणिधानरूप महाक्रियायोग छे, एर्नु स्मरण अविद्यादि क्लेशोनो नाश करे छे अने चित्तनी अखंड समाधिरूप फलने उत्पन्न करे छे । क्लेशनो नाश दुर्गतिनो क्षय करे छ । अने समाधिभावना सद्गतिर्नु सर्जन करे छ । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जन्यती महोत्सव अन्य नमस्कारमा 'नमो' पद पूजा अर्थमां छे अने 'पूजा' द्रव्यभाव संकोच अर्थमा छ । द्रव्य संकोच कर-शिरः-पादादिनु नियमन छे अने भाव संकोच ए मननो विशुद्ध व्यापार छ । __ बीजी रीते नमो ए स्तुति, स्मृति अने ध्यानपरक तथा दर्शन, स्पर्शन अने प्राप्तिपरक पण छ । श्रुति वडे नामग्रहण, स्मृति वडे अर्थभावन अने ध्यान वडे एकाग्र चिंतन थाय छ । तथा दर्शन वडे साक्षात्करण, स्पर्शन वडे विश्रांतिगमन अने प्राप्ति वडे स्वसंवेद्य अनुभवन पण थाय छ । नामग्रहण आदि वडे द्रव्यपूजा अने अर्थभावन, एगाग्रचिन्तन, तथा साक्षात्करणादि वडे भावपूजा थाय छ । ___ जेम जल वडे दाहनु शमन, तृषानु निवारण अने पंकनु शोषण थाय छे, तेम नमो पदना अर्थनी पुनः पुनः भावना वडे कषायना दाहनु शमन थाय छे । विषयनी तृषानु निवारण थाय छे, अने कर्मनो पंक शोषाई जाय छे, जेम अन्न वडे क्षुधानी शान्ति, शरीरनी तुष्टि अने बलनी पुष्टि थाय छे, तेम नमो पद वडे विषय क्षुधानु शमन, आत्माना संतोषादि गुणोनी तुष्टि तथा आत्माना बल-वीर्य-पराक्रमादि गुणोनी पुष्टि थाय छ । ऋणमुक्तिनं मुख्य साधन नमस्कार मानवजीवननुसाचु ध्येय ऋणमुक्ति छ । ऋणमुक्तिनु मुख्य साधन नमस्कार छ । नमस्कार ए विवेकज्ञाननु फळ छे अने विवेकज्ञान ए समाहित चित्तनु परिणाम छ । परमेष्डि स्मरणथी चित्तसमाधिवाळु बने छ। “साधक समाहित चित्तवाळा बनो" एवो संकल्प सर्व परमेष्ठि भगवंतोनो छ । तेथी तेमनुस्मरण अने नामग्रहण साधकना चित्तने समाधि वाळेकरे छ । समाधिवाळा चित्तमां विवेक स्फुरे छे अने विवेकी चित्तमां ऋणमुक्तिनी भावना प्रगटे छ । ऋणमुक्तिनी भावनामाथी प्रकटेली नमस्कृति अवश्य ऋणमुक्ति-साचा अर्थमां कर्ममुक्तिने अपावे छ । नमस्कार मंत्र वडे पंचमंगल महाश्रुतस्कंधरूप श्रुतज्ञाननुआराधन थाय छे। तेमां थती पंच परमेष्ठिनी स्तुति वडे सम्यग् दर्शन गुणनु आराधन थाय छे, अने त्रिकरण योगे थती नमन क्रिया वडे चारित्र गुणनु आराधन थाय छ । ____ ज्ञान गुण पाप-पुण्यने समजावे छे, दर्शनगुण पापनी गर्दा अने पुण्यनी अनुमोदना करावे छे अने चारित्रगुण पापनो परिहार तथा धर्मनें सेवन करावे छे । ज्ञानथी धर्म मंगळ समजाय छ । दर्शनथी धर्म मंगळ सद्दहाय छे । अने चारित्रथी धर्म मंगळ जीवनमां जीवाय छे । ___गुणोमां उपादेयपणानी बुद्धि ए साची श्रद्धा छ । उपादेयपणानी बुद्धि गुणो प्रत्ये उपेक्षा बुद्धिनो नाश करे छे । पंचपरमेष्ठिरो गुणोना भंडार होवाथी तेमनो नमस्कार गुणोमां -उपादेयपणानी बुद्धिने पुष्ट करे छ। पंचपरमेष्ठिरोए पांच विषयोने तज्या छे, चार कषायोने जीत्या छ, तेस्रो पांच महाव्रतो अने पांच आचारोथी संपन्न छे, आठ प्रवचन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रक्षा १७ माता अने अढार हजार शीलांग रथना धोरी छे। तेमने नमस्कार करवाथी तेमनामा रहेला बधा गुणोने नमस्कार थाय छे, गुणो प्रत्ये अनुकूलतानी बुद्धि अने दोषो प्रत्ये प्रतिकूलपगानी सन्मति जागे छ । राग द्वेष भने मोहनो क्षय नवपद युक्त नवकारथी नवमुपापस्थान लोभ अने अढारमुपापस्थान मिथ्यात्वशत्य नाश पामे छे । नवकार ए दुन्यवी लोभनो शत्रु छे केमके एमां जेने नमस्कार करवामां आवे छे, ते पांचे परमेष्ठि भगवंतो संसार सुखने तृणवत् संमजी तेनो त्याग करनारा छे मने मोक्षसुख ने प्राप्त करवा माटे परम पुरषार्थ करनारा छ । नवकार जेम सांसारिक सुखनी वासना अने तृष्णानो त्याग करावे छे, तेम मोक्षसुखनी अभिलाषा अने तेने माटे ज सर्व प्रकारनो प्रयत्न करता शीखवे छे। नवकार ए पापमां पापबुद्धि अने धर्ममां धर्मबुद्धि शीखवनार होवाथी मिथ्यात्वशल्य नामना पापस्थानकनो छेद उडावे छे अने शुध्ध देव, गुरु तथा धर्म उपर प्रेम जगाडी स रत्नने निर्मळ बनावे छ । नवकारथी भवनो विराग जागे छे ते लोभ कषायने हणी नाखे छे अन नवकारथा भगवद्-बहुमान जागे छे ते मिथ्यात्वशल्यने दूर करी आपे छ । राग दोषनो प्रतिकार ज्ञानगुण वडे थाय छे । ज्ञानी पुरुष निष्पक्ष होवाथी पोतामां रहेलां दुष्कृत्योने जोई शके छे । निरन्तर तेनी निंदागर्दी करे छे । अने ते द्वारा पोताना आत्माने दुष्कृत्योथी उगारी ले छे । द्वेष दोषनो प्रतिकार दर्शन गुणवडे थाय छ। सम्यग् दर्शन गुणने धारण करनार पुण्यात्मा नमस्कारमा रहेला अरिहंतादिना गुणोने, सत्कर्मोने अने बिश्वव्यापी उपकारोने जोई शके छे, तेथी तेने विषे प्रमोदने धारण करे छे, सत्कमो अने गुणोनी अनुमोदना तथा प्रशंसा द्वारा पोताना आत्माने सन्मार्गे वाळी शके छ । ज्ञान-दर्शन गुणनी साथे ज्यारे चारित्र गुण भळे छे, त्यारे मोह दोषनो मूळ थी क्षय थाय छ। मोह जेवाथी पापमां निष्पापतानी अने धर्मेमां अकर्तव्यतानी बुद्धि दूर थाय छ । ते दूर थवाथी पापमा प्रवर्तन अने धर्ममां प्रमाद-बेदरकारी अटकी जाय छ। पापनु परि वर्जन अने धर्मनु सेवन अप्रमत्तपणे थाय छे । ते प्रात्मा चरित्र धर्मरूपी महाराजना राज्यनो वफादार सेवक बने छे अने मोक्ष साम्राज्यना सुखनो अनुभव करे छ । . .. नवकारमा सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन अने सम्यक् चारित्र ए त्रणे गुणोनी आराधना रहेली होवाथी दुष्कृत गर्दा, सुकृतानुमोदना अने प्रभु आज्ञानुपालन प्रतिदिन वध जाय छे, तेथी मुक्ति सुखना अधिकारी थवाय छ । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ निर्वेद प्रने संवेग रस नवकारमा निर्वेद अने संवेग रसनु पोषण थाय छ । निगोददिमां रहेला जीवोना दुःखनो विचार करीने चित्तमां संसार प्रत्य उद्वेग धारण करवो ते निर्वेद रस छे अने सिद्धिगतिमां रहेला सिद्ध भगवंतादिना सुखने जाईने आनंदनो अनुभव थवो ते संवेगरस छ। दुःखी जीवोनी दया अने सुखी जीवोना प्रमोदवडे राग, द्वेष अने मोह ए त्रणे दोषोनो निग्रह थाय छ। बधा दुःखी आत्माना दुःख करतां नरकना नारकीनु दुःख वधी जाय छे, तेथी पण अधिक दुःख निगोदमां रहेलुछे । बधा दुःखी आत्माअाना सुख करतां अनुत्तरना देवोनुं सुख चड़ी जाय छे तेथी पण एक सिद्धना आत्मानु सुख अनंत गुण अधिक छ । एक निगोदनो जीव जे दुःख भोगवे छे, ते दुःखनी आगळ निगोद सिवायना सर्व दुःखी जीवोनु दुःख एकत्र थाय तो पण कांई वीसातमां नथी । एक सिद्धना जोवनु सुख देव अने मनुष्यना त्रणे काळना सुखनो अनंतवार गुणाकार के वर्ग करवामां आवे तो पण तेनी सरखामणीमां घणु वधारे छे । पोताथी अधिक दुःखीना दुःखने दूर करवानी बुद्धिरूप दयाना परिणामथी पोतानु दुःख अने तेथी आवेली दीनता नष्ट थाय छे । पोताथी अधिक सुखीनु सुख जोइने तेमां हर्ष के प्रमोदभाव धारण करवाथी पोताना सुखनो मिथ्या गर्व के दर्प गळी जाय छ । ___ दीनता के दर्प, भय के द्वेष, खेद के उद्वेग आदि चित्तना दोषोनु निवारण करवा माटे गुणाधिकनी भक्ति अने दुःखाधिकनी दया ए सरळ अने सर्वोत्तम उपाय छे, तेने ज शास्त्रनी परिभाषामां संवेग-निर्वेद गणाव्या छ । नवकारमां ते बंने प्रकारना रसो पोषाता होवाथी जीवनी मानसिक अशांति अने असमाधि तेना स्मरणथी दूर थाय छे। । सेवन कारण पहेली भूमिका-प्रभय प्रद्वष प्रखेव नमस्कार मंत्रनी साधनाथी शुद्ध प्रात्मानो साथे कथंचित् अभेदनी साधना थाय छ । ज्यां अभेद त्यां अभय ए नियम छ । भेदथी भय अने अभेदथी अभय अनभव सिद्ध छ । भय ए चित्तनी चंचलतारूप बहिरात्मदशारूप आत्मानो परिणाम छे । अभेदना भावनथी ते चंचलता दोष नाश पामे छे अने अंतरात्मदशारूप निश्चलता गुण उत्पन्न थाय छ । __अभेदना भावनथी अभयनी जेम अद्वेष पण सधाय छ । द्वेष अरोचक भावरूप छ, ते अभेदना भावनथी चाल्यो जाय छ । अभेदना भावनथी जेम भय अने द्वष टळी जाय छ, तेम खेद पण नाश पामे छ । खेद ए प्रवृत्तिमां थाक रूप छे । ज्यां भेद त्यां खेद अने ज्यां अभेद त्यां अखेद आपोआप आवे छे । नमस्कार मंत्रना प्रभावे जेम अभेद बुद्धि दृढ थती जाय छ तमे भय, द्वेष अने खदे दोष चाल्या जाय छ अने तेना स्थाने अभय, अद्वेष अने अखेद गुण आवे छ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा भय द्वष अने खेद जे आत्माना तात्त्विक स्वरूपना अज्ञानथी उत्पन्न थता हता ते आत्भानु शुद्ध अने तात्त्विक स्वरूप नु सम्यग् ज्ञान थतांनी साथे दूर थई जाय छे । नमस्कार मंत्रमा रहेला पांचे परमेष्ठिरो शुद्ध स्वरूपने पामेला होवाथी तेमनो नमस्कार ज्यारे चित्तमां परिणाम पामे छे, त्यारे आत्मामां सर्वनी साथे आत्मपणाथी तुल्यतानु ज्ञान तथा स्वस्वरूपथी शुद्धतानुज्ञान आविर्भाव पामे छे अने ते आविर्भाव पामतांनी साथे ज भय, द्वेष अने खेद चाल्या जाय छ । नमस्कारमंत्र वैराग्य अने अभ्यास स्वरूप छ। वैराग्य ए निर्धान्त ज्ञाननु फळ छे अने अभ्यास ए चित्तनी प्रशान्तवाहितानु नाम छ । चित्त ज्यारे प्रशमभावने पामे छे, विश्वमैत्रीवाळु बने छे, जे चित्तमां वैर विरोधनो एक अंश पण रहेतो नथी त्यारे ते अभ्यासरूप गणाय छे । वैराग्य ज्ञानरूप छे अने अभ्यास प्रयत्नरूप छ । ज्ञाननी पराकाष्ठा ते वैराग्य अने समतानी पराकाष्टा ते अभ्यास । ज्ञान अने समता ज्यारे पराकाष्ठाए पहोंचे छे, त्यारे मोक्ष सुलभ बने छ । नमस्कार मंत्र दोषनी प्रतिपक्ष भावना स्वरूप छ - श्रीनमस्कार मंत्र दोषनी प्रतिपक्ष भावना स्वरूप पण छ । योगशास्त्रमा का छे के यो यः स्याद्बाधको दोष स्तस्य तस्य प्रतिक्रियाम् । चिन्तयेद्दोषमुक्तेषु, प्रमोदं यतिषु व्रजन् ॥१॥ -यो.शा. प्र. ३. श्लो..-१३६ स्वोपज्ञ टीकाकार महर्षि प्रा श्लोकना विवरणमा फरमावे छ के'सुकरं हि दोषमुक्त-मुनिदर्शनेन प्रमोदात् प्रात्मन्यपि दोषमोक्षणम् ।' जे दोष पोताने बाधक लागे ते दोषने दूर करवानो इलाज ते दोषथी मुक्त थयेला मुनियोना गुणोने विषे प्रमोदभाव धारण करवो ते छ । दोषमुक्त यतिमोना गुणोने विषे प्रमोद भावने धारण करतो एवो जीव ते ते दोषोथी स्वयमेव मुक्त बनी जाय छ । पंच परमेष्ठि नमस्कार मंत्रनु स्मरण परमेष्ठि पदे बिराजमान महामुनिप्रोना गुणोने विषे बहुमान भाव उत्पन्न करे छे, तेथी स्मरण करनारना अंतःकरणमा रहेला ते ते दोषो स्वयमेव उपशांतिने पामे छ । काम दोषनो प्रतिकार स्थूलभद्र मुनिनु ध्यान छे। क्रोध दोषनो प्रतिकार गजर कुमाल मुनिनु ध्यान छे । लोभ दोषनो प्रतिकार शालिभद्र अने धन्य कुमारमा रहेला तप, सत्य, संतोष आदि गुणोनु ध्यान छ । ए रीते मानने जीतनार बाहुबलि अने ईन्द्रभूति, मोहने जीतनार जबू स्वामी अने वजकुंवर, मद-मान अने मायाने जीतनार मल्लीना, नेमनाथ अने भरत चक्रवर्ती आदि महान आत्माअोनु ध्यान ते ते दोषोने जीतावनार थाय छ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ श्रीनमस्कार महामंत्रमा त्रणे काळना अने सर्व स्थळोना महापुरूषो के जेमणे मद, मान, माया, लोभ, क्रोध, काम अने मोह आदि दोषो उपर विजय मेळव्यो छे, ते सर्वनु ध्यान यतु होवाथी ध्याताना ते ते दोषो काळक्रमे समूलपणे विनश्वर थाय छ । ए रीते नमस्कार मंत्र दोषोनी प्रतिपक्ष भावनारूप बनीने गुणकारी थाय छ । ए ज अर्थने जणावनार नीचेनो एक श्लोक अने तेनी भावना नमस्कारनीज अर्थ भावना स्वरूप बनी जाय छ । "धन्यास्ते वन्दनीयास्ते, तैस्त्रैलोक्यं पवित्रितम् । यैरेव भुवन-क्लेशी, काममल्लो विनिजितः ॥१॥" –धर्मबिन्दु टीका ते पुरूषो धन्य छे, ते पुरुषो वंदनीय छ अने ते पुरुषोए त्रणे लोकने पवित्र कर्या छ, के जेओए कामरूपी मल्लने जीती लीधो छ । ए ज रीते क्रोधरूपी मल्ल, लोभरूपी मल्ल, मोहरूपी मल्ल, मानरूपी मल्ल, अने बीजा पण आकरा दोषरूपी मल्लो जेणे जेणे जीती लीधा छे, ते ते पुरुषो पण धन्य, वंद्य अने त्रैलोक्यपूज्य छे, एवी भावना करी शकाय छे । अने ते बधी भावनामो श्रीनमस्कार मंत्रना स्मरण समये थई शके छे । ___ईष्टनो प्रसाद अने पूर्णतानो प्राप्ति मंत्र जपमां नित्य नवो अर्थ प्राप्त थाय छे शब्द तेना ते ज रहे छे अने अर्थ नित्य नूतन प्राप्त थाय छे, धान्य तेनु ते छे, छतां नित्य तेमां नवो स्वाद क्षुधाना प्रमाणमां अनुभवाय छे। तेज वात तृषातुरने जळमां अने प्राण धारण करनार जीवने पवनमां अनुभवाय छे । तृषा तथा क्षुधा ने शमाववानी अने प्राणने टकाववानी ताकात ज्यांसुधी जळ, अन्न अने पवनमा रहेली छे, त्यां सुधी तेनी उपयोगिता अने नित्य नूतनता मानवी मनमां टकी रहे छ । नाम मंत्रनो जाप पण आत्मानी क्षुधा-तृषा ने शमावनार छे अने आत्माना बळ-वीर्यने वधारनार छे, तेथी तेनी उपयोगिता अने नित्य नूतनता स्वयमेव अनुभवाय छ । नमस्कार मन्त्रनो जाप एक बाजु ईष्टनु स्मरण. चिंतन अने भावन करावे छे अने बीजी बाजु नित्य नूतन अर्थनी भावना जगाडे छे, तेथी ते मन्त्रने मात्र अन्न, जळ अने पवन तुल्य ज नहि किन्तु पारसमणि अने चिंतामणि कल्पवृक्ष अने कामकुम्भ करतां पण वधारे मुल्यवान मान्यो छ । ___ मानवी मनमां नरकनु स्वर्ग अने स्वर्गनु नरक उभु करवानी ताकात छ । उत्तम मन्त्र वडे ते नरकनु स्वर्ग रची शके छे । श्रद्धा अने विश्वासपूर्वक उत्तम मन्त्रनो जप करनारा सर्वदा सुरक्षित छ । नाम अने नमस्कार मंत्र वडे ईष्टनो प्रसाद अने पूर्णतानी प्राप्ति थाय Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा छ । ईष्टनु नाम सर्व मुश्केलीअोमांथी जीवने पार उतारनारूं सर्वोत्तम साधन छ । ईष्टनो नमस्कार सर्व पापवृत्ति अने पाप प्रवृत्तिनो समूल विनाश करे छ । ईष्ट तत्त्वनी अचिन्त्य शक्ति ___धर्म मात्रनुं ध्येय आत्मज्ञान छ । मंत्रना ध्यान मात्रथी ते सिद्ध थाय छे । मंत्रनु रटण एक बाजु हृदयनो मेल, ईर्षा असूयादिने साफ करवानु कार्य करे छे । बीजी बाजु तन, मन, धननी आधि, व्याधि अने उपाधिोने टाळी आपे छ । शरीरनो व्याधि असाध्य होय अने कदाच न टले तो पण मननी शांति अने बाह्य व्याधि मात्रने समताथी सहन करवानी शक्ति तो ते आपे ज छे । ते केवी रीते आपे छे, ए प्रश्न अस्थाने छे। केटलाक प्रश्न अने तेना उत्तर बुद्धिथी के बुद्धिने आपी शकाय तेवा होता नथी । हृदयनी वात हृदय ज जाणी शके छे। श्रद्धानी वात श्रद्धा ज समजी शके छे । परमात्मतत्त्व अने तेनी शक्ति न माननारने मन पोतानो 'अहं' ए ज परमात्मानु स्थान ले छ । सर्व समर्थनु शरण लीधा विना अहं कदी टळतो नथी । अने अहं टळतो नथी त्यांसुधी शांतिनो अनुभव आकाश कुसुमवत् छ। पू० उपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराजश्रीए 'अध्यात्मसारग्रन्थ'ना अनुभवाधिकारमा कॉछे के : "शान्ते मनसि ज्योतिः, प्रकाशते शान्तमात्मनः सहजम्। . भम्मीभवत्यविद्या. मोहध्वान्तं विलयमेति ॥