Book Title: Aradhak Banvano Marg
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Bhadrankarvijay

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Page 64
________________ श्री कापरड़ा स्वर्ग जयन्ती महोत्सव अन्य साधु अनाहतमां स्थिरता पामी शके छे / पा रीते बनेनी परस्पर व्याप्ति बताववा माटे ज श्रीसिध्धचक्र यंत्रना' तृतीयवलयमां आठे दिशाप्रोमां अनाहतनु स्थापन चारित्रधारी विशिष्ट लब्धिसम्पन्न महर्षिना मध्यमां थयेलुछे, एम स्पष्ट समजाय छ / तेमज प्रथमवलयमा 'अर्ह' साथे अनाहतनु स्थापन ए दर्शनसमाधिनु सूचक छ / एटले के 'अर्ह "ना ध्यान वडे सम्यग्दर्शन प्राप्त थाय छे / अने प्राप्त थयेल सम्यग्दर्शन निर्मल बने छे, तेथी दर्शनसमाधि सिद्ध थाय छ / सम्यग्दृष्टि प्रात्मा अनाहतमां स्थिर बनी शके छे / बीजा वलयमा स्वरादि साथे अनाहननु स्थापना ए ज्ञानसमाधिने सूचवे छ / त्रीजा वलयमां लब्धिवंत चरित्रधारी महर्षिो साथे करवामां आवेलु अनाहतनु स्थापन ए चारित्रसमाधि अने तपसमाधिने सूचवे छ / / समाधिनो भगवद्गीता साथे समन्वय भगवद्गीतामा का छे के: इन्द्रिय संसर्गथी भ्रममां पडेली बुद्धि ज्यारे शास्त्रना विविध प्रकारनां वाक्यो श्रवणकरी, स्थिर थशे त्यारे ज सर्व प्रकारनी योगस्थिति साध्य थशे / समाधिमा रहेलो योगी ज स्थितप्रज्ञ कहेवाय ज्यारे मानवी मनमा रहेली सर्व कामनाप्रोने तजीने आत्म समाधिवडे प्रात्मामांज संतुष्ट बने छे, त्यारे ते स्थितप्रज्ञ कहेवाय छ / ' ___ सुख-दुःखमां पण समभाव राखनारो, राग, भय, अने क्रोध रहित मुनिनेज स्थिथप्रज्ञ कहेवामां आवे छ / सर्वविषयो प्रत्येनु ममत्व विराम पामवाथी जेने शुभाशुभ विषयो प्राप्त थवा छतां हर्ष के शोक थतो नथी, तेनी ज प्रज्ञा स्थिर बने छ / ____ काचबानी जेम पोतानी इच्छानुसार मनुष्य ज्यारे पोतानी इन्द्रियोने विषयोमाथी संहारी ले छे, (पाछी खेंची ले छे) त्यारे तेनी बुद्धि स्थिर थइ जाणवी / 1. अनाहतव्याप्तदिगष्टके यत्, सलब्धिसिद्धार्षिपदावलीनाम / 2. श्रतिविप्रतिपन्ना ते, यदा स्थास्यति निश्चलाः। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यति // 53 / / 3. प्रजहाति यदा कामान्, सर्वान पार्थ मनोगतान् / आत्मन्येवात्मना तुष्ट:, स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते // 55 / / 4. दुःखेष्वनुद्विग्नमना:, सुखेषु विगतस्पृहः / वीतरागभयक्रोधः, स्थितधीर्मुनिरुच्यते // 56 // 5. यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् / नाभिनंदति न द्वेष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठता // 57 // 6. यदा संहरते चायं, कुर्मोऽङ्गानि इव सर्वशः / इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता // 58 / /

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