Book Title: Aradhak Banvano Marg
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Bhadrankarvijay

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ महामंत्रनी अनुप्रेक्षा ३७ कर नाम कर्मनो विपाकोदय) रूप होवाथी विंशतिस्थानक तप आदिनु आराधन सफळ मान्युं छे । जेने ते फळ थतु नथी ते अभव्योनु आराधन कष्ट मात्र फळवाळु छे अने ते तो आ भवचक्रमां अभव्योने पण दुर्लभ नथी। नवकारना प्रथम पदनु भावथी थतु आराधन आ रीते समापत्ति आदि भेद वडे सफळ थतु होवाथी अत्यंत उपादेय छ । धर्मध्यान भने शुक्लध्यान शास्त्रोमां आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय अने संस्थानविचयादि चार प्रकारनुं धर्मध्यान का छे । ते धर्मध्यान नवकारना प्रथम पदना नमो पदनी अर्थ भावना वडे साधी शकाय छे। नमस्कारमा प्रभुनी आज्ञानो विचार छे, रागादि दोषोनी अपायकारकता अने ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्मंना विपाकनी विरसतानो पण विचार छ । तथा चौद राजलोक रूप विस्तारवाळा आकाश प्रदेशोमां धर्मस्थाननी प्राप्तिनी अत्यंत दुर्लभताना विचाररूपी संस्थानविचय ध्यान पण तेमां रहेलुछे । . अरिहं पदमां शुक्ल ध्यानना प्रथम बे भेद पृथक्त्ववितर्क-सविचार अने एकत्ववितर्कअविचार तथा ताणं पदमां शुक्ल ध्यानना छेल्ला बे भेद सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति अने व्युपरतक्रिया-अनिवृत्तिनो विचार रहेलो छ । ए रीते अर्थ भावनापूर्वक प्रथम पदनो जाप धर्मध्यानना चारे पाया तथा शुक्लध्यानना चारे पायानो एक आथे संग्रह करावनार होई अति उज्ज्वळ लेश्याने पेदा करावनारो थाय छे , तेथी सात्मार्थी जीवोने अत्यंत उपादेय छे अने पुनः पुनः करवा लायक छ । तप, स्वाध्याय अने ईश्वर प्रणिधान योगशतकमां काछ के : सरणं भए उवाओ, रोगे किरिया विसम्मि मंतो य। ए ए वि पाव कम्मो वक्कमभेया उ तत्तेणं ॥१॥ सरणं गुरु य इत्थ, किरिया उ तवो त्ति कम्मरोगम्मि । मंतो पुण सज्झानो, __ मोहविसविणासणो पवरो ॥२॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64