Book Title: Aradhak Banvano Marg
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Bhadrankarvijay

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Page 48
________________ श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ अनिवृत्ति करण) द्वारा ग्रंथिभेद करी सम्यक्त्व प्रगटावे छे । तेथी मिथ्यात्व अने तीव्र रागद्वेषादि दूषणो दूर थाय छे । अने पछी शास्त्र श्रवणथी दिव्य दृष्टि खूले छे । पाप प्रणाशक सद्गुरुना गाढ परिचयथी अने तेमनी पासे अध्यात्मग्रंयोनां रहस्यो मेलवी तेन उपर नयविक्षेपवडे चिंतन, मनन अने परिशीलन करवाथी ते दिव्यदृष्टि विकसित बनती जाय छे अने अनाहत-अबाधित समता प्रगटे छ ।' ___ ध्यान वखते कुंभनी प्राकृतिवाला आ यंत्रने आपणा शरीरमा स्थापन करवामां आवे तो 'अर्ह " ए पद नाभिनां स्थाने आवे छे । अनाहतनादनु उद्गमस्थान पण नाभिमंडळ ज होवाथी प्रथम त्यां ज ध्यान-करवानुं सूचन रहस्यभयुं छे । जैन शास्त्रनी दृष्टिए प्रात्माना असंख्य प्रदेशोमांथी आठ रूचक प्रदेशो, जे 'गोस्तन' ना आकारे नाभिमां ज रहेला छ। ते प्रदेशो आवरण (कर्म) रहित होवाथी सुख अने आनंदथी पूर्ण छ । ते प्रदेशोमां ध्यान द्वारा प्रवेश करवा माटे ज जाणे नाभि प्रदेश.नां स्थाने 'अह” नुं ध्यान करवानुं विधान कयु होय, एम अनुमान थाय छे।। ॐ पंचपरमेष्ठि वाचक छे अने ह्री द्वारा चोवीस तीर्थंकरोतुं ध्यान थई के छ ।' स्वरो ए श्रुतज्ञाननु मूळ छ। आ त्रणेनी साथे अर्ह ना ध्यान विधान ए सूचवे छे के पांचे परमेष्ठि भगवंतोनी भक्ति तथा श्रुतज्ञानना अभ्यास साथे करेलुं अर्ह नुं ध्यान ज अनाहतनाद उत्पन्न करी बाह्य आभ्यंतर ग्रंथीयोने भेदी, आत्मदर्शन कराववा समर्थ बने छ । परंतु तेमनी भक्ति तथा बहुमान विना अनाहतनादनी उत्पत्ति के प्रात्मदर्शन सिद्ध न थई शके। आ गुप्त रहस्यने वधारे स्पष्ट करवा माटे ज केन्द्रनी चारे बाजु आठ पांखडीअोमां सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, अने तप पदनुं प्रालेखन करवाने आव्यु छ । ए नवे पदोन अद्भूत माहात्म्य वर्तमान आगमोमां विस्तारथी वर्णवेलुं छे ।। सिद्धचक्रना प्रथम वलयमा रहेला नवपदोनी भक्ति अने ध्यान साधकने श्रुतनो पारगामी बनावे छ । ए जणाववा माटे अने नवपदोनें भक्तिपूर्वक घ्यान करवा इच्छता साधके श्रुतज्ञाननो पण आदर अने बहुमानपूर्वक अभ्यास करवो जोइए, ए जणाववा १. चरमावर्ते हो चरमकरणतथा रे, भवपरिणति परिपाक; दोषटले वली दृष्टि खूले भली रे, प्राप्ति प्रवचन वाक। परिचय पातकघातक साधुशरे, अकुशल अपचय चेत; ग्रंथ अध्यात्म श्रवण मनन करी रे, परिशीलन नय हेत । ---श्रीमानंदघनजी म. कृत संभवजिन स्तवन

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