१॥ शान्त चित्तमां आत्मानो सहज शुद्ध स्वभाव प्रकाशित थाय छे, ते वखते अनादिकालीन अविद्या-मिथ्यात्वमोहरूप अंधकार नाश पामे छ । . परमात्मा अने तेना नामनो लाभ बधाने नहि पण सदाचारी, श्रद्धावान अने भक्त हृदयने ज मळे छ । परमात्मानी अचिन्त्यशक्ति उपर मनुष्यने ज्यारे पूरे पूरी श्रद्धा बेसे छे, त्यारे तेनी साते धातुअोनु रूपांतर थाय छे । तेथी परमात्मानु नाम ए भक्त माटे ब्रह्मचर्यनी दशमी वाड पण छे, नव वाड करतां पण तेनु सामर्थ्य अधिक छ। मंत्रयोगनी सिद्धि मंत्र ए शब्दोनो समूह छे, जेनो कोई अर्थ नीकळतो होय छ । आ शब्दोना अर्थ ने साकार घवु ए ज मंत्रने सिद्ध थQ गणाय छे । शब्दथी वायु पर आघात थाय छे, ज्यारे कोई शब्द बोलाय छे, त्यारे अनंत एवा वायुरूपी महासागरमां तरंग पेदा थाय छे । तरंगथी गति, गतिथी गरमी अने गरमोथी स्वास्थ्य सुधरे छ । प्राणायामनो पण ए ज उद्देश छे । अने ते मंत्र जापथी सिद्ध थाय छ । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव अन्य मंत्रनो जाप हृदयमांथी दूषित भावनाप्रोने बहार काढी अन्तःकरणने शुद्ध करे छ । मंत्र जाप वडे गरमी वधवाथी मस्तिष्कनी गुप्त समृद्धिनो कोष खुली जाय छे अने ए द्वारा धार्यु कार्यसिद्ध थाय छ। ___ शब्द रचनानी शक्ति अत्यन्त प्रबळ होय छ । जे कार्य वर्षोमां नथी थई शकतु, ते कार्य योग्य शब्द रचना द्वारा थोडी ज क्षणोमां थई शके छ । नमस्कार मन्त्र ए कारणथी मोटो मंत्र गणाय छे अने मोटामां मोटा असाध्य-दुःसाध्य कार्यों पण एनाथी सिद्ध थतां जोवाय छ । 'उत्साहान्निश्चयात् धैर्यात्, संतोषात्तत्त्वदर्शनात् । मुनेर्जनपदत्यागात्' षड्भिर्योगः प्रसिध्यति ॥' बीजा योगनी जेम मंत्रयोगनी सिद्धि पण उत्साहथी, निश्चयथी, धैर्यथी, संतोषथी, तत्त्वदर्शनथी अने लोकसंपर्कना त्यागथी थई शके छे । प्रमूर्त अने मूर्त बच्चेनो सेतु नमो ए धर्मवृक्षनु मूळ छे, धर्म नगरनु द्वार छे, धर्म प्रासादनो पायो छे, धर्मरत्ननु निधान छे, धर्म जगतनो आधार छे अने धर्म रसनु भाजन छ । नमस्कार रूपी मूळ विना धर्मवृक्ष सूकाय छे । नमस्कार रूपी द्वार विना धर्म नगरमा प्रवेश अशक्य छे । नमस्कार रूपी पाया विना धर्म प्रासाद टकी शकतो नथी। नमस्कार रूपी निधान विना धर्मरत्नोन रक्षण थत् नथी। नमस्कार रूपी आधार विना धर्म जगत् निराधार छ । नमस्काररूपी भाजन विना धर्मरस टकी शकतो नथी अने धर्मनारसनो स्वाद चाखी शकातो नथी। _ 'विनय-मूलो धम्मो ।' धर्मनु मूळ विनय छ । नमस्कार ए विनयनो ज एक प्रकार छ । गुणानुराग ए धर्म द्वार छे अने नमस्कार गुणानुरागनी क्रिया छ । श्रद्धा ए धर्ममहेलनो पायो छे, नमस्कार ए श्रद्धा अने रुचिनुज बीजु नाम छ । मूल गुणो अने उत्तर गुणो ए रत्नो छे, नमस्कार तेनु मूल्यांकन छ । चतुर्विध संघ अने मार्गानुसारी जीवो ए धर्मरूपी जगत छे, तेमनो आधार नमस्कार भाव छ । समता भाव, वैराग्य भाव, उपशमभाव ए धर्मनो रस छ । ते रसास्वाद माटेनुभाजन पात्र के आधार नमस्कार छ। विनय, भक्ति, श्रद्धा, रुचि, आर्द्रता, निरभिमानिता वगेरे नमस्कार भावना ज पर्यायवाचक विभिन्न शब्दो छ । तेथी नमस्कार भाव एज धर्मनु मूल, द्वार, पीठ, निधान, आधार अने भाजन छ । अमूर्त अने मूर्त वच्चे एक मात्र पुल, सेतु के संधि होय तो ते नमस्कार छ । नवकारमा सर्व संग्रह .. - नवकारमा चौद 'न' कार छ, (प्राकृत भाषामा 'न' अने 'ण' बन्ने विकल्पे आवे छे) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधक बनवानो मार्ग २३ ते चौद पूर्वोने जणावे छे, अने नव कार चौद पूर्वरूपी श्रुतज्ञाननो सार छे अवी प्रतीति करावे छे । नवकारमां बार 'अं' कार छे, ते बार अंगोने जणावे छ । नव 'ण' कार छे, ते नवनिधानने सूचवे छ । पांच 'न' कार पांच ज्ञानने आठ 'स' कार आठ सिद्धिने, नव 'म' कार चार मंगळ अने पांच महाव्रतोने, त्रण 'ल' कार त्रण लोकने, त्रण 'ह' कार आदि मध्य अने अंत्य मंगळने, बे 'च' कार देश अने सर्व चारित्रने, बे 'क' कार बे प्रकारना घाती-अघाती कर्मोने, पांच 'प' कार पांच परमेष्ठिने, त्रण 'र' कार (ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूपी) त्रण रत्नोने, त्रण 'य' कार (मन, वचन, कायाना) त्रण योगो अने तेना निग्रह ने, बे 'ग' कार (गुरु अने परमगुरु प्रेम) बे प्रकारना गुरुप्रोने, बे 'ए' कार सात राज उर्ध्व अने सात राज अधो एवो चौद राज लोकने सूचवे छ । ____ मूळ मंत्रना चोवीस गुरू अक्षरो चोवीस तीर्थंकरोरूपी परम गुरूओने अने अगीवार लघु अक्षरो वर्तमान तीर्थ पतिना अगीपार गणधर भगवंतोरूपी गुरुप्रोने पण जणावनारा छ । प्राणशक्ति प्रने मनस्तत्त्व नमस्काररूपी क्रिया द्वारा श्वासनु मनस्तत्वमा रूपान्तर थई जाय छे । जेम जेम नमस्कारना जापनी संख्या वधती जाय छे । तेम तेम आध्यात्मिक उन्नति थतांनी साथे साधक श्वासप्रश्वासने मननी ज क्रिया रूपे जाणी शके छे । तेथी मनना संकल्प विकल्पो शमी जाय छ । मनने सीधे सीधी रीते प्राणशक्ति द्वारा ज संयममां लेती क्रिया-प्रणालि अनन्तने पहोंचवानो सहेलामां सहेलो, खूब ज असर कारक अने संपूर्णरीते वैज्ञानिक रस्तो छ । नमस्कारनी क्रिया अने जपद्वारा आ मार्गनी सरळ पणे सिद्धि थती जाय छे, तेथी जाप द्वारा थती नमस्कारनी क्रियानो मार्ग अनन्त एवा परमात्मस्वरूपने पामवानो झडपी, सुनिश्चित अने अनेक महापुरुषो वडे अनुभवीने प्रकाशेलो राजमार्ग छे। तुलसीदासजी नु पण कथन छे के : नाम लिया उसने सब कुछ लिया, ए सब शास्त्रका भेद; नाम लिये बिना नरक में पडे, पढ पढ पुरान अरु वेद । मंत्रना शब्दोमां थतो प्राणनो विनियोग कोई एक अर्थमां ज पुराई न रहेतां शास्त्र निर्दिष्ट सर्व अर्थोमां व्यापि जाय छे, शरीर, प्राण, इन्द्रियो, मन, बुद्धि अने प्रज्ञा पर्यंत सर्व Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ करणो शुद्धिने अनुभवे छे । अने आध्यात्मिक आनन्दनी अनुभूति पर्यंत जीवात्माने लई जाय छ । मंत्रना शब्दो वडे मन-बुद्धि आदिनु प्राणतत्त्वमां रूपांतर थाय छ। अने प्राण तत्त्व सीधेसीधी आत्मानुभूति करावे छ । प्राणतत्त्व आत्माना वीर्यगुणनी साथे निकटनो संबंध धरावे छ । __शब्दना बे अर्थ होय छे, एक वाच्यार्थ अने बीजो लक्ष्यार्थ । वाच्यार्थनो संबंध शब्द कोष साथे छे । लक्ष्यार्थनो संबंध साक्षात् जीवन साथे छे । पंचमंगलनो लक्ष्यार्थ प्राण तत्त्वनी शुद्धि द्वारा साक्षात् जीवनशुद्धि करावनारो थाय छ । . कर्मनो निरनुबंध क्षय चित्तमां अरति, उद्वेग, कंटाळो जणाय त्यारे जाणवू के मोहनीय कर्मनो उदय अने तेनी साथे अशुभ कर्मनो विपाक जाग्यो छे । तेने टाळवानो उपाय शास्त्रकारो ए पंच मंगल ने कह्यो छे । एकाग्रतापूर्वक पंच मंगलनो जाप शांत चित्ते करवाथी अशुभ कर्म टळी जई शुभ बनी जाय छे । तेनो अर्थ ए छे के उदयमां आवेलु कर्म अवश्य भोगववु पडे छे, तेने ज्ञानी ज्ञानथी, समताथी अने अज्ञानी अज्ञानथी, आर्तरौद्र ध्यानथी वेदे छे । ज्ञानीने नवीन बंध थतो नथी, अज्ञानीने थाय छ । सत्तामांथी एटले संचितमांथी उदयमां आववा सन्मुख थयेला कर्ममां वर्तमानना शुभाशुभ भावथी फेरफार थई शके छे । पंचमंगलना जाप अने स्मरणमां ज्ञानीना ज्ञान गुणनी, साधुना संयम गुणनी, तपस्वीअोना तप गुणनी अनुमोदना थाय छ । अने ते ते गुणोनु मानसिक आसेवन थाय छे, तेथी जे शुभ भाव जागे छे, तेनाथी कर्मनी स्थिति अने अशुभ रस घटी जाय छे अने शुभ रस वधी जाय छ । तथा उदयागत कर्म समताभावे वेदन थई जतु होवाथी तेनो निरनुबंध क्षय थई जाय छ । पंच मंगलथी भावधर्मन आराधन थाय छे केमके तेमां रत्नत्रयधरोने विष भक्ति प्रकटे छे । तेमनी आज्ञा पालन करवानो उत्साह जागे छ । सर्वना शुभनी ज एक चिन्तानो भाव प्रगटे छ अने अशुभ संसार प्रत्ये निवेदनी भावना जन्मे छ । का छ के 'रत्नत्रयधरेष्वेका, भक्स्तित्कार्यकर्म च । शुभैकचिन्तासंसार-जुगुप्सा चेति भावना ॥ श्रा भाव धर्म दान, शील, तप आदि द्रव्य धर्मनी वृद्धि करे छे । अने ते द्रव्य धर्मनी वृद्धि पाछी भाव धर्मनी वृद्धि करे छे । एम उत्तरोत्तर द्रव्य-भाव धर्मनी वृद्धि तेनी पराकाष्ठाने पामी सर्व कर्म रहित मोक्षy कारण बने छ । नवकार मंत्रना पदोमां गुण-गुणिनी उपासना उपरांत शब्द द्वारा शुभ स्पंदनो उत्पन्न Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा २५ करवानी जबरदस्त शक्ति छ । तेथी तेने सर्व मंगळोमा पहेलु मंगळ अने सर्व कल्याणोमां उत्कृष्ट कल्याण का छ । . चारे निक्षेपा वडे थती पांचे परमेष्ठियोनी भक्ति नवकार मंत्रमा रहेली होवाथी सर्व प्रकारना शुभ, शिव अने भद्र तथा पवित्र निर्मळ अने प्रशस्त भावो पेदा करवानुं सामर्थ्य तेमां रहेलुं छे । . अनिर्णीत वस्तुनो नामादि द्वारा निर्णय करावे, शब्द द्वारा अर्थनो अने अर्थ द्वारा शब्दनो निश्चित बोध करावे तथा अनभिमत अर्थनो त्याग अने अभिमत अर्थनो स्वीकार कराववामां उपयोगी थाय ते निक्षेप कहेवाय छ । नवकार मंत्रनां पदो नाम, स्थपना द्रव्य अने भाव ए चारे निक्षेपोनी साथे संबंध धरावनारा होवाथी समग्र विश्वनी सुभ वस्तुप्रो साथे संबंध करावे छे । ए द्वारा अशुभ कर्मनो क्षय अने शुभ कर्मनो बंध करावी परंपराए मुक्ति सुखने मेळवी आपे । तेथी नवकार मंत्र ए सर्व सुखोमा उत्कृष्ट सुख, सर्व मंगलोमां उत्कृष्ट मंगल पण कहेवाय छे । मोक्ष मार्गमा पुष्टावलंबन .नवकार मंत्र ए जीवने पोतानी उन्नति साधवामां पुष्टावलंबन छ । अलक्ष्यने साधवा माटे लक्ष्यनु अवलंब लेवु ते सालंबन ध्यान छे । पालंबन वडे ध्येयमां उपयोगनी एकता थाय छ । उपयोग एटले बोधरूप व्यापार अने एकता एटले सजातीय ज्ञाननी धारा । निमित्त कारणो बे प्रकारनां छ । एक पुष्ट अने बोजां अपुष्ट । पुष्ट निमित्तनु लक्षण ते छ के जे कार्य सिद्ध करवानुहोय ते कार्य अथवा साध्य जेमां विद्यमान होय ते पुष्ट निमित्त छ । मोक्ष मार्गमां साध्य सिद्धत्व छ । ते श्री अरिहंत सिद्धादि परमेष्ठिरोमा छ, तेथी तेमन निमित्त ए पुष्ट निमित्त छ, तेमनु पालंबन ए पुष्ट आलंबन छ । पाणीमां सुगंधरूपी कार्य उत्पन्न करवु होय तो पुष्पो ए पुष्ट निमित्त छ, कारण के पुष्पमा सुगंध रहेली छ । पुष्ट निमित्तोनु आलंबन स्मरण, विचिन्तन अने ध्यान वडे लई शकाय छ। पुष्ट निमित्तोना स्मरणने शास्त्रोमां मोक्ष मार्गनो प्राण कह्यो छ । स्मरण ए सर्वसिद्धियो ने आपवामां अचिन्त्य चिन्तामणि समान गणाय छ । निमित्तोनी स्मृतिरूपी चिन्तामणि रत्न प्रशस्त ध्यानादि भावोने प्राप्त करावी प्रशस्त फळोने अभिव्यक्त करे छ। पुष्ट निमितोना स्मरण वडे इन्द्रियोनो बाह्य विषयोथी प्रत्याहार थाय छ । ए रीते चित्तथी विशेष प्रकारे स्थिरतापूर्वक चिन्तन ते विचिन्तन छ । चित्तनो विजातीय वृत्तिथी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरला स्वर्ण जयन्ती महोत्सव अन्य अस्पृष्ट सृजातीय बृत्तिनो एक सरखो प्रवाह ते ध्यान छ । तेने प्रत्ययनी एकतानता पण कहे छ । __ स्मरण, विचिंतन अने ध्यान ए साधनानु जीवित, प्राण अने वीर्य छ । पुष्ट निमित्तोना आवलम्बनथी ते प्राप्य छ । तेथी पुष्ट निमित्तो साधनाना प्राण गणाय छ । श्रीसिद्धसेनसूरिजी फरमावे के : 'पुष्ट हेतुजिनेन्द्रोऽयम्, मोक्ष-सद्भाव-साधने ।' मोक्षरूपी कार्यनी सिद्धि माटे श्री जिनेन्द्र भगवान अने उपलक्षणथी पांचे परमेष्ठियो पुष्ट निमित्त छ । तेथी श्रीनमस्कार मंत्र सर्व साधकोने पुष्ट आलंबनरूप थईने साध्यनी सिद्धि करावे छ । देहन द्रव्य स्वास्थ्य प्रने प्रात्मानुं भाव स्वास्थ्य पंचमंगल महाश्रुतस्कंधरूप होवाथी सम्यग् ज्ञान स्वरूप छे । पंच परमेष्ठिनी स्तुतिरूप होवाथी सम्यग् दर्शन स्वरूप छे। तथा सामायिकनी क्रियाना अंगरूप अने मन, वचन, कायानी प्रशस्त क्रियारूप होवाथी कथंचित् चारित्र स्वरूप पण छे । ज्ञानमा प्रधानता मननी, स्तुतिमा प्रधानता वचननी अने क्रियामा प्रधानता कायानी रहेली छे । आयुर्वेद मुजब वात, पित्त अने कफनी विषमता ते रोग अने समानता ते आरोग्य छ । ज्यां मन त्यां प्राण अने ज्यां प्राण त्यां मन ए न्याये सम्यग् ज्ञान वात वैषम्यने शमावे छ । ज्यां दर्शन, स्तवन, भक्ति आदि होय त्यां मधुर परिणाम होय छे, अने ते पित्त प्रकोपने शमावे छे । ज्यां कायानी सम्यक् क्रिया होय त्यां गति छे, अने ज्यां गति त्यां उष्णता होय ज। उष्णता कफना प्रकोपने शमावे छे । ए रीते श्री पंच मंगळमां शरीरनु अस्वास्थ्य निप. जावनार त्रिदोषने शमाववानी शक्ति छ । बीजी रीते विचारतां राग ए ज्ञान गुणनो घातक छे, द्वेष ए दर्शन गुणनो घातक छ अने मोह ए चारित्र गुणनो घातक छ । तेथी विपरीत पंच मंगळमां ज्ञान छ, दर्शन छ, चारित्र छे तथा मननी, वचननी, कायानी प्रशस्त क्रिया छे। तेथी पंचमंगलमां देहने दूषित करनार वात, पित्त अने कफ दोषने शमाववानी शक्ति छे, तेमं आत्माने दूषित कर. नार राग, द्वेष अने मोहने शमाववानी पण शक्ति छ। विकृत ज्ञान ए राग छ,, विकृत श्रद्धा ए द्वेष छे अने विकृत वर्तन ए मोह छ। रागी दोषने जोतो नथी, द्वेषी गुणने जोतो नथी अने मोही जाणवा छतां ऊधु वर्तन करे छ । गुण अने द्वषनु यथार्थ ज्ञान करवा माटे राग अने द्वषने जीतवा जोईए तथा यथार्थ वर्तन करवा मोहने जीतवो जोईए । ज्यां ज्यां वर्तनमा दोष जणाय त्यां त्यां ज्ञान दूषित ज होय, एवो नियम नथी। ज्ञान Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथार्थ होवा छतां धर्तन दूषित थ वार्मो कारण प्रमीशीलता, दुःसँग अर्ने अनादि असदभ्यास छ । ते कारणे रागादि दोषोनो निग्रह करवा माटें एके बाजु यथार्थ ज्ञान अने बीजी बाजु यथार्थ वर्तननो अभ्यास जरूरी छ । ज्ञान मनमां, स्तुति-स्तव वचनमा प्रने प्रवृत्ति काया. थाय छै । कफ दोष कायानी क्रियानी साथे संबंध राखे छे। पित्त दोष बैंचननी क्रियानी साथे संबंघ राखे छे अने वात दोष मननी क्रियानी साथे संबंध राखे छ । राग, द्वेष अने मौह ए त्रण दोषो पण अनुक्रमे मन, वचन कायानी क्रियानी साथे संबध धरावे छे । रागनी अभिव्यक्ति मुख्यत्वे मनमां, द्वेषनी अभिव्यक्ति मुख्यत्वे वचनमां अने मोहनी अभिव्यक्ति मुख्यत्वे क्रिया द्वारा थाय छ। ___ पंचमंगल ज्ञान, दर्शन चारित्र स्वरूप होकाथी तथा तेमां मन, वचन, काया त्रणेनी प्रशस्त क्रिया होवाथी आत्माने दूषित करनार राग, द्वष अने मोह तथा शरीरने दूषित करनार वात, पित्त अने कफनो निग्रह करवानी शक्ति तेमां रहेली छे । तेथी श्री पंचमंगलनुं अाराधन आत्मानुं भावस्वास्थ्य अने देहर्नु द्रव्यस्वास्थ्य उभयने आपवानी एक साथे शवित धरावे छ । प्रथम पदनो अर्थ भावनापूर्वक जाप समग्र नवकारनी जेम नवकारना प्रथम पदना जापथी मन-वचन-कायाना योगो अने प्रात्माना ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुणोनी शुद्धि थाय छ । देहनी त्रण धातुओ वात, पित्त अने कफ तथा प्रात्माना त्रण दोषो राग-द्वेष-अने मोह अनुकमे, त्रण योगनी अने त्रण गुणनी शुद्धि वडे दूर थाय छ। 