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अनुसन्धान-७५ (१ )
वृत्तिमुद्रित पाठ भिन्न भिन्न होते थे, वहाँ वृत्ति- मुद्रित गाथापाठों को पाठान्तर के रूप में टिप्पणी में लिखे हैं, और वहाँ मु. या वृ. संज्ञा दी है । गाथा के क्रम में जहाँ भिन्नता हो, अथवा कोई गाथा चूर्णिग्रन्थ में हो पर वृत्तिग्रन्थ में नहि हो, तो इन विषयों की नोंध भी टिप्पणी में ली है।
वृत्तिकार ने कथाओं की वाचना कई जगह पर चूर्णि में से शब्दश: ले ली है। इन कथाओं को चूर्णि गत वाचना के साथ मिलाई हैं, और जहाँ पाठभेद मिले उन्हें टिप्पणी में रखे हैं ।
कहीं कहीं कठिन शब्दों के अर्थ भी टिप्पणी में दिये हैं, और विविध उद्धरणों के मूल स्थान खोजने का व देने का भी प्रयत्न किया है ।
चूर्णि में पद पद पर आगे-पीछे की गाथाओं का एवं द्वारगाथा का सम्बन्ध या सन्दर्भ आता रहता है । पाठक के लिए यह सन्दर्भ ढुंढना या याद रखना जरा कठिन होता है । हमने प्रायः ऐसे सर्व स्थानों पर, यथासम्भव, उन सम्बन्धित गाथाओं के क्रमाङ्क लिख दिये हैं । इससे पाठकों का काम सुकर हो
जाएगा।
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चूर्णिकार चूर्णि में कभी पूरी गाथा लिखते नहीं, ऐसी सामान्य शिस्त चूर्णियों में सर्वत्र देखी जाती है । वे सर्वत्र गाथा के प्रतीक ही लेकर चलते हैं । प्रस्तुत चूर्णि में चूर्णिकार ने सिर्फ दो गाथाएँ संपूर्ण लिखी हैं। एक, गा. २७६ 'छव्विह सत्तविहे या०', यह गाथा पञ्चकल्प - भाष्य की आधारभूत गाथा है । दूसरी, गा. २५७ ५८ के बीच 'कप्प - व्ववहाराणं०' गाथा । इस गाथा का कर्तृत्व, अमुक व्यक्ति के मत से, चूर्णिकार का है । हमारी राय में ऐसा मानना उचित या आवश्यक नहीं । इस बात पर अन्यत्र हमारे विचार हमने लिखे हैं। तो, चूर्णिकार सिर्फ गाथा - प्रतीक देते हैं । उन प्रतीकों के आधार पर, मुद्रित वृत्तिगत लघु-भाष्य की वाचना यहाँ ली है, और उन गाथाओं के पाठ में, चूर्णिसम्मत पाठ के अनुसार, यथास्थान परिवर्तन कर दिया है ।
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यद्यपि कई गाथाओं पर चूर्णिकार ने व्याख्या ही नहि की है, और 'कंठा' कहकर वे आगे बढ गये हैं । ऐसे स्थान पर चूर्णि सम्मत पाठ की कल्पना करना अशक्य ही था, अत: वहाँ तो मुद्रित गाथा - वाचना का ही यथातथ स्वीकार किया गया है।