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- आराधक बनवीनो मार्ग
अरिहंत ने सिद्ध वीतराग स्वरूप छे । साधुनु निर्ग्रन्थस्वरूप छे अने केवलिकथित धर्म दयामय स्वरूप छे । धर्म ए ध्रुव छे, नित्य अनंत ने सनातन छे । तेनुं प्रधान लक्षण दया छे ।
दयामा पोताना दुःखना द्वेष जेटलो ज द्वेष बीजानां दुःखो प्रत्ये पण जागे छे । पोताना सुखनी इच्छा जेटली ज इच्छा बीजाना सुखो प्रत्ये पण उत्पन्न थाय छे । ए इच्छा रागा - त्मक होवा छता परिणामे रागने निर्मूल करनारी छे ।
दयामां बीजा बधानां दुःखो प्रत्ये पोताना दुःख जेटलो ज द्वेष छे । छतां ते द्वेष, द्वेषवृत्ति ने अंते निर्मूल करे छे । जेम कांटाथी ज कांटो नीकले छे अने अग्निथी अग्नि शमे छे तथा विषथी विष नाश पामे छे, ए न्याये रागद्वेषनी वृत्ति रूपी कांटाने काढवा माटे सर्व जीवोना सुखनो राग अने सर्व जीवोना दुःखनो द्वेष अन्य कांटानु काम करे छे ।
अप्रशस्त कोटिना राग द्वेषरूपी विषने शमाववा माटे बीजा विषनुं काम करे छे । स्वजतना सुख विषयक राग अने स्वजातना दुःख विषयक द्वेषरूपी आर्त्तध्याननी अग्निने बुझाववा माटे सर्वजीवोना सुखनी अभिलाषारूपी राग अने सर्व दुःखी जीवोना दुःख प्रत्येनो द्वेष धर्मध्यान रूपी अग्निनी गरज सारे छे ।
धर्मवृक्षना मूलमां दया छे तेथी धर्मवृक्षना फलमां पण दया ज प्रकटे छ
दया लक्षण धर्म ए रीते प्रशस्त रागद्वेषनुं शल्य दूर करवामां साधनरूप बनी, जीवने सदाने माटे रागद्वेष रहित वीतराग अवस्था पमाडनार थाय छे ।
वीतराग अवस्था अवश्य सर्वज्ञता अने सर्वदर्शिता अपावनारी होवाथी दया प्रधान धर्म, सर्वज्ञता ने सर्वदशिताने पमाडनार पण थाय छे । दया छे प्रधान जेमा एवो केवलि.कथित धर्म जे कोई त्रिकरणयोगे यावज्जीवित प्रतिज्ञा पूर्वक साधनारा छे, तेस्रो साधुनिर्ग्रन्थ गणाय छे। रागद्वेषनी गांठथी घणा छूटेला होवाथी अने शेष अंशथी स्वल्प कालमां ज अवश्य छुटनारा होवाथी ते पण शरण्य छे ।
निर्ग्रन्थ अवस्था वीतराग अवस्थाने अवश्य लावनारी होवाथी ते प्रच्छन्न वीतरागता ज छे । दया प्रधान धर्मनुं प्रथम फल निर्ग्रन्थता छे अने अंतिम फल वीतरागता छे । क्षयोपशम भावनी दयानुं परिपूर्ण पालन ते निर्ग्रन्थता छे अने क्षायिक भावनी दयानुं प्रकटीकरण वीतरागता छे ।
निर्ग्रन्थता ( साधु धर्म ) ए प्रयत्न साध्य दयानुं स्वरूप छे अने वीतरागता ए सहज साध्य दयामयता छे । दया सर्वमां मुख्य छे, पछी ते धर्म हो के धर्मने साधनारा साधु हो के साधुपणाना फलस्वरूप अरिहंत के सिद्ध परमात्मा हो ।