'नमो' पद वडे मनोयोग अने ज्ञानगुणनी, 'अरिहं' पद बड़े वचन योग अने दर्शनगुणनी तथा 'ताणं' पद वडे काययोग अने चारित्रगुणनी शुद्धि थाय छे । त्रण योगनी शुद्धि वडे वात, पित्त अने कफना विकरो तथा त्रण गुणनी शुद्धि वडे राग, द्वेष अने मोहना दोषो नाश पामे छे । तेथी श्रीनवकार मंत्रना प्रथम पदना जाप वडे शरीर अने आत्मा ऊभयनी शुद्धि थाय छ। शुभ मनोयोगथी वात विकार जाय छे, शुभ वचनयोगथी पित्त विकार जाय छे । अने शुभ काययोगथी कफ विकार जाय छ। सम्यग् ज्ञान वडे राग दोष जाय छे, सम्यग् दर्शन वडे द्वेष दोष जाय छे अने सम्यक् चारित्र वडे मोह दोष जाय छ । मननी शुद्धि 'नमो' पद अने तेना अर्थनी भावना वडे थाय छ । वचननी शुद्धि 'अरिहं' पद अने तेना अर्थनी भावना वडे थाय छे । कायानी शुद्धि 'ताणं' पद अने तेना अर्थनी भावना वडे थाय छ। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ -- नमो पद मंगल सूचक छ । अरिहं पद उत्तमतानुं सूचक छ । अने ताणं पद शरण अर्थने सूचवे छे, मंगल उत्तम, अने शरणने जणावनार प्रथम पदनी अर्थ भावना अनुक्रमे ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी शुद्धि करे छ । - साचु ज्ञान दुष्कृतवान एवा पोताना आत्मानी गर्दा करावे छे, साचे दर्शन सुकृतवान एवा अरिहंतादिनी स्तुति करावे छे अने साचु चारित्र आज्ञा पालनना भावनो विकास करे छ । दुष्कृत प्रत्येनो राग, सुकृत प्रत्येनो द्वष अने आज्ञापालन प्रत्येनो प्रमाद सम्यग् ज्ञान, दर्शन अने चारित्र गुणना विकासथी नाश पामे छे । अने ए त्रणे गुणोनो विकास प्रथम पदनी अर्थ भावनापूर्वक थता तेना जाप वडे सुसाध्य बने छ । नवकार-चौदपूर्व- प्रष्ट प्रवचनमाता महामंत्रनो मुख्य विषय योगशास्त्रमा वर्णवेल लक्षणोवाली मनोगुप्ति छ । त्यां का छ के 'विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनस्तज्ज्ञैर्मनोगुप्तिरुदाहृता ।' आर्त-रोद्रध्याननो त्याग, धर्मध्यानमां स्थिरता अने प्रात्मारामवालु शुक्लध्यान जेमां होय तेने ज्ञानी पुकषोए मनोगुप्ति कही छ । नवकार मंत्रना जापथी ते त्रणे कार्यो अोछा वधतां अंशे सिद्ध थतां देखाय छ । तेथी मनोगुप्तिनी जेम नवकारने पण चौद पूर्वनो सार कह्यो छ । चौद पूर्वनो सार जेम नवकार मंत्र छे, तेम अष्टप्रवचनमाता पण छ। अष्टप्रवचनमातामां पण मनोगुप्ति प्रधान छ । बाकीनी गुप्ति अने समितियो मनोगुप्तिने सिद्ध करवा माटे ज कहेली छ । बीजी रीते चौद पूर्वनो अभ्यास करीने पण छेवटे अष्टप्रवचनमाताना परिपूर्ण पालन स्वरूप पंच परमेष्ठि पदने ज प्राप्त करवानु छ । महामंत्रनो जाप अने चिन्तवन पांचे परमेष्ठि उपर प्रीति अने भक्ति जगाडे छे तथा ए स्वरूप पामवानी तालावेली उत्पन्न करे छे, अने अंते ते स्वरूप पमाडीने विरमे छे । तेथी नवकार, चौदपूर्व अने अष्ट प्रवचन माता एक ज कार्यनो सिद्धि करनार होवाथी समानार्थक-एक प्रयोजनात्मक अने परस्पर पूरक बनी जाय छ । तत्वरुचि - तत्वबोध - तत्त्व परिणति नवकारना प्रथम पदनी अर्थ भावना अनेक रीते विचारी शकाय छ। नमो पदथी तत्त्व रुचि, अरिहं पदथी तत्त्वबोध अने ताणं पदथी तत्त्व परिणति लई Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा शकाय छ । नमो पद आत्मतत्त्वनी रुचि जगाड़े छ, अरिहं पद शुद्ध आत्मतत्त्वनो बोध करावे छ अने ताणं पद आत्मतत्त्वनी परिणति उभी करे छ । ___ श्री विमलनाथ प्रभुना स्तवनमां पू० उपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज फरमावे छ के : 'तत्त्व प्री िकर पाणी पाए विमलालोके प्रांजीजी, लोयण गुरु परमान्न दिए तव . भ्रम नांखे सवि भांजीजी।' परमात्मानु ध्यान तत्त्व प्रीतिकर पाणी छ, तत्त्वबोधकर निर्मळ नेत्रांजन छे अने सर्वरोगहर परमान्न भोजन छ । नवकारना प्रथम पदमां थतुं अरिहंत परमात्मानु ध्यान ते त्रणे कार्योने करे छ । __नमो पदथी मिथ्यात्वनो त्याग, अरिहं पदथी अज्ञाननो त्याग अने ताणं पदथी अविरतिनो त्याग थायछे । नमनीयने न नमवु ते मिथ्यात्व छ । आत्माना शुद्ध स्वरूपने न जाणवु ते अज्ञान छ । अने आचरवा लायकने न आचरवु ते अविरति छ । नवकारना प्रथम पढ़ना आराधनथी नमनीयने नमन, ज्ञातव्यनु ज्ञान अने करणीयनु करण थतु होवाथी त्रणे दोषोनु निवारण थई जाय छ । व-अंतरात्मधाब-परमात्मभाव नवकारना प्रथम पदथी बहिरात्मभावनो त्याग, अंतरात्मभावनो स्वीकार अने परमात्मभावनो आदर थाय छ । श्री आनन्दघनजी महाराज सुमतिनाथ भगवानना स्तवनमा फरमावे छे के: 'बहिरातम तजी अंतर आतमा ___ रूप थई थिर भाव, सुज्ञानी; परमातमनुं हो आतम भाववु, आतम अरपण दाव, सुज्ञानी; सुमति चरण कज आतम अरपणा-' सुमतिनाथ भगवानना चरण कमळमां आत्मानु अर्पण करवानो दाव ते छे, के बहिरात्मभावनो त्याग करी, अंतरात्मभावमां स्थिर थई, पोतानो आत्मा तत्त्वथी परमात्मा छे, एवा भावमां रमण करवु। नमो पद वडे बहिरात्मभावनो त्याग अने अंतरात्मभावनो स्वीकार थाय छे तथा अरिहं Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापराव महोत्सव अन्य भने तामं पद बड़े प्रात्मानुपरमात्म स्वरूपे भाषन अने तेना परिणामे रक्षण बाय के त्रणे भावोनुपृथक् पृथग् वर्णन करतां तेत्रोधी फरमावे के के: 'मातम बुद्ध हो कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघरूप, सुज्ञानी; कायादिकतो हो साखीधर रहो, अंतर प्राप्तमरूपा, सुज्ञानी, सुमति चरण । ज्ञानानंदे हो पूरण पाक्नो करजित सकल उपाधि, सुज्ञानी; अतीन्द्रिय गुण गण मणि आमरू, ईम परमातम साध, सुज्ञानी, सुमति चरण । काया, वचन, मन, आदिने एकांत आत्मबुद्धिथी ग्रहण करनार बहिरात्मभाव छे, अने ते पापरूप छे । ते ज कायादिनो साक्षी भाव अंतरात्म स्वरूप छ । परमात्मस्वरूप ज्ञानानंदथी पूर्ण छे, सर्व बाह्य उपाधिथी रहित छे, अतीन्द्रिय गुण समूहरूप मणियोनी खाण छे, तेनी साधना करवी जोईए। नवकारना प्रथम पदनी साधना बहिरात्मभावने छोडावी, अंतरात्मभावमां स्थिर करी, परमात्मभावनी भावना करावे छे, तेथी पुनः पुनः करवा योग्य छ । कंचं छे के: 'बाह्यात्मनमपास्य, प्रसत्तिभाजाऽन्नरात्मना योगी। सततं परमात्मनं, विचिन्तयेत्तन्मयत्वाय ॥ -योगशास्त्र, प्र० १२ श्लो०६ बाह्यात्मभावनो त्याग करी, प्रसन्न एवा अन्तरात्मभाववडे, परमात्मतत्त्नु चिंतन, तन्मय थवा माटे योगी निरन्तर करे। प्रथम पदनो जाप अने तेना अर्थनु चिन्तन योगीप्रोनी आ भावनानो अभ्यास करावनार थाय छ । गति चतुष्टयथी मुक्ति अने अनंत चतुष्टयनी प्राप्ति नवकारनु प्रथम पद 'नमो' सद्विचारनु प्रेरक छ । अरिहं पद सद्विवेकनु प्रेरक छ । अने ताणं पद सद्वर्तननुप्रेरक छ । सद्विचार, सद्विवेक अने सद्वर्तन ए ज निश्चयथी रत्नत्रयी छ । व्यक्तिनिष्ठ अहं मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्रथी युक्त छ । ते ज अहं ज्यारे समष्टिनिष्ठ बने छे, त्यारे सम्यग्-दर्शन-ज्ञान चारित्र युक्त बने छ। . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्री अनुप्रेक्षा व्यवहारथी संसारी जीव मात्र कर्मबद्ध छे अने ते कारणे जन्म मरण कर्या करे छ। निश्चयनयथी जीव मात्र अनंत चतुष्टयवाम छे, प्रष्ट कर्मथी भिन्न छ, एवी श्रद्धा, ज्ञान अने तदनुरूप वर्तन थाय छे, त्यारे अहं पोते ज मह रूप बनी जन्म मरणरूप चार गतिनो अंत करे छ । नवकारना प्रथम पदनुं पाराधन, चिन्तन अने मनन जीवने मिथ्या रत्नत्र्यथी मुक्त करी सम्यग् रत्नत्रयथी युक्त करे छे, अने परिणामे अनंत चतुष्टयथी युक्त करी गति चतुष्टयथी मुक्त बनावे छ । नवकारर्नु प्रथमपद पररूपेण नास्तित्वरूप शून्यतानुं बोधक छे, स्वरूपेण अस्तित्वरूप पूर्णतानुं बोधक छे अने उभयरूपे युगपद अवाच्यत्वरूप स्वसंवेद्यत्वनुं बोधक छ । तेथी शून्यता, पूर्णता अने एकतानी भावना करावी जीवने भक्ति, वैराग्य अने ज्ञानथीं परिपूर्ण बनावे छ । पूर्णतानो बोध भवित प्रेरक छे, शून्यतानो बोध वैराग्य प्रेरक छे अने एकतानो बोध तत्त्वज्ञाननो प्रेरक छ । चतुर्थ गुणस्थानके भक्तिनी प्रधानता, छट्ठा गुणस्थानके वैराग्यनी प्रधानता अने ते उपरना गुणस्थानकोए तत्त्वज्ञाननी मुख्यता मानेली छ । प्रथम पद पा रीते सर्व गुणस्थानकोने योग्य साधनानी सामग्री पूरी पाडे छे, तेथी तेने सिद्धान्तना सार रूप कहेल छ । इच्छायोग-शास्त्रयोग-सामर्थ्ययोग नवकारना प्रथम पदमां इच्छायोग, शास्त्रयोग अने सामर्थ्ययोग ए त्रणे प्रकारना योगनो समावेश थयेलो छ। नमो पद इच्छिायोगनु प्रतीक छ । अरिहं पद शास्त्रयोगर्नु प्रतीक छे अने ताणं पद सामर्थ्ययोगर्नु प्रतीक छ। इच्छायोग प्रमादी एवा ज्ञानीनी विकल क्रिया छ । शास्त्रयोग अप्रमादी एवा ज्ञानीनी अविकल क्रिया छे अने सामर्थ्ययोग ए एथी पण विशेष अप्रमत्तभावने धारण करनारनी शास्त्रातिक्रान्त प्रवृत्ति छ । 'नमो' पद शास्त्रोक्त क्रियानी इच्छा दर्शावे छे तेथी प्रार्थना स्वरूप छ । 'अरिहं' पद शास्त्रोक्त क्रियान स्वरूप बतावे छे तेथी स्तुति स्वरूप छे अने 'ताणं' पद शास्त्रोक्त मार्गे चालीने तेनुं पूर्ण फळ बतावे छे तेथी उपासना स्वरूप छ । नवकारना प्रथम पदमां आ रीते सदनुष्ठाननी प्रार्थनारूप इच्छायोग, सदनुष्ठाननी स्तुतिरूप शास्त्रयोग अने सदनुष्ठाननी उपासनारूप सामर्थ्ययोग गुंथायेलो होवाथी त्रणे प्रकारना योगीअोने उत्तम पालंबन पूरूं पाडे छ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ इच्छायोगथी योगावंचकतानी प्राप्ति, शास्त्रयोगथी क्रियावंचकतानी प्राप्ति अने सामर्थ्ययोगथी फलावंचकतानी प्राप्ति थाय छे । त्रणे प्रकारना अवंचक योग प्रथम पदना आराधकने अनुक्रमे प्राप्त थाय छे । ____कारणमां कार्यनो उपचार करीने प्रथम पदनी आराधनाने अहीं इच्छायोग, शास्त्रयोग अने सामर्थ्ययोगनां नाम घटे छे अने तेना फल रूपे सदगुरुनी प्राप्तिरूपी योगावंचकता, तेमनी आज्ञाना पालनरूपी क्रियावंचकता अने तेना फलस्वरूप परम पदनी प्राप्तिरूपी फलावंचकता पण घटे छ। हेतु, स्वरूप प्रने अनुबंधथी शुद्ध लक्षणवालुं धर्मानुष्ठान धर्मनो हेतु सदनुष्ठाननु सेवन, धर्मनु स्वरूप परिणामनी विशुद्धि अने 'धर्मनु फल आलोक परलोकनां सुजदायक फलो तथा मुक्ति न मले त्यां सुधी पुनः पुनः सद्धर्मनी प्राप्तिरूप अनुबंध छे, ए त्रणे वस्तुअोनी प्राप्ति नमस्कार मंत्र अने तेना प्रथम पदना आराधकने प्राप्त थाय छे तेथी ते हेतु, स्वरूपअने अनुबंधथी शुद्ध लक्षणवालु धर्मानुष्ठान बने छ । ___ शास्त्रोमां धर्मनु स्वरूप नीचे मुजब का छे: 'वचनाद्यदनुष्ठानमविरुद्धाद्यथोदितम् । मैत्र्यादिभावसंयुक्तं, तद्धर्म इति कीर्त्यते ॥' पूर्वापर अविरुद्ध एवा वचनने अनुसरीने मैत्र्यादि भावयुक्त यथोक्त अनुष्टानने धर्म कहेल छ । नवकारनी आराधना अविरुद्ध वचनानुसारी छे, सर्व प्रकरना गुणस्थानकोए रहेला जीवोने तेमनी योग्यतानुसार विकास करनारी छे तथा मैत्री प्रमोदादि भावोथी सहित छे, तेथी यथोक्त धर्मानुष्ठान बने छ । अने तेनु फल पा लोकमां अर्थ, काम, आरोग्य, अभिरति अने परलोकमां मुक्ति, ते न मले त्यां सुधी सद्गति उत्तमकुलमा जन्म अने सद्बोधनी प्राप्ति वगेरे अवश्य मले छ । बीजी रीते नमो ए धर्मनु बीज छे, केमके तेमां सद्धर्म अने तेने धारण करनारा सत्पुरुषोनी प्रशंसादि रहेला छे, धर्मचिन्तादि तेमां अंकुरा छे अने परंपराए निर्वाणरूप परमफल रहेलुछे तेथी तेनुअाराधन अत्यंत आदरणीय छे । ते माटे का छे के । 'वपनं धर्म बीजस्य, सत्प्रशंसादितद्गतम् । तच्चिन्ताद्यंकुरादिस्यात्, फलसिद्धिस्तुनिर्वृत्तिः ॥ 'नमो अरिहंताणं ।' ए पदना आराधनमां धर्मबीजनु वपन, धर्मचिन्तादि अंकुरादि अने फलसिद्धिरूपी निर्वाण पर्यंतना सुख रहेला छ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा ३३ मागम-अनुमान-ध्यानाभ्यास नमो पदथो धर्मनु श्रवण, अरिहं पदथी धर्मनु चिन्तन अने ताणं पदथी धर्मनी भावना थाय छे । श्रुत, चिन्ता अने भावनाने अनुक्रमे उदक, पय अने अमृत तुल्य कह्यां छे । उदकमां तृषाने छीपाववानी ताकात छे, तेथी अधिक पय मां अर्थात् दूधमां छे अने तेथी पण अधिक अमृतमा छ। धर्मनु श्रवण विषयनी जे तृषाने छीपावे छे, तेथी अधिक तृषाने धर्मनी चिन्तवना आदि छीपावे छ । अने तेथी पण अधिक धर्मनी भावना-ध्यान-निदिध्यासनादि छीपावे छ । विषयनी तृषा अने क्षुधाने तृप्त करवानी ताकात प्रथम पदनी अर्थभावनामां रहेली छे, केमके तेना त्रणे पदोवडे धर्मनां श्रवण-मनन निदिध्यासनादि त्रणे कार्यों सिद्ध थाय छ। धर्मनी अने योगनी सिद्धि माटे जे त्रण उपायो शास्त्रकारोए दर्शाच्या छे, ते त्रणेनी आराधना प्रथम पदनी आराधनथी थाय छे । ते माटे योगाचार्योए का छे के: 'पागमेनानुमानेन, ध्यानाभ्यासरसेन च । त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां, लमते योगमुत्तमम् ॥ आगम, अनुमान अने ध्यानाभ्यासनो रस ए त्रणे उपायोथी प्रज्ञाने ज्यारे समर्थ बनाववामां आवे छे, त्यारे उत्तम एवा योगनी अथवा उत्तम प्रकारे योगनी एटले मोक्ष मार्गनी प्राप्ति थाय छ । .. योग वडे जे मोक्षनी साधना करवानी होय छे, ते योग अने मोक्ष ए बन्नेनी प्रथम श्रध्धा आगमना श्रवण वडे थाय छ । पछी अनुमान, युक्ति आदिना विचार वडे प्रतीति थाय छे अने छल्ले ध्यान-निदिध्यासन वडे स्पर्शना-प्राप्ति थाय छ । आगम, अनुमान, ध्यान अथवा श्रुत, चिन्ता अने भावना ए अनुत्र मे श्रवण, मनन अने निदिध्यासनना ज पर्यायवाचक शब्दो छ । अने ते त्रणे अंगोनी आराधना प्रथम पदनी अर्थभावनायुक्त आराधना वडे थाय छ । । धर्मकाय, कर्मकाय प्रने तत्त्वकाय अवस्था तीर्थंकरोनी धर्मकाय, कर्मकाय अने तत्त्वकाय एम त्रण अवस्था होय छे । तेने शास्त्रनी परिभाषामां अनुक्रमे पिंडस्थ, पदस्थ अने रूपातीत नामथी संबोधवामां आवे छे। . धर्मकाय अथचा पिंडस्थ अवस्था प्रभुनी सम्यक्त्व प्राप्ति अनंतर थती धर्म साधनाने कहेवामां आवे छे। यावत् छेल्ला भवनी अदर पण ज्यां सुधी घातीकर्मनो क्षय थतो नथी, स्यां सुधी तेमनी जन्मावस्था, राज्यावस्था अने चारित्र ग्रहण कर्या बाद केवलज्ञान न थाय त्यां सुधीनी छद्मावस्थानी आराधना ए धर्मकाय अवस्था कही छे । त्यार बाद घातीकर्मनो Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव प्रन्य क्षय अने कैवल्यनी प्राप्ति थया बाद धर्मतीर्थनी स्थापना, निरन्तर धर्मोपदेशादि वडे परोपकारनी प्रवृत्ति ते कर्मकाय अवस्था छ । अने योग निरोधरूप शैलेशीकरणने तत्त्वकाय अवस्था कही छ । ए त्रणे अवस्थानुध्यान अने आराधन नवकारना प्रथम पदनी आराधनाथी थाय छ। तेमां नमो पद धर्मकाय अवस्थानुप्रतीक बने छ । अरिहं पद कर्मकाय अवस्थानु प्रतीक बने छे अने ताणं पद तत्त्वकाय अवस्थानु प्रतीक बने छ । ए रीते प्रभुनी पिंडस्थ, पदस्थ अने रूपातीत अवस्थाप्रोनी आराधनानु साधन नवकारना प्रथम पद वडे थतु होवाथी प्रथम पदनो जाप, ध्यान अने अर्थचिन्तन पुनः पुनः करवा लायक छ। अमृत अनुष्ठान प्रथम पद वडे परमात्मानी स्तुति, परमात्मानु स्मरण अने परमात्मानुध्यान सरलताशी थइ शके छे । नामग्रहण वडे स्तुति, अर्थभावन वडे स्मरण अने एकाग्रचिन्तन बडे ध्यान थइ शके छे। श्रद्धा वडे, मेधा वडे, धृति वडे, धारणा वडे अने अनुप्रेक्षा वडे थती प्रभुनी स्तुति, स्मृति अने ध्यान अनुक्रमे बोधि, समाधि अने सिद्धिनु कारण बने छ । __ 'नमो अरिहंताणं ।' ए पद योगनी इच्छा योगनीप्रवृत्ति, योगनु स्थैर्य अने योगनी सिद्धि करावे छ । एटलुज नहि पण प्रीति-भक्ति-वचन अने असंग ए चारे प्रकारना अनुष्ठाननी प्राप्ति करावी निर्विघ्नपणे जीवोने मोक्षमां लई जाय छ । ___ योगना पांच अंगो स्थान, वर्ण, अर्थ, आलंबन अने अनालंबन तथा प्रागमोक्त योगनी आठ अवस्था तच्चित्त, तन्मन, तल्लेश्य, तदध्यवसाय, तत्तीवअध्यवसाय, तदर्थोपयुक्त, तदर्पितकरण अने तद्भावनाभावित पर्यंतनी अवस्था प्रथम पदना पालंबन वड़े सिद्ध करी शकाय छ । ___ द्रव्य क्रियाने भाव क्रिया बनावनार अने तद्हेतु अनुष्ठानने अमृत अनुष्ठान बनावनार जे चित्त वृत्तिप्रोने शास्त्रकारोए फरमावी छे, ते सौनु पाराधन प्रथम पदना अवलंबन वडे थई शके छे। अर्थनु आलोचन, गुणनो राग अने भावनी वृद्धि ए त्रण गुण द्रव्यक्रियाने भावक्रिया बनावे छ । तथा तद्गत चित्त, शास्त्रोक्त विधान, भावनी वृद्धि, भवनो भय, विस्मय, पुलक अने प्रधान प्रमोद ते तद्हेतु अनुष्ठानने अमृत अनुष्ठान बनावे छे । ते माटे का छे के : Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा ३५ तद्गत चित्तने समय विधान, भावनी वृद्धि भय भव अति घणो जी; विस्मय पुलक प्रमोद प्रधान, लक्षण ए छे अमृत क्रिया तणो जी। भाव प्राणायामन कार्य __ नमो पद बाह्य भावनो रेचक करावे छे, प्रांतर भावनो पूरक करावे छे अने परमात्मभावनो कुंभक करावे छे, तेथी ते भाव प्राणायामनु कार्य पण करे छ । भाव प्राणायाम ज्ञानावरणनो क्षय तथा योगना उपरना ध्यानादि अंगोनी सिद्धि करावनार होवाथी मात्र शरीर स्वास्थ्यने सुधारनार द्रव्य प्राणायामनी अपेक्षाए उत्कृष्ट छ । अने तेनु पाराधन प्रथम पदना आलंबनथी सुन्दर रीते थतु होवाथी प्रथम पद अत्यंत उपादेय छ । आगमोमां नमस्कार पदनो अर्थ नीचे मुजब कह्यो छे :-- 'मणसा गुणपरिणामो, वाया गुणभासणं च पंचण्हं । कायेण संपणामो, एस पयत्थो नमुक्कारो॥' मनथी पंच परमेष्ठिना गुणोनु परिणमन, वाणीथी पंच परमेष्ठिना गुणोनु भाषण तथा कायाथी पंच परमेष्ठि भगवंतोने सम्यक् प्रणाम करवो, ते नमस्कार पदनो अर्थ छ । ____नमो पद वडे मनमां गुणोनु परिणमन थाय छे, अरिहं पद वडे गुणोनु भाषण थाय छे अने ताणं पद वडे कायानुप्रणमन थाय छ । अथवा त्रणे पदो मळीने परमेष्ठि भगवंतोना गुणोनु परिणमन, भाषण अने प्रणमन करावे छे। तेथी मन, वचन, कायाना त्रणे योगोनु सार्थक्य थाय छ । भव्यत्व परिपाकना त्रण उपाय प्रने छ अभ्यंतर तप नवकारना प्रथम पदना जाप अने ध्यान वडे भव्यत्व परिपाकना त्रणे उपायो अनुक्रमे दुष्कृतगर्दा, सुकृतानुमोदन अने शरणगमन एकी साथे सधाय छे । अने अभ्यंतर तपना छए प्रकारो, अनुक्रमे प्रायश्चित्त, विनय, वैयावच्च, स्वाध्याय, ध्यान अने कायोत्सर्गनु पण एक साथे सेवन थाय छ । ___ नमो पद दुष्कृतनी गहीं करावे छे, अरिहं पद सुकृतनी अनुमोदना करावे छे अने ताणं पद शरण गमननी क्रिया करावे छ । । .ए ज रीते नमो पद वडे पापर्नु प्रायश्चित्त अने गुणोनो विनय थाय छ । अरिहं पद Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ वडे भावथी वैयावच्च अने स्वाध्याय थाय छे अने ताणं पद वडे परमात्मानुध्यान अने देहात्मभावनु विसर्जन थाय छ । दुष्कृत गर्दादि वडे जीवनी मुक्तिगमन योग्यता परिपक्व थाय छे तथा प्रायश्चित्तविनयादि तप वडे क्लिष्ट कर्मोनो विगम तथा भाव निर्जरा थाय छ । समापत्ति, प्रापत्ति प्रने संपत्ति नवकारना प्रथम पदमां ध्याता, ध्येय अने ध्यान तथा ते त्रणेनी एकतारूप समापत्ति सधाय छे । तेथी तीर्थंकर नाम कर्मना उपार्जनरूप आपत्ति अने तेना विपाकोदयरूप संपत्तिनी पण प्राप्ति थाय छ । नमो ए ध्यातानी शुद्धि सूचवे छे अरिहं ए ध्येयनी शुद्धि सूचवे छे अने ताणं ए ध्याननी शुद्धि सूचवे छे । ए त्रणेनी शुद्धि वडे त्रणेनी एकतारूप समापत्ति अने तेना परिणामे आपत्ति अर्थात् तीर्थंकर नामकर्मनुं उपार्जन तथा बाह्यांतर संपत्ति प्राप्त थाय छ । ज्ञानसार ग्रन्थना ध्यानाष्टकमां का छे के : 'ध्याता ध्येयं तथाध्यानं, त्रयं यस्यैकतां गतम् । मुनेरनन्यचित्तस्य, तस्य दुःखं न विद्यते ॥१॥ ध्याताऽन्तरात्मा ध्येयस्तु, परमात्मा प्रकीर्तितः । घ्यानं चैकाग्र्यसंवित्तिः, समापत्तिस्तदेकता ॥२॥ आपत्तिश्च ततः पुण्य तीर्थकृत् कर्मबन्धतः । तद्भावाभिमुखत्वेन, संपत्तिश्चक्रमाद्भवेत् ॥३॥ इत्थं ध्यानफलाद्युक्तं, विंशतिस्थानकाद्यपि। कष्टमात्रं त्वभव्याना मपि नो दुर्लभं भवे ॥४॥ ध्याननु फळ समापत्ति, आपत्ति (तीर्थंकर नाम कर्मनु उपार्जन) अने संपत्ति (तीर्थ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा ३७ कर नाम कर्मनो विपाकोदय) रूप होवाथी विंशतिस्थानक तप आदिनु आराधन सफळ मान्युं छे । जेने ते फळ थतु नथी ते अभव्योनु आराधन कष्ट मात्र फळवाळु छे अने ते तो आ भवचक्रमां अभव्योने पण दुर्लभ नथी। नवकारना प्रथम पदनु भावथी थतु आराधन आ रीते समापत्ति आदि भेद वडे सफळ थतु होवाथी अत्यंत उपादेय छ । धर्मध्यान भने शुक्लध्यान शास्त्रोमां आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय अने संस्थानविचयादि चार प्रकारनुं धर्मध्यान का छे । ते धर्मध्यान नवकारना प्रथम पदना नमो पदनी अर्थ भावना वडे साधी शकाय छे। नमस्कारमा प्रभुनी आज्ञानो विचार छे, रागादि दोषोनी अपायकारकता अने ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्मंना विपाकनी विरसतानो पण विचार छ । तथा चौद राजलोक रूप विस्तारवाळा आकाश प्रदेशोमां धर्मस्थाननी प्राप्तिनी अत्यंत दुर्लभताना विचाररूपी संस्थानविचय ध्यान पण तेमां रहेलुछे । . अरिहं पदमां शुक्ल ध्यानना प्रथम बे भेद पृथक्त्ववितर्क-सविचार अने एकत्ववितर्कअविचार तथा ताणं पदमां शुक्ल ध्यानना छेल्ला बे भेद सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति अने व्युपरतक्रिया-अनिवृत्तिनो विचार रहेलो छ । ए रीते अर्थ भावनापूर्वक प्रथम पदनो जाप धर्मध्यानना चारे पाया तथा शुक्लध्यानना चारे पायानो एक आथे संग्रह करावनार होई अति उज्ज्वळ लेश्याने पेदा करावनारो थाय छे , तेथी सात्मार्थी जीवोने अत्यंत उपादेय छे अने पुनः पुनः करवा लायक छ । तप, स्वाध्याय अने ईश्वर प्रणिधान योगशतकमां काछ के : सरणं भए उवाओ, रोगे किरिया विसम्मि मंतो य। ए ए वि पाव कम्मो वक्कमभेया उ तत्तेणं ॥१॥ सरणं गुरु य इत्थ, किरिया उ तवो त्ति कम्मरोगम्मि । मंतो पुण सज्झानो, __ मोहविसविणासणो पवरो ॥२॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ बीजाथी भय उत्पन्न थाय त्यारे तेनो उपाय जेम समर्थनु शरण छे, कुष्ठादि व्याधि उत्पन्न थाय त्यारे तेनो उपाय जेम योग्य चिकित्सा छे तथा स्थावरजंगमरूप विषनो ज्यारे उपद्रव थाय त्यारे तेनु निवारण जेम देवाधिष्ठित अक्षर न्यास रूपे मंत्र छे, तेम भयमोहनीयादि पापकर्मोनो उपक्रम अर्थात् विनाश करवाना उपाय पण ३.रण वगेरेने ज कहेलां छे। शरण्य गुरुवर्ग छे। कर्म रोगनी चिकित्सा बाह्य-आभ्यंतर तप छे अने मोह विषनो विनाश करवामां समर्थ मंत्र पांच प्रकारनो स्वाध्याय छ । पातंजल योगसूत्रमा पण काछ के : तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः। . . समाधिभावनार्थःक्लेशतनूकरणार्थ श्च । (२-१-२) तप, स्वाध्याय अने ईश्वर प्रणिधान ए क्रिया योग छ। ते वडे क्लेशनी अल्पता अने समाधिनी प्राप्ति थाय छ । नव कारनुप्रथम पद 'नमो अरिहंताणं ।' पद समाधिनी भावना अने अविद्यादि क्लेशोनु निवारण करेछे । नमो पद वडे कर्मरोगनी चिकित्सारूप बाह्य-आभ्यंतर तप, अरिहं पद वडे स्वाध्याय अने ताणं पद वडे ईश्वर प्रणिधान-एकाग्रचित्ते परमात्म स्मरण थाय छ । प्रथम पदना विधिपूर्वक जाप वडे श्रद्धा वधे छे, वीर्य-उत्साह वधे छे, स्मृति-समाधि अने प्रज्ञा वधे छे तथा अंते कैवल्यनी प्राप्ति थाय छ । अष्टांग योग योगना आठ अंग यम, निमय, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, अने समाधि कहेला छे । ते प्रत्येक अंगनी साधना विधियुक्त नवकार मंत्रने गणनारने सधाय छ। नवकार मंत्रने गणनार अहिंसक बने छे, सत्यवादी थाय छे, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रहवतनो पण आराधक थाय छ । नवकार मंत्रना आराधकने बाह्मांतर शौच अने संतोष तथा पूर्वे कह्या मुजब तप, स्वा याय अने ईश्वर प्रणिधानरूप नियमोनी साधना थाय छ । नवकार मंत्रने गणनार स्थिर सुखासननी अने बाह्याभ्यंतर प्राणायामनी साधना करनारो पण थाय छ । नवकारनो साधक इन्द्रियोनो प्रत्याहार, मननी धारणा अने बुद्धिनी एकाग्रतारूप ध्यान तथा अंतःकरणनी समाधिनो अनुभव करे छ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा ३३ नमो पद वडे नादनी अरिहं पद वड़े बिंदुनी अने ताणं पद वडे कलानी साधना थाय छे । नवकार मंत्र वड़े नास्तिकता, निराशा अने निरुत्साहता नाश पामेछे तथा नम्रता, निर्भयता अने निश्चितता प्राप्त थाय छे । नवकार मंत्रमा पोतानी कर्मबद्ध अवस्थानो स्वीकार थाय छ । अरिहंतोनी कर्ममुक्त अवस्थानु ध्यान थाय छे तथा कर्ममुक्तिना उपायो स्वरूप ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनु आराधन थाय छ । क्षायिक भावनी प्राप्ति नवकार मंत्र वडे औदयिक भावोनो त्याग, क्षायोपशमिक भावोनो आदर अने परिणामे क्षायिक भावनी प्राप्ति थाय छ । .. नवकार मंत्रना आराधकने मघुरपरिणामनी प्राप्तिरूप साम भाव, तुला परिणामनी आराधनारूप समभाव अने क्षीर खंड युक्त अत्यंत मधुर परिणामनी आराधनारूप सम्मभावनी परिणतिनो लाभ थाय छ । नवकारनी आराधना वडे चिंतामणि, कल्पवृक्ष अने कामकुंभथी पण अधिक एवा श्रद्धय, ध्येय अने शरणनी प्राप्ति थाय छ । नमो पदं वडे क्रोधनो दाह शमे छे, अरिहं पद वडे विषयनी तृषा जाय छे अने ताणं पद वडे कर्मनो पंक शोषाय छ । दाह शमवाथी शांति थाय छे, तृषा जवाथी तुष्टि थाय छे अने पंक शोषावाथी पुष्टि थाय छे, तेथी या मंत्रने तीर्थ जळनी अने परमान्ननी उपमानो यथार्थपणे घटे. छे । नमो ए उपशम छ, अरिहं ए विवेक छे अने ताण ए संवर छ । परमान्ननु भोजन जेम क्षुधानु निवारण करे छे तथा चित्तने तुष्टि अने देहने पुष्टि करे छे, तेम आ मंत्रनुं आराधन पण विषय क्षुधार्नु निवारण करनार होवाथी मनने शांति, चित्तने तुष्टि अने प्रात्माने पुष्टि करे छ । नवकार मंत्रमां कृतज्ञता अने परोपकार, व्यवहार अने निश्चय, अध्यात्म अने योग, ध्यान अने समाधि, दान अने पूजन, शुभ विकल्प अने निर्विकल्प, योगारंभ अने योगसिद्धि, सत्त्वशुद्धि सत्त्वातीतता, पुरुषार्थ अने सिद्धि, सेवक अने सेव्य, करुणापात्र अने करुणावंत वगेरे साधनानी सघळी सामग्री रहेली छे । ईच्छा ज्ञान अने क्रियानो सुंदर सुमेळ होवाथी आत्मशक्तिना विकास माटे परिपूर्ण सामर्थ्य तेमां रहेलुं छे । ते कारणे शास्त्रोमां को छे के: Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव अन्य एसो अणाइ कालो, ___ अणाइ जीवो य प्रणाइ जिणधम्मो। तइयाविते पढ़ता, एसुच्चिय जिण नमुक्कारो॥ काल अनादि छे, जीव अनादि छे अने जिनधर्म पण अनादि छे, तेथी प्रा नमस्कार अनादि काळथी भणातो आव्यो छे अने अनंत काळ सुधी भणाशे अने ए भणनार तथा भणावनारनुं अनंत कल्याण करशे । । भौतिकवाद ना आ युगमां अध्यात्मवादना अमीपान करवामाटे श्री नमस्कार महामंत्र समान कोइ उत्तम साधन नथी, कोई निर्मळ अने सरल मंत्र नथी, प्रा महामंत्र कुविकल्पोथी मननु रक्षण करे छ, खोटा विचारो थी मननु रक्षण करवुए एक महत्वनी वस्तु छ। वर्तमान युगमा धन सत्ता के वैभवन रक्षण करवा माटे देहबल के प्रारोग्यनु रक्षण करवा माटे अनेक साधनो योजायां. छे, अने योजाय छ, पण संकल्प विकल्प थी मननु रक्षण करवा माटे एक पण समर्थ साधन शोधयानुसामल्युनथी, ते माटे नवकार मंत्र एक समर्थ साधन छे, पूर्व महर्षिोए मनना रक्षण माटे अनेक प्रकार ना मंत्र योजेला छे, पावा सर्व मंत्रोमां श्री नमस्कार महामंत्रनु स्थान श्री जैन शासनमा मोखरे छ । । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहतनु स्वरूप ले० अभ्यासी ज्ञान श्रात्म साधनामा हेतु छे अनाहत परमोपकारी शास्त्रकार भगवंतोए शास्त्रोमां श्रनाहतनुं स्वरूप यंत्र, मंत्र, ध्यान अने योगी दृष्टि विस्तारथी बतावेलु छे । तेनु ं ज्ञान मेळववाथी प्रात्मसाधनामां प्रागळ वधवा माटेनी अलौकिक दृष्टि प्राप्त थाय छे । मंत्र दृष्टिए अनाहत भिन्न भिन्न यंत्रोमा भिन्न भिन्न आकृतिवाला श्रनाहतनुं श्रालेखन करेलु छे । तेनु' गूढ रहस्य तो ते विषयना विशेष अनुभवी महात्माओ पासेथी ज जाणी शकाय । अनाहतना भिन्न भिन्न श्राकाशे ॐ घटित, ह्रीँ घटित, शुद्ध गोलाकाररेखाद्वयं, लंबगोलाकारे रेखाद्वयं चतुष्कोणाकारे रेखाद्वयं, अनेक रेखारूप, अर्धचंद्राकार विगेरे । प्रकटप्रभावी पूर्वोद्धत श्रीसिद्धचक्र महायंत्रमां त्रण स्थले अनाहतनु प्रलेखन करवामां आवे छे। १. प्रथम वलयनी कणिकामां ( केन्द्रस्थाने) आवेल 'अहे " चारे बाजुथी ॐ ह्रीँ सहित अनाथ वेष्टित छे । २. द्वितीय वलयम स्वरादि आठ वर्गो अनाहतथी वेष्टित छे । ३. तृतीय बलयमां तो ॐ सहित आठ अनाहतोनी स्वतंत्र स्थापना करी तेने आराध्य देवरूप मानी पूजन करवानुं बताव् छे । आ रीते यंत्रना केन्द्रस्थानमा रहेल श्री अने स्वरादिना ध्यानथी अनुक्रमे 'अनाहत' नादनी जागृति थाय छे, तथा अनाहत ध्यान करनारने अडतालीश प्रकारनी महान लब्धिप्रो प्रगटे छे । जिन, केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी, श्रुतकेवली, दशपूर्वधर वगेरे महर्षि पण अनाहतना ध्यानथी ज ते ते लब्धिश्रोने प्राप्त करे छे । श्रा गुप्त रहस्य तृतीय वलयना लब्धि पदोना मध्यमां आठ अनाहतनी स्थापना द्वारा बतावेल छे । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ अनाहत शंछे ? अनाहतनु आलेखन श्रीसिद्धचक्र महायंत्रना आराध्य विभागमां (जे अत्यंत महत्त्वनो होवाथी अमृतमंडल कहेवाय छे) थयेल होवाथी ते पण अरिहंत पदोनी जेम पूजनीय छ । जो 'अनाहत' कोई अधिष्ठायक देव होत, तो तेनुपूजन तथा आलेखन अधिष्ठायक देवोना वलयमां थQ जोईतु हतु, पण ते रीते थयेल नथी माटे 'अनाहत' ए श्रुतज्ञान अने तपरूप छे, एम मानवामां कोईपण प्रकारनो विरोध जणातो नथी। नीचेनी बाबतोथी या वात वधारे स्पष्ट थशे। १. यंत्रमा 'अनाहत' सूचक जे प्राकृतिनु आलेखन छे, ए श्रुतज्ञान छ । २. मंत्र ('ह') रूपे 'अनाहत' नु स्मरण तथा ध्यान ए स्वाध्याय अने ध्यानरूप तप छ । अनक्षरताने प्राप्त थयेलु 'अनाहत' नादनु ध्यान ए निरालंबन ध्यानरूप छे, माटे ते अभ्यंतर तप अने भाव चारित्ररूप छ । प्रा प्रमाणे सूक्ष्म बुद्धिथी विचारणा करतां समजी शकाय छे के 'अनाहत' ए ज्ञान अने क्रियारूप छे, माटे मुमुक्षु आत्माने ते परम आराध्य छ । ४. 'अह" ए समग्र जिनशासनना सारभूत नवपदोनु बीज अने नवकार महामंत्रनां प्रथम पदमा रहेला अरिहंत परमात्मानो वाचक छ । वळी स्वरो अंने व्यंजनो ए समग्र श्रुतसागरनां मूळ छे । तेमनी साथे ज 'अनाहत' नु आलेखन थयु छे, ते तेना महत्त्वने बताववा माटे ज छ। आ महान रहस्य साधक प्रात्माने अनुभवथी ज जणाशे। मंत्र, ध्यान अने योगनी दृष्टिए अनाहत कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य भगवाने योगशास्त्रमा 'अनाहत' नादनु स्वरूप आ प्रमाणे बताव्यु छः-'अहं' नां ध्यान पछी तेमांथी रेफ नाद-बिन्दु अने कला रहित उज्ज्वल वर्णवाला 'ह' नु ध्यान करवू, ते सिद्ध थया पछी अर्धकलाना आकारने पामेलो अने अनक्षरताने प्राप्त थयेलो 'ह' अक्षर चितववो, सूर्य समान तेजस्वी अने सूक्ष्म एवा ते अनाहत देवनु एकाग्रताथी ध्यान कर जोइए। अनुक्रमे सतत ध्यानाभ्यासथी सूक्ष्म-सूक्ष्मस्वरूप चितवतां मात्र वालनां अग्रभाग जेटलु सूक्ष्म 'अनाहत' नु ध्यान करवु । अने ते पछी “समग्र विश्व जाणे ज्योतिर्मय छे", एम विचारवु। ____ा प्रमाणे आकारने छोडी निराकारनु आलंबन लेवु, पछी ते लक्ष्यमांथी पण मनने धीमे धीमे खसेडी अलक्ष्यमां स्थिर करवू । अलक्ष्यमा मननी स्थिरता थतांनी साथे ज अंतरमां इन्द्रियातीत (इन्द्रियने अगोचर), अलौकिक एवी अक्षय ज्योति प्रगटे छे अने ते वखते Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहतनु स्वरूप आत्माने परमशांतिनो अनुभव थाय छ। प्रा रीते 'अनाहत' नादना अभ्यास वडे लक्ष्यमाथी अलक्ष्यमां जइ शकाय छ । अलक्ष्यमां निश्चल मनवाला मुनिमोने सर्व प्रकारनी लब्धिप्रो प्रगटे छ। ज्ञानार्णवनां २८मा प्रकरणमा पदस्थ ध्यानना अधिकारमां पण 'अनाहत' सबंधी हकीकत उपर प्रमाणे ज बतावी छ । त्यां पण 'अह" ना ध्याननी प्रक्रिया बताव्या पछी ज 'अनाहत' नुस्वरूप विस्तारथी बताव्यु छ। तेमज 'अनाहत' नु शिव (एतत्तत्त्वं शिवाख्यं वा) एवु बीजु नाम पण बताव्युछे । ते उपरथी समजी शकाय छे के अनाहतनादनु ध्यान ए जीवमांथी शिव थवानी महान रहस्यात्मक प्रक्रिया छ । - योगनी दृष्टिए अनाहत 'अनाहत' नाद ए प्रशस्त ध्यानना सतत अभ्यास द्वारा प्रगटेली एक महान आत्मशवित 'छे, माटे ते आत्मसाक्षात्कारनो द्योतक छ। योगसाधनामां तेनी विशिष्ट महत्ता छ । अनाहतनादना प्रारंभथी साधकने आत्मदर्शन थवानी पूर्ण श्रद्धा प्रगटे छे । तेनो मंगल प्रारंभ सविकल्प ध्यानना सतत अभ्यासथी थाय छे । अने ते वखते ध्याता, ध्येय अने ध्याननी एकता सिद्ध थाय छ । तेनी मधुर ध्वनिनां श्रवणथी आत्मा अानंदमां तरबोल बनी जाय छ । का छे के: "तुज मुज अंतर अंतर भांजशे, वाजशे मंगलतूर ; __ जीव सरोवर अतिशय वाधशे, आनंदघन रसपूर ।" योगप्रदीपमां 'अनाहत' नादनु स्पष्ट स्वरूप प्रा प्रमाणे बताव्यु छे: "परमानन्दास्पदं सू मं, लक्ष्यं स्वानुभवात् पर। अधस्तात् द्वादशांतस्य ध्यायेन्नादमनाहतम् ॥" गाथार्थ-परमानंदनु स्थान, अत्यंत सूक्ष्म, स्वानुभवगभ्य, अनुपम एवा अनाहतनादनु ध्यान ब्रह्मरंध्रनी नीचे हमेशां करवु । श्लोक-११५ । अविच्छिन्न तेलनी धारा जेवा, मोटा घंटना रणकार जेवा, प्रणवनाद (अनाहतनाद) ना लयने जे जाणे छे, अनु भवे छे, ते खरेखरो योगनो जाणकार छ । श्लोक-११६ । - अनाहतनादने घंटनाद साथे सरखाववान कारण ए छे के जेम धीमे धीमे शांत थतो घंटनो नाद अंतमां अत्यंत मधुर बने छे, तेम 'अनाहत' नाद पण धीमे धीमे शांत थतो अने अंते अत्यंत मधुर बनतो आत्माने अमृत रसनो आस्वाद करावे छ । श्लोक-११७ । प्रा त्रण श्लोको संक्षेपथी 'अनाहत' नादनु स्वरूप, उद्गमस्थान, तैलधारा तथा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ घंटानादनां दृष्टांत द्वारा तेनो अस्खलित गतिए चालतो प्रवाह अने ते प्रवाहमा लयलीन बनेलो आत्मा खरेखर योगनो अनुभवी छे, एम बतावेल छ । ___ सर्व जीवोना हृदयमां स्थित थयेलो ते अनाहतनाद अव्यक्तपणे-गुप्तरीते चालतो ज (संचरतो ज) होय छे । तेथी प्रगट रीते संभळातो नाद ए अनाहत नाद नथी (श्लोक११८)। ते नाद सर्व देह व्यापी होवा छतां नासिकानां अग्रभाग उपर व्यवस्थित होय छे । तेम ज ते नाद सर्व प्राणीप्रोने देखातो नथी पण ध्यानना अभ्यासीनोने, ज ते लक्ष्यमा प्रावी शके छ । धर्मध्यानना सतत अभ्यास पछी ज अनाहत नादनो प्रारंभ थाय छे । तेथी ध्यानना प्राथमिक अभ्यासीने के मंद अभ्यासीने नादवें स्वरूप प्रत्यक्ष न थाय ते संभवित छ । अनाहत नादना अनहद अानंद ने अनुभववा माटे गुरुगमथी सतत अभ्यास करवो जोइए, ते आ श्लोकन तात्पर्य छ। ___ शब्दध्वनिथी रहित, विकल्परूप तरंग विनानुं अने समभावमां स्थिर थएलुचित्त, ज्यारे सहज अवस्थाने पामे छे, त्यारे ते चित्तवडे अनाहतनादनो प्रारंभ थाय छे । (श्लो०-१२०). पदस्थ (अक्षर) पिंडस्थ, रुपस्थ ध्यानमां अक्षर के आकृतिनुं आलंबन लेवू पडे छे, माटे तेने सालंबन ध्यान कहेवामां आवे छे। सालंबन ध्यानमा सविकल्प दशा होय छे अने ते अनेक प्रकारे थई शके छे। योगशास्त्रादि ग्रंथोमां बतावेला सालंबन ध्यानना प्रकारोमांथी कोइपण प्रकारनो सतत अभ्यास करवामां आवे, तो सालंबन ध्याननी परिपक्व अवस्थामां तेना फळरूपे अनाहत नादनो प्रारंभ थाय छे । अक्षरमांथी अनाहत-नादरुप अक्षरता प्रगटे छ । स्थूल आकृतिनां बदले अत्यंत सूक्ष्म अनाहतनादनु ज आलंबन होय छ। तेथी (ते अर्थमा) तेने अनक्षर ध्यान के निरालंबन ध्यान कहेवामां वांधो नथी। जे वखते चित्त समभावमां झीलतु होइने सहज अवस्थाने पामे छे, ते वखते अनाहतनादनो प्रारंभ थाय छ। अनाहतनादन ध्यान नित्य नियमित करवाथी अनुक्रमे ते निर्मळ बनतुं जाय छे । अने ज्यारे साधक योगीने अभ्यासवडे अनाहतनादनुं ध्यान शुद्ध थाय, त्यारे ते निराकार एवा ब्रह्मरंध्रमां मनने स्थापित करे छ । (श्लो०-१२१) आ प्रमाणे परोपकारी पूर्वाचार्योए स्वानुभवपूर्वक प्रात्मासाक्षात्कार करवानी चावीओ बतावेली छ । प्राथमिक अवस्थामा स्थूल आलंबन द्वारा ध्यानाभ्यासनो प्रारंभ करवो जोइए । ते सिद्ध थतां सूक्ष्म, क्ष्मतर आलंबन लेवु जोइए । तेना सतत अभ्यासथी 'अनाहत' नादनो आविर्भाव थाय छे, अने अनाहतनादनी सिद्धि थतां द्वादशांत ब्रह्मरंध्रमां प्रवेश थई शके छे। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहतनु स्वरूप ब्रह्मरंध्रभां प्रवेश निराकार परमात्मस्वरूपना चिंतनथी थाय छ । माटे ते वखते बहिरात्मभाव अने अंतरात्मभावने गौण करी पोताना आत्माने परमात्मस्वरूप मानी तेनु ज घ्यान योगी पुरुषो करे छे । (श्लोक-१२८) अनाहत नवपदोन अंग छ श्री सर्वज्ञ सर्वदर्शी अनंत उपकारी जिनेश्वर भगवंते बतावेल मोक्ष मार्गमा सर्वप्रकारना योगोनो समावेश थयेलो छ । कयु छे के: "योग असंख्य जिन कह्यां, नवपद मुख्य ते जाणो रे ; एह तणे अवलंबने, प्रातम ध्यान प्रमाणो रे ॥" आ रीते जैन दर्शनमा विस्तारथी योगोना असंख्य प्रकार बताववामां पात्या । छतां संक्षेपथी' एक, बे, त्रण, चार, पांच, छ अने नव आदि प्रकारो भिन्न भिन्न अपेक्षाए दर्शाव्या छ । तेमां पण नवपदनी आराधनामां समग्र जिनशासननी आराधनानो समावेश थई जाय छ । केमके नवपदमय श्रीसिद्धचक्रमां बे प्रकारनी रत्नत्रयी (देव, गुरु, धर्मरूप अने सम्यगदर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप) रहेली छ । अर्थात् विश्वमां एवो कोई योग के योगनु अंग नथी के जेनो नवपदमां समावेश न थतो होय । पा रीते विचारतां अनाहत पण नवपदोनु अंग छे, नवपदना अनुभवी आराधकने तेनो साक्षात् अनुभव थई शकशे । प्रत्यक्ष-प्रभावी एवा श्रीसिद्धचक्र बृहयंत्रमा त्रणवार आलेखन थयेल अनाहतन अद्भुत रहस्य समजवा शक्य प्रयास करीए तो आजे पण महायंत्रमा रहेला योगना अनपम गुप्त रहस्योनो आछो ख्याल जरूर आवी शके। महायंत्रमा प्रथमवलयनी कणिकामां आवेला 'ह्र " पदने 'ॐ ह्रीं" स्वर अने 'अनाहत' बडे वेष्टित करवामां आव्य छे, तेनु गुप्त रहस्य शु छ ? ते प्रथम विचारीए । ॐ ह्री स्फुटानाहतमूलमंत्रं, स्वरैः पटीतं ..... एक प्रकार-सम्यग प्राचार । बे प्रकार-सर्व विरति-देश विरति अथवा ज्ञान क्रिया। त्रण प्रकारसम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र । चार प्रकार-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप, अथवा दान, शील, तप, भाव । पांच प्रकार-पांच महाव्रत । छ प्रकार-पांच महाव्रत अने छड्डु रात्रि भोजन त्याग । नवप्रकार-नवपद। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव अन्य ___ॐ ह्री अह" ए सिद्धचक्रनो मूल मंत्र छे, जो के श्रीसिद्धचक्रजीना मंडलना मध्यस्थानमां श्री अरिहंत परमात्मानी मूर्तिनी स्थापना होय छे, परंतु अहीं यंत्रमा मूर्तिने बदले ऽहं नुं आलेखन करवानुं कारण ए छे, के ध्यान दशामां मूर्ति करतां अक्षरनुं आलम्बन सूक्ष्म मानवामां आव्यु छे, बीजु हए अरिहंतनु मंत्रात्मक शरीर छे, तेथी ते वखते ध्यान दशामां तेनुं आलंबन सूक्ष्म अने अत्यंत महत्त्वभयु छ । ॐ ह्री अने स्वरादि सहित 'अहं "नां ध्याननी विशिष्ट प्रक्रिया योगशास्त्रना ८ मा प्रकाशमां (श्लोक ६-१७ सुधी) कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्यजी ए बतादे ली छे । ते न विस्तृत विवरण वांचतां वांचको सरळताथी समजी शकशे के, प्रा यंत्रना केन्द्रस्थानमा ज ध्याननी एक स्वतंत्र महान प्रक्रिया बताववामां आवी छ । ध्यानमां प्रथम स्थूल आलंबन लीधा पछी सूक्ष्ममां आवq पडे छे । तेथी अहीं प्रथम स्वर सहित 'ॐ ह्रीं अहन ध्यान कर्या पछी मात्र 'अहD ध्यान करवानुं बतावी अते 'अह” ना ध्यानने पण ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, सूक्ष्म अने अतिसूक्ष्म बनावतां जई, छेवटे ए ध्यान सुसू८मध्वनिरूपे बनी जाय छे अने आ सूक्ष्म वनि ए ज अनाहतनाद कहेवाय छ । अनाहतनी स्थूल शरीर पर थती असर __ अह अने स्वरादिना ध्यानथी अनाहतनाद अनक्षरध्यानरूपे प्रगटे छे । अने ते नाद नाभि, हृदय, कंठ आदिनी ग्रंथिप्रोने भेदतो ते स्थानोमा मध्यमांथी पसार थई उर्ध्वगामी बने छ ।' ___ आज भावने श्री चिदानंदजी महाराज प्रा प्रमाणे कहे छ---"अनाहतनादनां नित्य नियमित अभ्यासद्वारा सुषुम्णा नाडिमां प्रवेश थाय छे अने वंकनालमां रहेला षट्चक्रोनुं अनुक्रमे भेदन थई दशमद्वारमां (ब्रह्मद्वारमा) पण सरळताथी प्रवेश थई शके छ ।” ___ अर्ह आदिने 'अनाहत' थी वेष्टित करवानु तात्पर्य एज जणाय छे के, अह आदिनु ध्यान ज्यां सुधी अनाहतनाद न प्रगटे त्यां सुधी नित्य नियमित धैर्यपूर्वक करतां रहे १. ग्रन्थीन् विदारयन् नाभि-कंठहृद्घटिकादिकान् । सुसूक्ष्मध्वनिना मध्य-मार्गयायी स्मरेत् ततः ।। २. सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं