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अनाहतनु स्वरूप
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या प्रमाणे प्रथम वलयमां 'अह" ने अनाहतथी बेष्टित करवा द्वारा देवतत्त्वनी परमभक्ति पूर्वकना ध्यानथी अनाहतनादनो अविर्भाव थाय छे, एम बताव्यु । अने बीजा वलयमां स्वरादि वर्गोने अनाहतथी वेष्टित करवा वडे श्रुतधर्मनी भक्ति द्वारा अनाहतध्याननी उत्पत्ति बतावी। अने त्रीजा वलयमां लब्धिधारी, चारित्र सम्पन्न गुरुयोनी सेवा द्वारा अनाहतध्यानना विकासद्वारा प्रगटती समतानी प्राप्ति थवानु बतावीने आ शक्तिने जीवनभर टकावी राखवा माटे गुरुनी निश्रामा रहेवानुसूचव्यु छ । आ वलयनु बीजं नाम 'गुरुमंडल' राखवामां पण गुरुतत्त्नी विशिष्ट भक्ति करवाने सूचन छ ।'
परिहत्तनुं ध्यान समकितरूप, ज्ञानरूप अने चारित्ररूप छ अरिहंत परमात्मानु ध्यान ज सम्यग्दर्शन, ज्ञान, अने चारित्र छ । 'अह” ना ध्यानमां सम्यग् रत्नत्रयी समायेली छ । अर्ह नुध्यान ज अनुक्रमे अनाहतनादनारूपे अने अनाहतध्यानरूपे तेमज मनाहतसमतारूपे प्रगटे छे, तेथी ते सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररूप छ ।
अध्यात्म अने अनाहतनी सरखामणी
अध्यात्मर्नु लक्षण आत्माना शुद्ध स्वरूपने प्रगटाववा माटे जे कांइ क्रिया अनुष्ठान करवामां आवे तेने शास्त्रकारो अध्यात्म कहे छ- ..
____ 'निज स्वरूप जे किरिया साधे, ते अध्यातम कहिए रे' अनादि काळथी संसारमा परिभ्रमण करता जीवनो मोह ज्यारे मंद थाय छे, अर्थात् तेनु बल अल्प बने छे, त्यारे आत्माने अनुलक्षीने जे विशुद्ध धर्मक्रिया थाय, तेज अध्यात्म छे, अने ते सर्व योगोमां व्यापीने रहेलो छ । ते धर्मक्रिया अपुनबंधकादि प्रथम गुणस्थान कथी लइ १४ गुणस्थानक सुधी उत्तरोत्तर बधु ने वधु विशुद्ध बनती जाय छ ।
सिद्धचक्रना यंत्रमा 'अनाहत'नु त्रणे वलयोमा थयेलु पालेखन पण उत्तरोत्तर विशुद्ध बनती आत्मशक्तिनुज सूचन करे छे, अर्थात् 'अह" ना ध्यानथी अनुक्रमे विकास पामती प्रात्म विशुद्धि एज 'अनाहत' छ । खरेखर ते प्रात्मविशुद्धिनु वर्णन करवामां शब्द समर्थ नहीं होवाथी ज अनक्षर एवा 'अनाहत' द्वारा तेनो निर्देश करवामां आवेल छ ।
जेम अध्यात्मना नाम, स्थापना, द्रव्य अने भावरूप चार भेद बतावेला छे । तेम अनाहतना पण नाम, स्थापना, द्रव्य भने भाच बडे चार प्रकार जाणी लेवा । नामादि त्रण जो
१. मन्येपि ये केचन लब्धिमन्तस्ते सिद्धचके गुरुमंडलस्थाः ।