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अनुसन्धान- ७५ ( १ )
३८वें बोल से ४५ वें बोल की तुलना :
प्रज्ञापनासूत्र के बारहवें पद में वाणव्यन्तरों की संख्या संख्येय सौ योजन वर्ग से विभाजित प्रतर के परिमाण वाली कही है । १९ प्रज्ञापनासूत्र की मलयगिरि टीका, जीवाजीवाभिगमसूत्र की मलयगिरि टीका में पर्याप्त चतुरिन्द्रियों की संख्या अंगुल के संख्यातवें भाग (वर्ग) से विभाजित प्रतर के परिमाण वाली कही है ।२०
तदनुसार ३८वें बोल वाणव्यन्तर देवों की अपेक्षा ४५वाँ बोल पर्याप्त चतुरिन्द्रिय संख्येयगुणा ही प्राप्त होता है । यथा
"संख्यात सौ योजन वर्ग : अंगुल के संख्यातवें भाग वर्ग = संख्यात" ३७वें बोल से ३८वें बोल को संख्यातगुणा अधिक बताया है । आगे ३८वें बोल से ४५वें बोल तक के प्रत्येक बोल को भी संख्येयगुणा अधिक माना है तथा ३८वें बोल से ४५ वाँ बोल भी संख्येयगुणा ही कहा है अर्थात् ३९वें, ४० वें, ४१वें, ४२वें, ४३वें, ४४वें तथा ४५ वें - इन सारे संख्यातगुणा अधिक के बोलों को मिलाने पर भी ३८वें बोल से ४५वाँ बोल असंख्येयगुणा नहीं होकर संख्येयगुणा ही रहता है । इन सात बोलों (३९ नं. से ४५ नं.) के 'संख्येयगुण' को मिलाने पर भी संख्येयगुणा ही रहता है तो ३७वें से ४०वें बोल में मात्र ३८वें, ३९वें एवं ४०वें - इन तीन 'संख्यातगुणा' को मिलाने पर 'असंख्यातगुणा' कैसे माना जाए? इन तीन में भी ३८वें से ३९ वें के संख्यातगुण का प्रमाण 'बत्तीस गुणा बत्तीस अधिक' माना है तथा ३९ वें से ४० वें बोल के संख्यातगुण का प्रमाण भी लगभग "संख्यात सौ योजन वर्ग : २५६ अंगुल वर्ग २२ अर्थात् इन दोनों संख्यातगुणों में संख्यात का परिमाण बहुत ही छोटा संख्यात है । ऐसी स्थिति में ३७वें बोल से ३८वें बोल के संख्यातगुण अधिक में 'संख्यात' को अत्यधिक बड़ा मानने की अतिक्लिष्ट कल्पना करने पर ही ३७वें बोल से ४०वाँ बोल असंख्यातगुणा हो सकता है ।
इस प्रकार की कल्पना तभी औचित्यपूर्ण कही जा सकती थी जब आगम स्पष्टतः सर्वत्र तिर्यञ्च स्त्री से देवों को असंख्येयगुण अधिक कहते, किन्तु चूँकि आगम पाठों में संख्येय एवं असंख्येय ये दोनों पाठ प्राप्त हो रहे हैं, टीकाकार प्रधानता से संख्येयगुण ही कह रहे हैं, जीवसमास आदि में भी संख्यातगुणा