रटना लगीरी, इंगला पिंगला सुषुमणा, साधके अरुणपतिथी प्रेमपगीरी; वंकनाल षड्चक्रभेदके दशमद्वार शुभ ज्योति जगीरी ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहतनु स्वरूप ४७ जोइए । परन्तु ज्यारे अनाहतनादनो प्रारम्भ थई गयो होय, ते वखते अह आदि अक्षरोनां ध्यान करवानो आग्रह राखवो न जोइए । केमके अक्षर ध्यान करतां 'अनाहत' ध्याननी शक्ति अनेकगणी अधिक छ । अनाहतनी कामरण शरीर पर थती असर ब्रह्मद्वारमा आत्मानो उपयोग स्थिर थवाथी आत्म-साक्षात्कारमा प्रतिबंध करनार कर्मरूपी कपाट (द्वार) उघडी जाय छे, अने अनुपम आनन्दनो अनुभव प्रत्यक्ष थतो होवाथी जन्म, जरा अने मरणनी भीति दूर भागी जाय छ। समग्र शरीरमां आनंदमय स्वरूपे व्यापीने रहेल अात्माना प्रत्यक्ष दर्शन थायछे । सच्चिदानंदमय मूर्तिनां प्रेमपूर्वक दर्शन करी चेतना (बुध्धि) अात्मा साथे लयलीन बनी, जाय छे ।' - तैलधारानी जेम अविच्छिन्नपणे चालता अनाहत नादना प्रवाह वडे अनेक कर्मवर्गणामोनो अने तेथी उत्पन्न थतां तीव्र रागद्वेषनी ग्रंथिनो भेद थई जवाथी सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय छ। अनाहतनादनी प्रात्मा उपर थती असर अस्खलित गतिए चालतो नदीनो प्रवाह कोईथी पण अटकावी शकातो नथी, तेम अविच्छिन्न गतिए चालतु ध्यान ज्यारे कोई पण प्रकारनां संकल्प विकल्पथी बाधित थतु नथी, त्यारे ते अनाहत कहेवाय छे । अने ते समये आत्मामां पण समतारसनो धोध वहे छे अने सर्वजीवो उपर समता-शमभाव प्रगटे छे ।' परमयोगिराज श्रीपानन्दघनजी महाराजनी अनुभवात्मक वाणीनी सरखामणी करवाथी अनाहतनु रहस्य सरलताथी समजी शकाय छे । तेश्रोश्री फरमावे छे के छल्ला पुद्गल परावर्तमां भवपरिणतिनो परिपाक थवाथी 'अहं' नुध्यान प्रथम त्रण करण (यथाप्रवृत्ति करण, अपूर्णकरण, १. खलत कपाट घाट निज पायो, जनम जरा भय भीति भगीरी । काच शकल दे चितामणि ले, कुमति कुटिलाक़ सहज ठगीरी । व्यापक सकल स्वरूप लख्यो इम, जिम नभमां मग लहत खग़ीरी । चिदानंद पानंद मूरति निरख प्रेमभर बुद्धि थगीरी। -चिदानंदजी महाराज २. लब्धे स्वभावे कण्ठस्थ-स्वर्णन्यायाद्भमक्षये । राग द्वेषानुपस्थानात्, समतास्यादनाहता ॥२४२॥ जगज्जीवेषु नो भाति, द्वविध्यं कर्मनिर्मितम् । यदाशुद्धनयस्थित्या, तदासाम्यमनाहतम् ॥२४३॥ -अध्यात्मसार Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ अनिवृत्ति करण) द्वारा ग्रंथिभेद करी सम्यक्त्व प्रगटावे छे । तेथी मिथ्यात्व अने तीव्र रागद्वेषादि दूषणो दूर थाय छे । अने पछी शास्त्र श्रवणथी दिव्य दृष्टि खूले छे । पाप प्रणाशक सद्गुरुना गाढ परिचयथी अने तेमनी पासे अध्यात्मग्रंयोनां रहस्यो मेलवी तेन उपर नयविक्षेपवडे चिंतन, मनन अने परिशीलन करवाथी ते दिव्यदृष्टि विकसित बनती जाय छे अने अनाहत-अबाधित समता प्रगटे छ ।' ___ ध्यान वखते कुंभनी प्राकृतिवाला आ यंत्रने आपणा शरीरमा स्थापन करवामां आवे तो 'अर्ह " ए पद नाभिनां स्थाने आवे छे । अनाहतनादनु उद्गमस्थान पण नाभिमंडळ ज होवाथी प्रथम त्यां ज ध्यान-करवानुं सूचन रहस्यभयुं छे । जैन शास्त्रनी दृष्टिए प्रात्माना असंख्य प्रदेशोमांथी आठ रूचक प्रदेशो, जे 'गोस्तन' ना आकारे नाभिमां ज रहेला छ। ते प्रदेशो आवरण (कर्म) रहित होवाथी सुख अने आनंदथी पूर्ण छ । ते प्रदेशोमां ध्यान द्वारा प्रवेश करवा माटे ज जाणे नाभि प्रदेश.नां स्थाने 'अह” नुं ध्यान करवानुं विधान कयु होय, एम अनुमान थाय छे।। ॐ पंचपरमेष्ठि वाचक छे अने ह्री द्वारा चोवीस तीर्थंकरोतुं ध्यान थई के छ ।' स्वरो ए श्रुतज्ञाननु मूळ छ। आ त्रणेनी साथे अर्ह ना ध्यान विधान ए सूचवे छे के पांचे परमेष्ठि भगवंतोनी भक्ति तथा श्रुतज्ञानना अभ्यास साथे करेलुं अर्ह नुं ध्यान ज अनाहतनाद उत्पन्न करी बाह्य आभ्यंतर ग्रंथीयोने भेदी, आत्मदर्शन कराववा समर्थ बने छ । परंतु तेमनी भक्ति तथा बहुमान विना अनाहतनादनी उत्पत्ति के प्रात्मदर्शन सिद्ध न थई शके। आ गुप्त रहस्यने वधारे स्पष्ट करवा माटे ज केन्द्रनी चारे बाजु आठ पांखडीअोमां सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, अने तप पदनुं प्रालेखन करवाने आव्यु छ । ए नवे पदोन अद्भूत माहात्म्य वर्तमान आगमोमां विस्तारथी वर्णवेलुं छे ।। सिद्धचक्रना प्रथम वलयमा रहेला नवपदोनी भक्ति अने ध्यान साधकने श्रुतनो पारगामी बनावे छ । ए जणाववा माटे अने नवपदोनें भक्तिपूर्वक घ्यान करवा इच्छता साधके श्रुतज्ञाननो पण आदर अने बहुमानपूर्वक अभ्यास करवो जोइए, ए जणाववा १. चरमावर्ते हो चरमकरणतथा रे, भवपरिणति परिपाक; दोषटले वली दृष्टि खूले भली रे, प्राप्ति प्रवचन वाक। परिचय पातकघातक साधुशरे, अकुशल अपचय चेत; ग्रंथ अध्यात्म श्रवण मनन करी रे, परिशीलन नय हेत । ---श्रीमानंदघनजी म. कृत संभवजिन स्तवन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहत स्वरूप ४६ माटे बीजा वलयमां अनाहत सहित अष्टवर्ग, आलेखन थयेलुं छे । प्रत्येक वर्गने अनाहतथी वेष्टित करवामां पण एज रहस्य जणाय छे, के अक्षरोना आलंबनथी अनाहतनाद प्रगटाववो जोइए । एटले ज्यां सुधी अनाहतनाद उत्पन्न न थाय, त्यां सुधी अक्षरोनुं आलंबन छोडवू न जोइए । ते माटे का छे के : "शब्द अध्यातम अर्थ सुणीने, निर्विकल्प आदरजो रे ; शब्द अध्यातम भजना जाणी, हान ग्रहण मति धरजो रे ।" -(आनंदघनजी) प्रथम वलयमां सम्यग्ज्ञानवडे ज्ञान प्रालेखन (पूजन) थयु छे, छतां अहीं जे स्वतंत्र 'अ' वर्गादिनु आलेखन करवामां आव्यु छे, ते श्रुतज्ञाननी प्रधानता बताववा माटे ज करवामां आव्यु होय एम जणाय छे । श्रुतज्ञान विना अवधि, मनःपर्याय के केवळज्ञान आदि उत्पन्न थई शक्तां नथी । तेम श्रुतज्ञान विना कोईपण प्रकारचें ध्यान पण थई शकतुं नथी । तेथी आत्मसाक्षात्कार करवा माटे श्रुतज्ञाननुं आराधन (आलेखन) अति आवश्यक छ । का, छे के, मुनि शास्त्र दृष्टिवडे सकल शब्द ब्रह्मने जाणीने आत्माना अनुभववडे स्वसंवेद्य एवा परब्रह्मने (शुद्धस्वरूपने) प्राप्त करे छ ।' अनाहतनाद ए अनुभवदशानी पूर्वभूमिका छ स्वरादि वर्गने अनाहतथी वेष्टित करवाद्वारा एम सूचव्यु छे, के श्रुतना अभ्यास वडे अनुभवदशा प्राप्त करवी जोइए । केमके अनुभव दशानी प्राप्ति माटेनो एज सरल राजमार्ग छे । __ जेम शुष्कज्ञानी घ्यानना अभ्यास विना श्रुतज्ञाननां वास्तविक फळने (समता आनंदने) मेळवी शकतो नथी, तेम श्रुतज्ञाननी सहाय विना शुष्कध्यानी पण अनाहतना अनहद आनंदने के आत्मानुभवना रसास्वादने प्राप्त करी शकतो नथी। प्रा प्रमाणे स्वरादि अक्षरोने अनाहत्तथी वेष्टित करवामां आ अपूर्व रहस्य छुपायेलुं छे। उपरांत अक्षरनां (आगमनां) ज्ञान वडे अक्षरखें ध्यान थई शके छे, अने अक्षरना ध्यान वडे अनक्षरतारूप अनाहत उत्पन्न थाय छे । अने अनाहत वडे अनुभवदशा प्राप्त थाय छ । स्वरादि अष्टवर्गनी वचमां सप्ताक्षरी मंत्र 'नमो अरिहंताणं' पालेखन पण महत्त्वभयुछे । द्वादशांगीना अर्थथी उपदेशक अरिहंत परमात्मा ज छे, माटे तेमनी भक्ति तो कोईपण अनुष्ठान वखते अवश्य करवी जोईए । अहीं श्रुतज्ञाननी विशिष्ट आराधना माटे १. अधिगत्याखिलं शब्दब्रह्म शास्त्रदृशामुनिः। स्वसंवेद्यं परं ब्रह्मानुभवेनाधिगच्छति ॥ -ज्ञानसार Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ पण मनुं पूजन-स्मरण-ध्यान अत्यंत भक्तिपूर्वक करवुं जोईए, अने तोज ते पूर्ण फळ आपका समर्थ बने छे । ५० अरिहंतोना परमभक्त ज श्रुतज्ञानना बळे अनाहतनादने प्रगटावी अनुक्रमे आत्मानुभवदशा प्राप्त करी शके छे । शास्त्र के आगमानुसार वर्तन करवुं एज अरिहंतनी प्रज्ञानं पालन छे, अने एज तेमनी तात्त्विकी भक्ति छे । कां शास्त्रने आगळ करवाथी एटले के शास्त्रानुसार विधिपूर्वक वर्तन करवाथी वीतरागनी भक्ति थाय छे । अने तेमनी भक्ति वडे अवश्य सर्व कार्यनी सिद्धि थाय छे ।" छे '-- प्रमाणे बीजा वलयमां अक्षरो साथै अरिहंतनुं ध्यान करवाथी अनाहतनाद अवश्य उत्पन्न थवानुं सूचव्युँ छे । हवे त्रीजा वलयमां ॐ सहित अनाहतनुं स्वतंत्र प्रलेखन ४८ लब्धियोनी मध्यमां करवामां आव्यु छे। तेनुं तात्पर्य ए समजाय छे के अना ध्यानथी के नवपदना ध्यानथी अथवा तो कोईपण अक्षरना ध्यानथी अनाहतनाद प्रगटावी शकाय छे । माटे सुसाधकने जे आलंबन वधु ईष्ट के सरळ लागे, ते पदनुं अवलंबन ते लई शके छे । ॐ आदि एक पण पदनां सतत चिंतन, मनन अने ध्यानद्वारा पण तत्त्वज्ञाननी प्राप्ति थाय छे । अहीं पंच-परमेष्ठिवाचक ॐ ना ध्यानवडे अनाहतनादनो प्राविभाव थाय छे, एम जणा छे ने अनाहतना प्राविभाव पछी तरत ज उत्तम साधक, आत्मानी परमानंदमयी रसभरी भूमिका प्राप्त करे छे । अनुभवदशामां मग्न बनेला एवा साधकने अनेक प्रकारनी महान लब्धिश्रो उत्पन्न थाय छे । ४८ लब्धिधारी महर्षिोना पूजननुं विधान एम बतावे छे, के सर्व साधनामां सद्गुरुनी महत्ता प्रधान स्थाने छे । सद्गुरुनी सेवा अने तेमनो आशिर्वाद ज अनाहतनादने प्रगटावी विविध प्रकारनी लब्धिश्रोने प्राप्त करावे छे । श्रा वलयमां अनाहतनी चारे बाजु जे लब्धिधारी मुनिप्रोनी स्थापना अने ते पछी चोथा वलयमां पण आठ गुरु पादुकानी स्थापना छे, ते एम सूचवे छे के, सर्वकाले गुरुनी परतन्त्रतामां (निश्रामां ) ज साधनानी सफलता थाय छे । सद्गुरुनो उपकार क्षणवार पण न भुलावो जोइए। श्रा जन्ममां ने अन्य जन्मोमां पण अरिहंतादि अनंतानंत गुरुनोना उपकार, अनुग्रह अने आशिर्वाद वडे मारी साधना सफल बनी रही छे, तेथीलेश मात्र पण मनमां गर्व न श्रावे के हुं मारी स्वतंत्र शक्तिथी आगळ वधी रह्यो कुं, एवो नम्र भाव टकी रहेवो जोइये । १. शास्त्रे पुरस्कृते तस्मात् वीतरागः पुरस्कृतः । पुरस्कृते पुनस्तस्मिन् नियमात् सर्वसिद्धयः ॥ -ज्ञानसार Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहतनु स्वरूप पू या प्रमाणे प्रथम वलयमां 'अह" ने अनाहतथी बेष्टित करवा द्वारा देवतत्त्वनी परमभक्ति पूर्वकना ध्यानथी अनाहतनादनो अविर्भाव थाय छे, एम बताव्यु । अने बीजा वलयमां स्वरादि वर्गोने अनाहतथी वेष्टित करवा वडे श्रुतधर्मनी भक्ति द्वारा अनाहतध्याननी उत्पत्ति बतावी। अने त्रीजा वलयमां लब्धिधारी, चारित्र सम्पन्न गुरुयोनी सेवा द्वारा अनाहतध्यानना विकासद्वारा प्रगटती समतानी प्राप्ति थवानु बतावीने आ शक्तिने जीवनभर टकावी राखवा माटे गुरुनी निश्रामा रहेवानुसूचव्यु छ । आ वलयनु बीजं नाम 'गुरुमंडल' राखवामां पण गुरुतत्त्नी विशिष्ट भक्ति करवाने सूचन छ ।' परिहत्तनुं ध्यान समकितरूप, ज्ञानरूप अने चारित्ररूप छ अरिहंत परमात्मानु ध्यान ज सम्यग्दर्शन, ज्ञान, अने चारित्र छ । 'अह” ना ध्यानमां सम्यग् रत्नत्रयी समायेली छ । अर्ह नुध्यान ज अनुक्रमे अनाहतनादनारूपे अने अनाहतध्यानरूपे तेमज मनाहतसमतारूपे प्रगटे छे, तेथी ते सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररूप छ । अध्यात्म अने अनाहतनी सरखामणी अध्यात्मर्नु लक्षण आत्माना शुद्ध स्वरूपने प्रगटाववा माटे जे कांइ क्रिया अनुष्ठान करवामां आवे तेने शास्त्रकारो अध्यात्म कहे छ- .. ____ 'निज स्वरूप जे किरिया साधे, ते अध्यातम कहिए रे' अनादि काळथी संसारमा परिभ्रमण करता जीवनो मोह ज्यारे मंद थाय छे, अर्थात् तेनु बल अल्प बने छे, त्यारे आत्माने अनुलक्षीने जे विशुद्ध धर्मक्रिया थाय, तेज अध्यात्म छे, अने ते सर्व योगोमां व्यापीने रहेलो छ । ते धर्मक्रिया अपुनबंधकादि प्रथम गुणस्थान कथी लइ १४ गुणस्थानक सुधी उत्तरोत्तर बधु ने वधु विशुद्ध बनती जाय छ । सिद्धचक्रना यंत्रमा 'अनाहत'नु त्रणे वलयोमा थयेलु पालेखन पण उत्तरोत्तर विशुद्ध बनती आत्मशक्तिनुज सूचन करे छे, अर्थात् 'अह" ना ध्यानथी अनुक्रमे विकास पामती प्रात्म विशुद्धि एज 'अनाहत' छ । खरेखर ते प्रात्मविशुद्धिनु वर्णन करवामां शब्द समर्थ नहीं होवाथी ज अनक्षर एवा 'अनाहत' द्वारा तेनो निर्देश करवामां आवेल छ । जेम अध्यात्मना नाम, स्थापना, द्रव्य अने भावरूप चार भेद बतावेला छे । तेम अनाहतना पण नाम, स्थापना, द्रव्य भने भाच बडे चार प्रकार जाणी लेवा । नामादि त्रण जो १. मन्येपि ये केचन लब्धिमन्तस्ते सिद्धचके गुरुमंडलस्थाः । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव अन्य भावअध्यात्म के भावअनाहतने साधनारा होय तोज आदरणीय बने छ । नहिं तो तजवा योग्य छ । कहयुछे के: 'नाम अध्यातम ठवण अध्यातम, द्रव्य अध्यातम छंडो रे; भाव अध्या म निज गुण साधे, तो तेहशुरढ मंडो रे ।' अहीं अनाहत पण आत्मानां शुद्धस्वरूपने प्रगटववा माटे कराती विशिष्ट ध्यान क्रिया होवाथी ते भावअध्यात्म रूप छ । अष्टांग योग अने अनाहत योगना आठ अंगोमांथी प्रथमना चार (यम, नियम, आसन, अने प्राणायाम) द्रव्ययोग के हठयोग कहेवाय छे, अने प्रत्याहार धारणा, ध्यान अने समाधि ए. चार भावयोग के राजयोग कहेवाय छ। अनाहतनो पण धारणा, ध्यान अने समाधिमां अंतर्भाव थई शके छे। 'धारणा योग-यंत्रमा पालेखायेल अनाहतमां चित्तने स्थिर बनाववाथी अनाहतनी धारणा थइ शके छे । ध्यान योग-पदस्थ ध्यानरूपे 'अह" आदिनो जप अंते अनाहतनादमां विश्रान्ति पामे छे, एटले अनाहत ध्यान रूपे परिणमे छे, एटलुज नहीं पण पिंडस्थ, रूपस्थं के आज्ञाविचयादि कोई पण सालंबन ध्यान अंते अवश्य 'अनाहत' स्वरूपने धारण करे छे । ज्यारे ध्याता संभेद प्रणिधान द्वारा ध्येय साथे 'अभेद प्रणिधान साधे छे, त्यारे अनाहतनो आविर्भाव थाय छ। साधक मंत्रराज 'अहं' नां अभिधेयरूप शुद्ध स्फटिक रत्न जेवा निर्मल अरिहंत परमात्मा ध्यान करे छे, अने ते ध्यानना आवेशमां 'सोऽहं सोऽहं (तेज हुं) एरीते प्रांतरिक स्फूरण सहज भावे थाय छे, ते अवस्थाने अनाहतनादननी पूर्वावस्था कही शकाय। ते वखते साधक अरिहंत (ध्येय) साथे निःशंकपणे एकतानो अनुभव करे छ, अर्थात् 'परतत्त्व समापत्ति' रूप अभेद प्रणिधानने सिद्ध करे छे। त्यार पछी राग द्वेषादिथी रहित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी इन्द्रादि देवोथी पूजित समवसरणमां बेसी शुद्ध धर्म नी देशना आपता एवा पोताना आत्माने चितवे, आ १. धारणा तु क्कचित् ध्येये, चित्तस्य स्थिरबंधनम् ॥ २. ध्यानं तु विषये तस्मिन्, एकप्रत्ययसंततिः ॥ ३. जे ध्यानमां ध्यातानो ध्येय साथे संश्लेषरूप अथवा सम्बन्धरूप भेद छ । अर्थात् वाच्य साथे अभेद साधवानुं स्थान सहस्रार छे, तेमां प्रवेश करवा माटे जे ध्यान करवं, ते संभेद प्रणिधान छ । ४. जे ध्यानमां स्वयं ध्येयरूप थई ध्येयनी साथे पोताना प्रात्मानो सर्व प्रकारे अभेद साधवानो होय छे, ते अभेद प्रणिधान छ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहतनु स्वरूप ५३ प्रमाणे परमात्मा साथे अभेद भावने पामेलो ध्यानी आत्मा सर्व पापोनो नाश करी परमात्मपणाने प्राप्त करे छ। - अनाहतनापूर ___ अनाहतनी पूर्वावस्था अनाहतनी पूर्व अवस्थामा संभेदप्रणिधान द्वारा प्रगट थतां अभेदप्रणिधानमय ध्यानन स्वरूप विविध ग्रंथोमां या प्रमाणे बताव्यु छ । ध्याता प्रथम अरिहंत परमात्मानी मानसिक भावपूजा उत्तमोत्तम द्रव्योनी कल्पना वडे करे छ । (जेमके समतारूपी स्वच्छ गंगाजल वडे प्रभुने स्नान करावी भक्तिरूप केशर वडे अर्चन करी, शुद्धभावरूप पुष्पो चडाववा विगेरे) त्यार पछी परम प्रभुना अनंत गुणोनु स्मरण करी प्रभु साथे तन्मय बनवा माटे भावना करे छे, के मारा आत्मामां पण तेवा गुणो तिरोभावे (प्रच्छन्नपणे Potentially) रहेलां छे, कारण के सर्व जीवो सत्ताए सिद्ध समान छ । सर्व जीवोनी जाति एक छे । (एगे पाया) आत्मानु सहज निर्मल स्वरूप स्फटिक रत्न समान छ । (जेम निर्मलतारे रत्न स्फटिक तणी, तेम ए जीव स्वभाव ;) । - आ प्रमाणे अनेक स्याद्वाद सिद्धान्तनां सापेक्ष वचनो द्वारा विचार करतां तेने समजाय छे, के परमात्मा अने मारा आत्मानी कथंचित् समानता छ, माटे अमे बने एकज छीए । ते परमात्मा ते ज हुँ छु, (सोऽहं) । आ रीते द्विधाभावने (भेदभावने) दूर करी 'पोताना आत्माने पण परमात्म स्वरूपे चितवे छे । अने समरस भावमा विशेष उल्लसित थई तेमां मग्न बनी विचार छे के, खरेखर आजे हुं आनंदना महान साम्राज्यने पाम्यो छु अने सूर्य समान केवलज्ञानने मेलवी संसार समुद्रथी पार थई परमात्म स्वरूप बन्यो छु' सर्व लोकनां अग्रभागे रहेलो · · हुं तो निरंजन देव छु। परमात्म दर्शन- लक्षण ज्यारे ऊपर जणाव्या प्रमाणे निरंजन देवना दर्शन थाय छे, त्यारे साधक (ध्याता) ना नयनोमांथी आनंदनो अश्रुप्रवाह वहेवा मांडे छ, समग्र शरीर रोमांचित बनी जाय छ । १. द्वाभ्यामेकं विधायाथ, शुभध्यानेन योगवित् । परमात्मस्वरूपं तं, स्वमात्मानं विचिन्तयेत् ॥४७॥ २. सुलब्धानंदसाम्राज्यः, केवल-ज्ञान-भास्करः । परमात्म-स्वरूपोऽहं, जातस्त्यक्तभवार्णवः ॥४८॥ ३. अहं निरंजनो देवः, सर्वलोकाग्रमाश्रितः । इति ध्यानं सदाध्यायेदक्षयस्थानकारणं ॥४६॥ -योग प्रदीप Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VY श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ - ध्याता ज्यारे परमात्मा साथे तन्मय बने छे, त्यारे तेने अपूर्व आनंदनो अनुभव थाय छे, प्रा सत्य अनेक अनुभवी महात्माोना अनुभव वाक्योथी स्पष्ट समजाय छ। 'योगी ज्यारे जे वस्तुनु ध्यान करे छे, त्यारे ते ध्येय साथे तन्मय बनी जाय छे, एटले के ध्येयमय बनी जाय छे, माटे योगीए हमेशा आत्म विशुद्धि मेळववा वीतरागने ज ध्याववा जोइए, जेथी आत्मा पण वीतराग बनी शके। 'पा मारो आत्मा तेज निर्मल स्फटिक समान अने सर्व उपाधियोथी रहित परमात्मा छे, एवं ज्ञान आत्माने परमपद आपे छ । योगी अरिहंत परमात्मा साथे ध्याननां सतत अभ्यास वडे तन्मयेताने साधी स्वात्माने पण सर्वज्ञरूपे जूवेछ । एटले जे पा सर्वज्ञ भगवान छे ते हुं पोते ज छु। सद्गुरुना परमभक्तिना प्रभावथी साधक ने आ जन्ममां ज श्री तीर्थंकर परमात्मानां दर्शन 'समापत्ति' ध्यान वडे थाय छे अने ते मोक्षनुं असाधारण कारण गणायु छ । "समापत्ति एटले शं? ध्याता ध्येय अने ध्याननी एकताने समापत्ति कहेवाय छ । प्रेटले परमात्मा आदि ध्येय साथे ध्यान वडे तन्मय बनवु एज 'समापत्ति' छे अने आ समापत्ति सिद्ध थतां ध्यानदशामां श्री तीर्थङ्कर परमात्मानां साक्षात् दर्शन थाय छ। श्रीपाल कथामा श्री अरिहंतादि नवपदोनु तन्मयपणे ध्यान करवानु बतावी तेनु फल जणाव्युछे, के ध्याता ज्यारे रूपस्थ, पदस्थ पिंडस्थ ध्यानवडे अरिहंतनु ध्यान करी तेमां तन्मय बने छ, त्यारे ते पोताना आत्माने पण साक्षात् अरिहंत रूपे जूवे छ । रूपातीत स्वभाव वाला केवल ज्ञान, दर्शन अने आनंदयुक्त एवा सिद्ध 'परमात्मानु ध्यान करतो आत्मा पोते पण सिद्ध स्वरूपे बने छ, एमां संदेह करबो नहिं 'पा प्रमाणे नवपदो साथे आत्मानी एकता विचारवी। १. यदाध्यायति यद योगी, याति तन्मयतां तदा । ध्यातव्यो वीतरागस्तन् नित्यमात्मविशुद्धये ॥ (योगसारः) . २. शुद्ध-स्फटिक-संकाशो, निश्लकश्चात्मनात्मनि । परमात्मेति स ज्ञातः, प्रदत्ते परमं पदम् ॥ ३. गुरुभक्तिप्रभावेन, तीथेकृद्दर्शनं मतम् । समापत्त्यादिभेदेन, निर्वाणकनिबन्धनम् ।। ४. समापत्तिनु विशेष स्वरूप षोडशक आदि ग्रंथोमा वर्णमायेलु छ । ५. अरिहंत पद ध्यातो थको........", रूपातीत स्वभाव जे......... Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रनो अनुप्रेक्षा 'जेम नवपदोनी स्तुति करतां श्रीपाल पोतानां आत्माने नवपदमय जोता हता, तेम कोई पण साधक अरिहंतादिनी साथे तन्मय बने, तो ते पण अरिहंतादिमय बनी शके छ । कहयु छ के:- 'जिनस्वरूप थई जिन आराधे, ते सहि जिनवर होवेजी' ; प्रश्न :-अहिं कदाच एम शंका थाय के छद्मस्थ एवा ध्याताने (ध्यान करनारने) अरिहंत के सिद्ध केम कही शकाय ? उत्तर :-अरिहंत के सिद्धनु ध्यान करनार ध्याता भावनिक्षेपे आगमथी अरिहंत के सिद्ध कही शकाय, केमके अरिहंत के सिद्धपदनो ज्ञाता तेमां उपयोग वालो होय तो ते आगमथी भावनिक्षेपे अरिहंत के सिद्धज छ । परमात्मा-प्रभु साथे रसभरी प्रीति, तेमना स्वरूपमा तन्मय बनवाथी ज थई शके छ। प्रभ साथे तन्मय बनवाथी ज तेमनी पराभक्ति थाय छ । अरिहंतना प्रालंबनथी जीव आत्मावलंबी (स्वरूपावलंबी) बनी शके छ । 'जेम जिनवर आलंबने, वधे सधे एकतान हो मित्त ; तेम तेम पालंबनी ग्रहे, स्वरूप निदान हो मित्त' । जीव जेम जेम जिनवर ध्यान करी तेमा एकता साधे छे, तेम तेम ते आत्मावलम्बी बनी पोताना शुद्ध स्वरूपनु कारण (निदान) मेलवी शके छ, एटले के स्वभावरमणता प्राप्त करे छ । अने स्वभाव रमणता करतो जीव पूर्णानन्दस्वरूप ने प्राप्त करे छ । श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी पण 'कल्याणमन्दिर'मां अने 'जिनसहस्र नाम स्तोत्रमां' अभेद ध्याननु स्वरूप बतावतां कहे छ, के 'पंडित पुरुषो जिनेश्वरना स्वरूपनु ध्यान करी स्व आत्माने पण अभेदभावे ते स्वरूपे ज ध्यावे छ , ते जिनेश्वर बने छ । २जिनेश्वर ज दाता अने भोक्ता छ । सर्व जगत पण जिनमयज छ । जिनेश्वर सर्वत्र जय पामे छ । जे जिनेश्वर छ , ते हुं पोतेज छु। वली अनुभवी योगी श्री आनन्दघनजी म० प्रभु साथै तन्मयता केलवानो उपाय दर्शावे छ, के अरिहंत देवनी द्रव्य पूजा, स्तोत्र पूजा आदि द्वारा चित्तनी १. एम नव पद थुणतो तिहा लीनो, हो तन्मय श्रीपाल... ... .. -श्रीपाल रास २. प्रात्मा मनीषिभिरयं, त्वदभेद बुध्या । ध्यातो जिनेन्द्र भवतीह भवत्प्रभावः ॥१७॥ -कल्याण मन्दिर ३. जिनो दाता जिनो भोक्ता, जिनः सर्वमिदं जगत् । जिनो जयति सर्वत्र, यो जिनः सोऽहमेव च ॥ -जिन सहस्त्रनामस्तोत्र Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ प्रसन्नता प्राप्त करी, 'कपट रहित थई आत्माने परमात्मामा समर्पित करवो अने आत्म-समर्पण समये बहिरात्मभावने दूर करी अंतरात्मामां स्थिर बनी परमात्म स्वरूप भावqएटले के अन्तरात्माने परमात्मरूपे ध्यावQ। 'जिनेश्वर रूप थइजे जिननी आराधना करे ते अवश्य जिन बने छ । __ आत्मा अने परमात्मा बने शुद्ध नयथी एकज छ । एम विचारता मतिभ्रम दूर थाय छे अने मतिभ्रम दूर थवाथी परम सम्पत्ति अने आनन्दघन रसनी पुष्टि थाय छ । अनाहत ए सम्यग् दर्शन, इच्छायोग, अध्यात्मयोग, भावनायोग, प्रोति प्रने भक्ति प्रादि अनुष्ठाननो सूचक छ श्री सिद्धचक्रनी कर्णाकामा स्वर अने अनाहत सहित अर्ह - प्रथम आलेखन ए प्राथमिक अवस्थामां सर्वजीवोने इच्छायोग अने प्रीति-भक्ति आदि अनुष्ठानने सूचवे छ । अरिहंत परमात्मा प्रत्ये प्रथम प्रीति उत्पन्न थवी जोइए । एमनां नामस्मरण अने मूर्तिदर्शन वडे साधनानो मंगलमय प्रारंभ थाय छे । नाना बाळ जीवोने सर्वप्रथम श्री नमस्कार महामंत्र- रटण अने प्रभुदर्शन करवानुं शीखडाववामां आवे छे तेनी पाछल एज रहस्य छ, के तेओने प्रभु प्रत्ये प्रेम पेदा थाय, 'अरिहंते शरणं पवज्जामि' द्वारा प्रथम प्रभुनु शरण स्वीकारवान बतावी पछीज दुष्कृत गर्हा अने सुकृतानुमोदना करवानु विधान छ। ___ सम्यक्त्व प्राप्तिनां सर्व कारणोमां अरिहंतनी प्रीति अने भक्तिने प्रधान कारण (पुष्ट हेतु) मानवामां आव्युं छे । बाकीनी सर्व सामग्री गौण मनाइ छ । निमित्त हेतु जिनराज समता अमृत खाणी , प्रभु आलंबन सिद्धि नियमा एह वखाणी। -देवचंदजी कृत अरनाथस्तवन उपादान आतम सहिरे, पुष्टालंबन देव ; उपादान आतमपणेरे, प्रगट करे प्रभु सेव । अरिहंतनी प्रीति अने भक्ति ए योगनु बीज छे, मीत्रा दृष्टिवाला जीवो करता तारा, बला, अने दीप्रा, दृष्टिवाला जीवोनी अरिहंत प्रत्येनी प्रीति अने भक्ति अत्यंत गाढ होय छ । श्री अरिहंतादिनी भक्तिना योगे ध्यान शक्ति वधतां ग्रन्थी भेदन- सामर्थ्य प्रगटे छे, अने सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थतां ते प्रीति, भक्ति तात्त्विक बने छे, योग बिन्दु' ग्रन्थमा वर्णवायेल १. चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल का रे। -ऋषभदेव स्तवन कपट रहित थई आतम अरपरणां। --सुमतिनाथ स्तवन २. जिन स्वरूप थई जिन आराधे ते सहि जिनवर होवेजी। -नमिनाथ स्तवन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहतनु स्वरूप इच्छायोग, अध्यात्मयोग अने भावनायोग पण अहिं अवश्य होय छे, अने ध्यानयोग पण अंशे प्रगटे छे । अनुक्रमे नवपदोनी भक्तिपूर्वकना आराधन वडे अने शास्त्रश्रवण द्वारा ध्यानादि योगोनो विकास थतो जाय छे, अने ते अवस्थामां शास्त्रयोग अने वचनानुष्ठान पण घटी शके छे। अने ज्यारे ए ध्यानादि-अनुष्ठान सहज बनी जाय छे, त्यारे असंग-अनुष्ठान तेमज सामर्थ्ययोग पण अवश्य प्रगटे छ । ____ा रीते सूक्ष्मदृष्टिथी विचारतां समजी शकाय छे, के प्रथम वलयमां आलेखायेलो अनाहत ए सम्यग्दर्शन, ईच्छायोग, अध्यात्मयोग, भावनायोग, प्रीति अने भक्ति आदि अनुष्ठानोनो सूचक छ। बीजा वलयमा पालेखायेलो अनाहत देश विरति, सर्वविरति, प्रवृत्तियोग, ध्यानयोग, स्थैर्ययोग, वचन-अनुष्ठान अने शास्त्रयोगनो सूचक छ । .. त्रीजा वलयमां अनाहतनु स्वतन्त्र स्थापन ए अप्रमत्तदशा अने तेनी आगलना गुणस्थान कोमां थती स्वभावरमणता, सामर्थ्ययोग, समतायोग अने सिद्धियोग आदिनो सूचक छ । सुज्ञ वाचकोने योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, गुणस्थानकक्रमारोह आदि ग्रंथोनु परिशीलन करवाथी उपरोक्त कथननु रहस्य समजाशे । अनाहत ए उत्सर्ग भावसेवा छे, कारण के ते अपवाद भावसेवारूप अर्ह आदि नवपदोना ध्यानथी प्रगटेली आत्मशक्ति छ । अने ते अनाहत, उत्तरोत्तर गुणनी प्राप्तिनु कारण होवाथी अपवाद भावसेवा पण छ । का, छे के: उत्कृष्ट समकित गुण प्रगटयो, नैगम प्रभुता अंशेजी ; संग्रह आतम सत्तालंबी, मुनिपद भाव प्रशंसेजी ; कारण भाव तेह अपवादे, कार्यरूपी उत्सर्गेजी। अनाहत ए ध्यानथी प्रगटेली प्रात्मशक्ति होवाथी कार्यरूप, भने उत्तरोत्तर विशुद्ध प्रात्मशक्तिनो हेतु होवाथी कारणरूप पण छ । . अनाहत अने समाधि समाधि ए ध्यान विशेष छे' । अनाहत पण विशिष्ट प्रकारचें ध्यान ज होवाथी तेनो समावेश समाधिमां थई शके छे। समाधिनी व्याख्या ध्याता ध्यान वडे ध्येयस्वरूप बनी जइ पोताने मात्र ध्येयरूपेज अनुभवे ते समाधि छे ।। १. समाधिः ध्यान विशेषः । (श्रीदशवकालिक हारि० वृत्ति) २. समाधिस्तु तदेवार्थमात्राभासनरूपकः । (अभिधान कोष) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ अनाहत पण ध्याननी परिपक्व अवस्थामा उत्पन्न थतो होवाथी समाधि रूप छे अक्षरध्वनिथी रहित, विकल्पना तरंगविनानु, समभावमां स्थित अने सहज अवस्थाने प्राप्त थयेल चित्तमां अनाहत उत्पन्न थाय छ । अनाहतनो ज्यारे ब्रह्मरंध्रमा लय थाय छे, त्यारे अपूर्व प्रानन्दनो अनुभव अने परतत्त्वसमापत्ति थाय छे, अने तेने ज समाधि कहेवामां आवे छे । ___ समाधिना पर्यायवाची नामोना बोधथी स्पष्ट समझाय छे, के अनाहत ए समाधि रूप छ । राजयोगः समाधिश्च, उन्मनी च मनोन्मनी। अमरत्वं लयस्तत्त्वं, शून्याशून्यं परं पदम् ॥३॥ अमनस्कं तथाढतं, निरालंबं निरंजनं । जीवनमुक्तिश्च सहजा, तुर्या चेत्येकवाचकाः ॥४॥ -हठयोग दीपिका परमात्मा साथे ध्यातानो अभेद थवो तेज समरसीभाव अने तेज एकीकरण छे, तेने ज उभय लोकमां फलदायी समाधि कहेवामां आवे छे । श्रीदशवैकालिकना नवमा अध्ययनना ४ था उद्देशामां नीचे प्रमाणे चार प्रकारनी समाधिनु विधान छ १. विनयसमाधि। २. श्रुतसमाधि । ३. तपसमाधि । ४. आचारसमाधि। तेनी व्याख्या श्रीहरिभद्रसूरि म.