________________
अनाहतनु स्वरूप
आत्माने परमशांतिनो अनुभव थाय छ। प्रा रीते 'अनाहत' नादना अभ्यास वडे लक्ष्यमाथी अलक्ष्यमां जइ शकाय छ । अलक्ष्यमां निश्चल मनवाला मुनिमोने सर्व प्रकारनी लब्धिप्रो प्रगटे छ।
ज्ञानार्णवनां २८मा प्रकरणमा पदस्थ ध्यानना अधिकारमां पण 'अनाहत' सबंधी हकीकत उपर प्रमाणे ज बतावी छ । त्यां पण 'अह" ना ध्याननी प्रक्रिया बताव्या पछी ज 'अनाहत' नुस्वरूप विस्तारथी बताव्यु छ। तेमज 'अनाहत' नु शिव (एतत्तत्त्वं शिवाख्यं वा) एवु बीजु नाम पण बताव्युछे । ते उपरथी समजी शकाय छे के अनाहतनादनु ध्यान ए जीवमांथी शिव थवानी महान रहस्यात्मक प्रक्रिया छ ।
- योगनी दृष्टिए अनाहत 'अनाहत' नाद ए प्रशस्त ध्यानना सतत अभ्यास द्वारा प्रगटेली एक महान आत्मशवित 'छे, माटे ते आत्मसाक्षात्कारनो द्योतक छ। योगसाधनामां तेनी विशिष्ट महत्ता छ । अनाहतनादना प्रारंभथी साधकने आत्मदर्शन थवानी पूर्ण श्रद्धा प्रगटे छे । तेनो मंगल प्रारंभ सविकल्प ध्यानना सतत अभ्यासथी थाय छे । अने ते वखते ध्याता, ध्येय अने ध्याननी एकता सिद्ध थाय छ । तेनी मधुर ध्वनिनां श्रवणथी आत्मा अानंदमां तरबोल बनी जाय छ । का छे के:
"तुज मुज अंतर अंतर भांजशे, वाजशे मंगलतूर ; __ जीव सरोवर अतिशय वाधशे, आनंदघन रसपूर ।" योगप्रदीपमां 'अनाहत' नादनु स्पष्ट स्वरूप प्रा प्रमाणे बताव्यु छे:
"परमानन्दास्पदं सू मं, लक्ष्यं स्वानुभवात् पर।
अधस्तात् द्वादशांतस्य ध्यायेन्नादमनाहतम् ॥" गाथार्थ-परमानंदनु स्थान, अत्यंत सूक्ष्म, स्वानुभवगभ्य, अनुपम एवा अनाहतनादनु ध्यान ब्रह्मरंध्रनी नीचे हमेशां करवु । श्लोक-११५ ।
अविच्छिन्न तेलनी धारा जेवा, मोटा घंटना रणकार जेवा, प्रणवनाद (अनाहतनाद) ना लयने जे जाणे छे, अनु भवे छे, ते खरेखरो योगनो जाणकार छ । श्लोक-११६ । - अनाहतनादने घंटनाद साथे सरखाववान कारण ए छे के जेम धीमे धीमे शांत थतो घंटनो नाद अंतमां अत्यंत मधुर बने छे, तेम 'अनाहत' नाद पण धीमे धीमे शांत थतो अने अंते अत्यंत मधुर बनतो आत्माने अमृत रसनो आस्वाद करावे छ । श्लोक-११७ ।
प्रा त्रण श्लोको संक्षेपथी 'अनाहत' नादनु स्वरूप, उद्गमस्थान, तैलधारा तथा