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________________ ६२ . श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ अनाहतनाद पण घंटानादनी जेम धीमे धीमे प्रशांत अने मधुर बनतो आत्माने अमृत समान सुखनो दिव्य आस्वाद करावे छ ।' ___ अविच्छिन्न तैलधारा अने दीर्घघंटाना रणकार जेवा अनाहतवादनां लयने जे जाणे छे (अनुभवे छे) तेज खरेखर योगनो ज्ञाता छ । ___ा वातथी स्पष्ट समजाय छे के समाधिदशामां झीलता चारित्रधारी मुनिने 'अनाहतनादनो' स्पष्ट अनुभव थाय छे, अने तेना सतत अभ्यासथी अनुक्रमे सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म बनतु तेनु ध्यान, जेम जेम अत्यंत निर्मल बनतुजाय, तेम तेम शांतरसना दिव्य आस्वादनो वधुने वधु अनुभव थतो जाय छे, अने अंते ज्यारे निराकार एवा ब्रह्मरंध्रमां तेनो (अनाहतनो) लय थइ जाय छे, त्यारे साधकने शुद्धतम स्वरूपनो काइक अंशे साक्षात् अनुभव थाय छ । __ अात्मा जेटले अंशे चारित्रमोहनो उपशम के क्षयोपशम करे छे, तेटला अंशे तेने अप्रमत्तदशामां परमानंदनो अनुभव थइ शके छे, ए शास्त्रसिद्ध हकीकत छ। श्रीसिद्धचक्रयंत्रना जीजा वलयमां लब्धिधारी मुनिग्रो साथे अनाहतनु आलेखन छे, ते लब्धिधारी मुनियो, अनाहत अने चारित्र-(भाव समाधिरूप) नी एकता सूचवे छे, ते हकीकत नीचेना शास्त्रपाठोथी स्पष्ट थशे। ___ आत्मस्वभावमां स्थिरता एज चरित्र छ । जेम जेम स्वभावमां स्थिरता वधती जाय छे, तेम तेम गुणनी वृध्धि थाय छ । श्रीसिध्धभगवंतोमां पण स्थिरतारूप चरित्र मानवामां आव्यु छे । आत्म स्वभाव भां स्थिर थवु अने अन्यने स्थिर वनाववा ए भावसमाधि छे।.. कोइ पण दीन दुःखीने जोई अनुकम्पा उत्पन्न थवी ते द्रव्यसमाधि छ । सारणादिकना प्रयोगथी शिष्यादिक ने चारित्रधर्ममां स्थिर करवा ते भावसमाधि छ । श्रीसुत्रकृतांगना दशमा अध्ययनमां का छे, के जे धर्मध्यानादि वडे आत्मा मोक्षमा अथवा सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्गमां स्थिर बने छे, ते धर्मध्यानदि ज समाधि छ । अथवा मोक्ष के मोक्षमार्ग प्रत्ये जे धर्मवडे योग्य कराय ते धर्म समाधि छे । . १. घंटानादो यथा प्रान्ते, प्रशाम्यन् मधुरो भवेत् । अनाहतनादो.....तथा शान्तो विभाव्यताम् । २. तैलधारामिवाच्छिन्न', दीर्घघंटानिनादवत् । लयं प्रणव नादस्य, यस्तं वेत्ति स योगवित् ।। ३. चारित्रं स्थिरतारूपमतः सिद्धेष्वपि इष्यते। --ज्ञानसार, तृतीय अष्टक ४. अनुकंपा दीनादिकनी जे करेजी, ते कहिए द्रव्य समाधि । ५. सारणादिक करी धर्ममां स्थिर करेजी, ते लहीए भाव समाधि । समाधि-सम्यगाधीयते-व्यवस्थाप्यते मोक्षं तन्मागं वा प्रति येनात्मा धर्मध्यानादिना स समाधिः-धर्मध्यानादिकः । अथवा येन धर्मेण योग्यः क्रियते असौ धर्मः स समाधिः ।
SR No.249684
Book TitleAradhak Banvano Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherBhadrankarvijay
Publication Year
Total Pages64
LanguageGujarati
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size5 MB
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