कृत वृत्तिमां आ प्रमाणे छे:- 'तत्र समाधानं समाधिः परमार्थतः आत्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यं वा । परमार्थथी आत्मानु हित, सुख के स्वास्थ्य एज समाधि छ । १ विनयाद् विनये वा समाधिः विनयसमाधिः । विनय करवाथी जे आत्महित, आत्मसुख के आत्मस्वास्थ्यनी प्राप्ति थाय तेज विनयसमाधि कहेवाय, तेना चार भेद बताववामां आव्या छे। . १. समापत्ति-ध्यानविशेषरूपा तत्फलभूता वा मनसः समापत्ति अभिधीयते । (षोडषक) २. सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मतम् । --तत्त्वार्थ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहतनु स्वरूप २ श्रुतज्ञाना अभ्यासथी जे समाधि प्राप्त थाय ते श्रुतसमाधि । श्रुतज्ञाननो अभ्यास शा माटे ? (क) द्वादशांगीनु ज्ञान मेलववा माटे । (ख) ज्ञानमां एकाग्र बनवा माटे । (ग) तत्त्वज्ञानी बनीने शुद्ध धर्ममां स्थिर रही शके ते माटे 1 (घ) पोते शुद्ध स्वभावमां स्थित होवाथी अन्य शिष्यादिकने पण धर्ममां स्थिर बनावी शके ते माटे। एज रीते तपसमाधि प्रने श्राचारसमाधिनु स्वरूप पण चार चार भेद वडे विस्तारथी समजाववामां आव्युं छे । जिज्ञासुए ते ते ग्रन्थमांश्री गुरुगमद्वारा जाणवु । ५६ श्री सिद्धच महायंत्रनी कणिकामां 'अर्ह" नु' ध्यान पण 'अनाहत' मां लय पामे छे, . ते अरिहंतंनी परमभक्ति रूप विनयनुं फल छे । माटे 'अर्ह" पछी करवामां श्रावतुं अनाहत वेष्टन विनयसमाधिनो सूचक छे । द्वितीय वलयम स्वरादि साथे जे अनाहतनुं श्रालेखन छे, ते श्रुतज्ञान वडे जे समाधि दशा प्राप्त थाय छे, ते श्रुतसमाधिनो सूचक छे । तृतीय वलयां तपस्वी ने प्रचारवंत लब्धिधारी मुनिश्रो साथे अनाहतनुं श्रालेखन छे, ते तप, आचार अने समाधिने सूचवे छे । अर्थात् विनय, श्रुत, तप ने प्रचारना पालनथी अनाहत -समाधि प्रगटे छे, ए रहस्य श्री दशवैकालिक सूत्र जेबा मूल ग्रन्थमां पूर्वधर महर्षि श्रीशयंभव सूरिजी पण बतावेलु छे' । श्रीरिहंत परमात्मानी भक्तिथी चित्तनी प्रसन्नता प्राप्त थाय छे, चित्तनी प्रसन्नताथी 'समाधि' प्रगटे छे अने समाधि वडे सिद्धिपदनी प्राप्ति थाय छे। चित्तनी प्रसन्नता ए प्रभुपूजा अनंतर फल छ । साधक चित्तनी प्रसन्नता प्राप्त करीने कषायोने शांत बनावे छ । अने कषायोनो कारमो उकलाट शमी जवाथी समाधिदशामां ते परमात्माने आत्मसमर्पण करे छ । ૨ १. इमे खलु तेथेरेहि भगवंतेहिं चत्तारि विण्यसमाहिठारणा पन्नता तं जहा विषयसमाहि, सुयसमाहि, तवसमाहि प्राचारसमाहि । मूल -श्रीदशवैकलिक २. श्रभ्यर्चनादर्हताम्, मनः प्रसादस्ततः समाधिश्च । तस्मादपि निःश्रेयसमतो हि तत्पूजनं न्याय: ॥१॥ ३. चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कहयुं रे, पूजा अखंडित एह 1 कपट रहित थइ श्रातम अरपणां रे, आनंदघन पद रेह || - तत्त्वार्थ भाष्य कारिका -षभ जिन स्तवन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव अन्य आत्मसमर्पण ए समाधि रूप ज छ, केमके बहिरात्मदशानो त्याग करीने अंतरात्मस्वरूपमां स्थिर बनी, पोताना आत्माने परमात्मास्वरूपज चित्तववो तेने आत्मार्पण कहेवाय छ । ___ इन्द्रियोने वश करीने मनने, परमात्ना गुणचिंतनमां के ध्यानमा जोडवाथी ज बुद्धि स्थिर बनी शके छ । परमात्माना गुणगानथी के ध्यानथी चित्तनी प्रसन्नता प्राप्त थायछे अने चित्तनी प्रसन्नता प्राप्त थतां सर्व दुःखोनो नाश थाय छ तेमज प्रसन्नचित्त वाला पुरुषनी बुद्धि शीघ्र स्थिर थाय छ। इन्द्रियोनां जय विना मन अस्थिर रहे छ, चित्तनी चपलता थवाथी प्रभुस्तुति के ध्यान थई शकतु नथी, अने ते विना चित्तप्रसन्नता प्राप्त थती नथी, अने चितप्रसन्नता विना शान्ति मलती नथी। अशांत आत्माने सुख के समाधि क्याथी मली शके ? श्रा उपरथी समजी शकाय छे, के समाधिसुखना अभिलाषीप्रोए प्रथम इन्द्रियोने काबुमा राखी, मनने परमात्मगुणोमां स्थिर वनावी, तेना ध्यानमां लीन बनवु, जेथी चित्तनी प्रसन्नता वधती जशे, अने अनुक्रमे ध्याता, ध्यान अने ध्येयनी एकता साधी शकाशे, अने ते एकता सिद्ध थतां समाधिसुखनो साक्षात् अनुभव थशे। __ जे मनुष्य सर्व कामनामोनो त्याग करी, निस्पृह थई 'अहं अने मम' एटले "हुं अने मारूं" ए भावने छोडे छ, अर्थात् निरहंकारी बने छे, तेज शांतिने-समाधिने मेलवी शके छ। श्रीगणधर भवतो पण 'लोगस्स सूत्र'मां तीर्थंकरपरमात्मानी स्तुति द्वारा प्रसन्नतानी मांगणी करीने उत्तम समाधिदशा प्राप्त थानो एवी प्रार्थना करे छे । 'तित्थयरा मे पसीयन्तु' (मारा उपर श्रीतीर्थंकर भगवन्तो प्रसन्न थानो) एवी प्रार्थना द्वारा साधकनु चित्त प्रसन्न थाय छे, एज प्रभुनी प्रसन्नता छ। भावनारोग्य, बोधिलाभ ए भावसमाधिनां कारणो छ। तेनाथी उत्तम समाधिनी प्राप्ति थाय छ । चित्तनी प्रसन्नताथी भावनारोग्यनी प्राप्ति थाय छ । भावपआरोग्य वडे बोधिलाभ प्रगटे छे अने बोधिलाभनी प्राप्तिथी समाधि प्रगटे छ। सामायिक पण समाधि स्वरूप ज छ । समतानो लाभ एज समायिक छ । समाधिदशाने प्राप्त थयेलो आत्मा पण परमात्मा साथे तन्मय बनी समतारसनुपान करे छ । १. बहिरातम तजी अंतरातमा-रूप थइ स्थिर भाव; सुज्ञानी। परमातमनुं हो पातम भाव, पातम अरपण दाव, सुज्ञानी ॥ -सुमतिनाथ स्तवन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहतनु स्वरूप श्रुतसामायिक, सम्यक्त्वसामायिक, देशविरतिसामायिक पण समाधिनाज प्रकारो छ । श्रीदशवैकालिकसूत्रमा बतावेली विनयसमाधि विगेरेमां आ चारे सामायिक नो समावेश थइ जाय छ । संयम, चारित्र ए पण समधिनां ज पर्यायवाची नामो छ । आत्मा ज्यारे स्वस्वभावमा रमणता करे छे, त्यारे तेने चारित्र कहेवामां आवे छे । चारित्र ए समाधिगुणमय होवाथी समाधि ज छे, तेने ज संयम कहेवामां आवे छ ।' परमात्माना ध्यानमा मग्नता, तन्मयता थवी ए पण समाधि ज छ । अर्ह आदिना ध्यान वडे अनाहतलय उत्पन्न थवाथी ज परमात्म स्वरूपमा मग्नता के तन्मयता थइ शके छे ।' श्री ज्ञानसारमा मग्नतानु लक्षण' पांचे इन्द्रियो- दमन करी, मनने स्थिर. बनावी, मात्र चिदानंद स्वरूपमा विश्रान्ति करतो योगी मग्न कहेवाय छे । जे योगी ज्ञानसुधाना सिंधु समान परब्रह्म (परमात्म) स्वरूपमा मग्न बने छे, तेने अन्य विषयो हलाहल झेर जेवा लागे छ । स्वभावसुखमां मग्न बनेलो मुनि जगतनां सर्वतत्त्वोनुं यथास्थित स्वरूपे अवलोकन करतो होवाथी, ते पोताने बाह्यभावोनो कर्ता मानतो नथी, पण साक्षी मात्र माने छ । ____ श्रीभगवतीसूत्रमा पण संयमपर्यायनी वृद्धि साथे जे आत्मिकसुखनी वृद्धि बतावी छे, ते आवा स्वभावमग्न मुनिने आश्रयीने ज बतावेली छे। ___ संयमना असंख्यात अध्यवसायस्थानो ए अनुक्रमे विकाश पामती प्रात्मविशुद्धिना द्योतक छ । जेम जेम आत्मविशुद्धि वधे छे, तेम तेम आत्मिकसुख वृद्धि पामतुजाय छे । ध्याता अंतरात्मा जेम जेम स्वभावमां स्थिति करे छे, तेम तेम तेने समाधिविषयक अनुभवो स्पष्टथतां जाय छे । १. शुद्धातम गुणमें रमे, तजि इन्द्रिय प्राशंस; थिर समाधि संतोषमा, जयजय संयम वंश । समाधि गुणमय चारित्र भलुंजी, सत्तरमुं सुखकार रे; व्रत श्रावकनां बारभेदे कह्यांजी, मुनिना महाव्रत पंचरे । सत्तर ए द्रव्य भावथी जाणीनेजी, यथोचित करे संयम संचरे......... विजय लक्ष्मीसूरिकृत वीस स्थानक पूजा २. अनाहतलयोत्पन्नसुखं –(योगप्रदीप) ३. जूझो ज्ञानसार अष्टक बीजं । ४. यथा यथा समाध्याता, लप्स्यते स्वात्मनि स्थितिम् । समाधिप्रत्ययाश्चास्य, स्फुटिस्यति तथा तथा ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ . श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ अनाहतनाद पण घंटानादनी जेम धीमे धीमे प्रशांत अने मधुर बनतो आत्माने अमृत समान सुखनो दिव्य आस्वाद करावे छ ।' ___ अविच्छिन्न तैलधारा अने दीर्घघंटाना रणकार जेवा अनाहतवादनां लयने जे जाणे छे (अनुभवे छे) तेज खरेखर योगनो ज्ञाता छ । ___ा वातथी स्पष्ट समजाय छे के समाधिदशामां झीलता चारित्रधारी मुनिने 'अनाहतनादनो' स्पष्ट अनुभव थाय छे, अने तेना सतत अभ्यासथी अनुक्रमे सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म बनतु तेनु ध्यान, जेम जेम अत्यंत निर्मल बनतुजाय, तेम तेम शांतरसना दिव्य आस्वादनो वधुने वधु अनुभव थतो जाय छे, अने अंते ज्यारे निराकार एवा ब्रह्मरंध्रमां तेनो (अनाहतनो) लय थइ जाय छे, त्यारे साधकने शुद्धतम स्वरूपनो काइक अंशे साक्षात् अनुभव थाय छ । __ अात्मा जेटले अंशे चारित्रमोहनो उपशम के क्षयोपशम करे छे, तेटला अंशे तेने अप्रमत्तदशामां परमानंदनो अनुभव थइ शके छे, ए शास्त्रसिद्ध हकीकत छ। श्रीसिद्धचक्रयंत्रना जीजा वलयमां लब्धिधारी मुनिग्रो साथे अनाहतनु आलेखन छे, ते लब्धिधारी मुनियो, अनाहत अने चारित्र-(भाव समाधिरूप) नी एकता सूचवे छे, ते हकीकत नीचेना शास्त्रपाठोथी स्पष्ट थशे। ___ आत्मस्वभावमां स्थिरता एज चरित्र छ । जेम जेम स्वभावमां स्थिरता वधती जाय छे, तेम तेम गुणनी वृध्धि थाय छ । श्रीसिध्धभगवंतोमां पण स्थिरतारूप चरित्र मानवामां आव्यु छे । आत्म स्वभाव भां स्थिर थवु अने अन्यने स्थिर वनाववा ए भावसमाधि छे।.. कोइ पण दीन दुःखीने जोई अनुकम्पा उत्पन्न थवी ते द्रव्यसमाधि छ । सारणादिकना प्रयोगथी शिष्यादिक ने चारित्रधर्ममां स्थिर करवा ते भावसमाधि छ । श्रीसुत्रकृतांगना दशमा अध्ययनमां का छे, के जे धर्मध्यानादि वडे आत्मा मोक्षमा अथवा सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्गमां स्थिर बने छे, ते धर्मध्यानदि ज समाधि छ । अथवा मोक्ष के मोक्षमार्ग प्रत्ये जे धर्मवडे योग्य कराय ते धर्म समाधि छे । . १. घंटानादो यथा प्रान्ते, प्रशाम्यन् मधुरो भवेत् । अनाहतनादो.....तथा शान्तो विभाव्यताम् । २. तैलधारामिवाच्छिन्न', दीर्घघंटानिनादवत् । लयं प्रणव नादस्य, यस्तं वेत्ति स योगवित् ।। ३. चारित्रं स्थिरतारूपमतः सिद्धेष्वपि इष्यते। --ज्ञानसार, तृतीय अष्टक ४. अनुकंपा दीनादिकनी जे करेजी, ते कहिए द्रव्य समाधि । ५. सारणादिक करी धर्ममां स्थिर करेजी, ते लहीए भाव समाधि । समाधि-सम्यगाधीयते-व्यवस्थाप्यते मोक्षं तन्मागं वा प्रति येनात्मा धर्मध्यानादिना स समाधिः-धर्मध्यानादिकः । अथवा येन धर्मेण योग्यः क्रियते असौ धर्मः स समाधिः । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाहतनु स्वरूप अनाहत ए धर्मध्यान रूप छे। तेना वडे आत्मा सम्यग्दर्शनात्मक स्वस्वरूपमा स्थिर बने छे, माटे ते भाव समाधि छ । चारित्र प्रने समाधिनी प्राप्ति जे साधु दर्शन, ज्ञान, चारित्र अने तपरूप भावसमाधिमां स्थित बने, ते चारित्रमां स्थित होय छे अने जे चारित्रमा स्थित रहे छे, ते समाधिमां स्थिर बने छे, एम बने परस्पर एक बीजानी पुष्टि करनारां छे' । दर्शन समाधिमां स्थित साधक, जिनेश्वरनां वचनोथी भाक्ति हृदयवालो होवाथी कुमतना कुतर्कोथी भ्रमित थतो नथी । ___ज्ञान समाधिमां स्थित साधु जेम जेम अतिशय रसपूर्वक श्रुतनो अभ्यास करे छ, तेम तेम भावसमाधिमां अत्यंत स्थिर बनतो जाय छ, संवेग अने श्रध्धानी वृध्धि थवाथी अपूर्व प्रानंदनो अनुभव करे छ । चारित्र ममाधिमा स्थित साधु विषयसुखनी निस्पृहताना बले पोतानी पासे कांइ पण न होवा छतां दिव्यसुखनो मधुर प्रास्वाद माणे छ । तपसमाधिमां स्थित साधु घोरतप तपवा छतां तेने मनमां जरा पण खेद उत्पन्न थतो नथी, क्षुधा, तृषा आदि परिषहोनी यातनासो पण तेने उद्वेग पमाडती नथी । एटलु नहीं पण ध्यान आदि अभ्यंतर तपमा मस्त बनेलो ते मुनि सिध्ध भगवंतोनी जेम सुख-दुःखथी बाधित थतो नथी। आ प्रमाणे चारे समाधिमां लीन बनेलो मुनि सम्यक् चारित्रना पालनमां सुस्थिर बनतो जाय छ । द्वितीयअंगमां बतावेलु आ समाधिनु स्वरूप अनाहतना रहस्यभर्या स्वरूप ने समजवामां सहायक बने छ । • अनाहत पण भावसमाधि रूप छ अनाहतना लयमा स्थिर बनेलो साधु चारित्रमा स्थिर बने अने चारित्रमा स्थिर बनेलो १. भावसमाहि चउव्विह, दंसण नाणे तवे चरित्ते य । पाउसुवि समाहियप्पा, सम्मं चरणठ्ठिो साहू ॥१०६॥ --सूत्रकृतांग अध्ययन-१० नियुक्ति गाथा. टीका यः सम्यक्चरणे व्यवस्थितः स चतुर्विध समाहितात्मा भवति, यो वा भावसमाधिसमहितात्मा भाति स सम्यक्चरणे ब्यवस्थितो द्रष्टव्यः ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कापरड़ा स्वर्ग जयन्ती महोत्सव अन्य साधु अनाहतमां स्थिरता पामी शके छे / पा रीते बनेनी परस्पर व्याप्ति बताववा माटे ज श्रीसिध्धचक्र यंत्रना' तृतीयवलयमां आठे दिशाप्रोमां अनाहतनु स्थापन चारित्रधारी विशिष्ट लब्धिसम्पन्न महर्षिना मध्यमां थयेलुछे, एम स्पष्ट समजाय छ / तेमज प्रथमवलयमा 'अर्ह' साथे अनाहतनु स्थापन ए दर्शनसमाधिनु सूचक छ / एटले के 'अर्ह "ना ध्यान वडे सम्यग्दर्शन प्राप्त थाय छे / अने प्राप्त थयेल सम्यग्दर्शन निर्मल बने छे, तेथी दर्शनसमाधि सिद्ध थाय छ / सम्यग्दृष्टि प्रात्मा अनाहतमां स्थिर बनी शके छे / बीजा वलयमा स्वरादि साथे अनाहननु स्थापना ए ज्ञानसमाधिने सूचवे छ / त्रीजा वलयमां लब्धिवंत चरित्रधारी महर्षिो साथे करवामां आवेलु अनाहतनु स्थापन ए चारित्रसमाधि अने तपसमाधिने सूचवे छ / / समाधिनो भगवद्गीता साथे समन्वय भगवद्गीतामा का छे के: इन्द्रिय संसर्गथी भ्रममां पडेली बुद्धि ज्यारे शास्त्रना विविध प्रकारनां वाक्यो श्रवणकरी, स्थिर थशे त्यारे ज सर्व प्रकारनी योगस्थिति साध्य थशे / समाधिमा रहेलो योगी ज स्थितप्रज्ञ कहेवाय ज्यारे मानवी मनमा रहेली सर्व कामनाप्रोने तजीने आत्म समाधिवडे प्रात्मामांज संतुष्ट बने छे, त्यारे ते स्थितप्रज्ञ कहेवाय छ / ' ___ सुख-दुःखमां पण समभाव राखनारो, राग, भय, अने क्रोध रहित मुनिनेज स्थिथप्रज्ञ कहेवामां आवे छ / सर्वविषयो प्रत्येनु ममत्व विराम पामवाथी जेने शुभाशुभ विषयो प्राप्त थवा छतां हर्ष के शोक थतो नथी, तेनी ज प्रज्ञा स्थिर बने छ / ____ काचबानी जेम पोतानी इच्छानुसार मनुष्य ज्यारे पोतानी इन्द्रियोने विषयोमाथी संहारी ले छे, (पाछी खेंची ले छे) त्यारे तेनी बुद्धि स्थिर थइ जाणवी / 1. अनाहतव्याप्तदिगष्टके यत्, सलब्धिसिद्धार्षिपदावलीनाम / 2. श्रतिविप्रतिपन्ना ते, यदा स्थास्यति निश्चलाः। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यति // 53 / / 3. प्रजहाति यदा कामान्, सर्वान पार्थ मनोगतान् / आत्मन्येवात्मना तुष्ट:, स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते // 55 / / 4. दुःखेष्वनुद्विग्नमना:, सुखेषु विगतस्पृहः / वीतरागभयक्रोधः, स्थितधीर्मुनिरुच्यते // 56 // 5. यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् / नाभिनंदति न द्वेष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठता // 57 // 6. यदा संहरते चायं, कुर्मोऽङ्गानि इव सर्वशः / इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता // 58 / /