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श्री कापरड़ा स्वर्ण जयन्ती महोत्सव ग्रन्थ
- ध्याता ज्यारे परमात्मा साथे तन्मय बने छे, त्यारे तेने अपूर्व आनंदनो अनुभव थाय छे, प्रा सत्य अनेक अनुभवी महात्माोना अनुभव वाक्योथी स्पष्ट समजाय छ। 'योगी ज्यारे जे वस्तुनु ध्यान करे छे, त्यारे ते ध्येय साथे तन्मय बनी जाय छे, एटले के ध्येयमय बनी जाय छे, माटे योगीए हमेशा आत्म विशुद्धि मेळववा वीतरागने ज ध्याववा जोइए, जेथी आत्मा पण वीतराग बनी शके। 'पा मारो आत्मा तेज निर्मल स्फटिक समान अने सर्व उपाधियोथी रहित परमात्मा छे, एवं ज्ञान आत्माने परमपद आपे छ ।
योगी अरिहंत परमात्मा साथे ध्याननां सतत अभ्यास वडे तन्मयेताने साधी स्वात्माने पण सर्वज्ञरूपे जूवेछ । एटले जे पा सर्वज्ञ भगवान छे ते हुं पोते ज छु।
सद्गुरुना परमभक्तिना प्रभावथी साधक ने आ जन्ममां ज श्री तीर्थंकर परमात्मानां दर्शन 'समापत्ति' ध्यान वडे थाय छे अने ते मोक्षनुं असाधारण कारण गणायु छ ।
"समापत्ति एटले शं? ध्याता ध्येय अने ध्याननी एकताने समापत्ति कहेवाय छ । प्रेटले परमात्मा आदि ध्येय साथे ध्यान वडे तन्मय बनवु एज 'समापत्ति' छे अने आ समापत्ति सिद्ध थतां ध्यानदशामां श्री तीर्थङ्कर परमात्मानां साक्षात् दर्शन थाय छ।
श्रीपाल कथामा श्री अरिहंतादि नवपदोनु तन्मयपणे ध्यान करवानु बतावी तेनु फल जणाव्युछे, के ध्याता ज्यारे रूपस्थ, पदस्थ पिंडस्थ ध्यानवडे अरिहंतनु ध्यान करी तेमां तन्मय बने छ, त्यारे ते पोताना आत्माने पण साक्षात् अरिहंत रूपे जूवे छ । रूपातीत स्वभाव वाला केवल ज्ञान, दर्शन अने आनंदयुक्त एवा सिद्ध 'परमात्मानु ध्यान करतो आत्मा पोते पण सिद्ध स्वरूपे बने छ, एमां संदेह करबो नहिं 'पा प्रमाणे नवपदो साथे आत्मानी एकता विचारवी।
१. यदाध्यायति यद योगी, याति तन्मयतां तदा ।
ध्यातव्यो वीतरागस्तन् नित्यमात्मविशुद्धये ॥ (योगसारः) . २. शुद्ध-स्फटिक-संकाशो, निश्लकश्चात्मनात्मनि ।
परमात्मेति स ज्ञातः, प्रदत्ते परमं पदम् ॥ ३. गुरुभक्तिप्रभावेन, तीथेकृद्दर्शनं मतम् ।
समापत्त्यादिभेदेन, निर्वाणकनिबन्धनम् ।। ४. समापत्तिनु विशेष स्वरूप षोडशक आदि ग्रंथोमा वर्णमायेलु छ । ५. अरिहंत पद ध्यातो थको........", रूपातीत स्वभाव जे.........