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१० अप्पाणं सरणं गच्छामि
क्रम में आनन्द का अनुभव होने लगा। तीनों बातें साथ हों तो प्रक्रिया पूरी होती है। कोरी चेतना काम नहीं देगी। कोरी शक्ति काम नहीं देगी। कोरा आनन्द काम नहीं देगा। चेतना, शक्ति और आनन्द-तीनों का समन्वय होना चाहिए। चेतना के जागने पर संकल्प की शक्ति का जागरण होता है और फिर परम आनन्द की अनुभूति होने लगती है।।
प्रेक्षा-ध्यान की पद्धति विज्ञान से पूर्ण समर्थित है। 'बायोफीडबेक' की पद्धति इसका स्वयंभू प्रमाण है। प्रत्येक रोग के लिए इस पद्धति के यंत्र हैं। हृदय का ‘फीडबेक' चाहिए या रक्तचाप को नियंत्रित करने का 'फीडबेक' चाहिए-सब प्रकार के यंत्र प्राप्त हैं। इनका उपयोग कर रोगी नियंत्रण की दिशा में बढ़ता है। यह भी अभ्यास की एक पद्धति है। इससे सारा चित्र व्यक्ति के सामने आता है और वह अपने को बदल देता है। यह भी नियंत्रण का ही एक अभ्यास है। किसी भी वस्तु या प्रवृत्ति का त्याग कर देना ही पूरा नियंत्रण नहीं है। त्याग नियंत्रण का एक अंश है। नियंत्रण की पूर्णता तब होगी जब तीनों प्रक्रियाएं-चेतना को जगाने की प्रक्रिया, शक्ति को जगाने की प्रक्रिया और आनन्द को प्राप्त करने की प्रक्रिया साथ-साथ चलती चलेगी। प्रेक्षा का अभ्यास करने पर यदि आनंद की अनुभूति नहीं होती तो समझना चाहिए कि कहीं-न-कहीं त्रुटि रह गई है। संकल्प-शक्ति का प्रयोग किया और आनन्द की अनुभूति नहीं हुई तो समझना चाहिए कि कहीं त्रुटि अवश्य है। संकल्प-शक्ति का प्रयोग ठीक नहीं हुआ है। आनन्द है निष्पत्ति और आनन्द है कसौटी। आप अपने अभ्यास को इस कसौटी पर कसते जाइए कि मैं जो कर रहा हूं उससे मुझे आनन्द आ रहा है या नहीं। यदि आनन्द उपलब्ध हो रहा है तो प्रक्रिया ठीक है, अन्यथा कहीं-न-कहीं गड़बड़ी है। यह उसका थर्मामीटर है।
इस बात से एक भ्रान्ति न पनप जाए कि साधना के दस दिनों में ही अनन्त-चेतना जाग जाएगी, असीम शक्ति और असीम आनन्द प्रस्फुटित हो जाएगा। ऐसा नहीं हो सकता। किन्तु दस दिनों के अभ्यास से आनन्द का एक स्फुलिंग अवश्य ही प्रकट हो सकेगा, जिससे कि साधक को यह पूरा विश्वास हो जाए कि अभ्यास सही दिशागामी है। उपाधि
समाधि के यात्रा-पथ का तीसरा अवरोधक है-उपाधि। यह सबसे खतरनाक है। यह हमारी चेतना का सबसे भीतर का स्तर है।
होमियोपैथिक के प्रवर्तक डॉ. हनीमेन ने बहुत महत्त्व की सूचना दी है कि मन चेतना का आन्तरिक स्तर नहीं है। चेतना का आन्तरिक स्तर है-आवेग, क्रोध, मान, ईष्या, लालच आदि। हमारी वृत्तियां चेतना का आन्तरिक स्तर हैं। बीमारियां वहां से आती हैं। चरित्र भी वहीं से आता है। मस्तिष्क से चरित्र
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