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________________ अनाहतनु स्वरूप ४७ जोइए । परन्तु ज्यारे अनाहतनादनो प्रारम्भ थई गयो होय, ते वखते अह आदि अक्षरोनां ध्यान करवानो आग्रह राखवो न जोइए । केमके अक्षर ध्यान करतां 'अनाहत' ध्याननी शक्ति अनेकगणी अधिक छ । अनाहतनी कामरण शरीर पर थती असर ब्रह्मद्वारमा आत्मानो उपयोग स्थिर थवाथी आत्म-साक्षात्कारमा प्रतिबंध करनार कर्मरूपी कपाट (द्वार) उघडी जाय छे, अने अनुपम आनन्दनो अनुभव प्रत्यक्ष थतो होवाथी जन्म, जरा अने मरणनी भीति दूर भागी जाय छ। समग्र शरीरमां आनंदमय स्वरूपे व्यापीने रहेल अात्माना प्रत्यक्ष दर्शन थायछे । सच्चिदानंदमय मूर्तिनां प्रेमपूर्वक दर्शन करी चेतना (बुध्धि) अात्मा साथे लयलीन बनी, जाय छे ।' - तैलधारानी जेम अविच्छिन्नपणे चालता अनाहत नादना प्रवाह वडे अनेक कर्मवर्गणामोनो अने तेथी उत्पन्न थतां तीव्र रागद्वेषनी ग्रंथिनो भेद थई जवाथी सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय छ। अनाहतनादनी प्रात्मा उपर थती असर अस्खलित गतिए चालतो नदीनो प्रवाह कोईथी पण अटकावी शकातो नथी, तेम अविच्छिन्न गतिए चालतु ध्यान ज्यारे कोई पण प्रकारनां संकल्प विकल्पथी बाधित थतु नथी, त्यारे ते अनाहत कहेवाय छे । अने ते समये आत्मामां पण समतारसनो धोध वहे छे अने सर्वजीवो उपर समता-शमभाव प्रगटे छे ।' परमयोगिराज श्रीपानन्दघनजी महाराजनी अनुभवात्मक वाणीनी सरखामणी करवाथी अनाहतनु रहस्य सरलताथी समजी शकाय छे । तेश्रोश्री फरमावे छे के छल्ला पुद्गल परावर्तमां भवपरिणतिनो परिपाक थवाथी 'अहं' नुध्यान प्रथम त्रण करण (यथाप्रवृत्ति करण, अपूर्णकरण, १. खलत कपाट घाट निज पायो, जनम जरा भय भीति भगीरी । काच शकल दे चितामणि ले, कुमति कुटिलाक़ सहज ठगीरी । व्यापक सकल स्वरूप लख्यो इम, जिम नभमां मग लहत खग़ीरी । चिदानंद पानंद मूरति निरख प्रेमभर बुद्धि थगीरी। -चिदानंदजी महाराज २. लब्धे स्वभावे कण्ठस्थ-स्वर्णन्यायाद्भमक्षये । राग द्वेषानुपस्थानात्, समतास्यादनाहता ॥२४२॥ जगज्जीवेषु नो भाति, द्वविध्यं कर्मनिर्मितम् । यदाशुद्धनयस्थित्या, तदासाम्यमनाहतम् ॥२४३॥ -अध्यात्मसार
SR No.249684
Book TitleAradhak Banvano Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherBhadrankarvijay
Publication Year
Total Pages64
LanguageGujarati
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size5 MB
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