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सप्टेम्बर - २०१८
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बृहत्कल्प और व्यवहार के कर्ता वे ही हैं, जिन्होंने निशीथभाष्य की संकलना की है, अत एव कल्प, व्यवहार और निशीथ इन तीनों के भाष्यकर्ता सिद्धसेन
हैं ऐसा माना जा सकता है।" - वही, पृ. ४३ । २१ "... क्षेमकीर्ति ने भाष्यकार के रूप में सिद्धसेन का नाम न देकर संघदास का
नाम क्यों दिया - इसका उचित स्पष्टीकरण अभी तो लक्ष्य में नहीं है। संभव है, भविष्य में कुछ सूत्र मिल सकें और उक्त प्रश्न का समाधान हो सके।" -
वही, पृ. ४३ । २२ "... स्वयं बृहत्कल्प और निशीथभाष्य में विशेषावश्यक की अनेक गाथाएँ
उद्धृत हैं । देखिए, निशीथ गा. ४८२३-२४-२५ विशेषावश्यक की क्रमशः गा. १४१-४२-४३ हैं । विशेषावश्यक की गा. १४१-४२ बृहत्कल्प में भी हैं गा. ९६४-६५ । ... अथवा कुछ देर के लिए यही मान लिया जाए कि जिनभद्र को भाष्य ही अभिप्रेत है, नियुक्ति नहीं; तब भी प्रस्तुत असंगति का निवारण यों हो सकता है कि सिद्धसेन को जिनभद्र का साक्षात् शिष्य न मानकर उनका समकालीन ही माना जाय । ऐसी स्थिति में सिद्धसेन के व्यवहारभाष्य को
जिनभद्र देख सकें, तो यह असंभवित नहीं ।" - वही, पृ. ४५ । २३ "... ऐसी स्थिति में जिनभद्र और भाष्यकार सिद्धसेन का पौर्वापर्य अंतिम रूप
में निश्चित हो गया है, यह नहीं कहा जा सकता। ... जिनभद्र के जीतकल्पभाष्य
और सिद्धसेन के निशीथभाष्य तथा व्यवहारभाष्य की संलेखनाविषयक गाथाएँ एक जैसी ही हैं। ... ये गाथाएँ किसी एक ने अपने ग्रन्थ में दूसरे से ली हैं या
दोनों ने ही किसी तीसरे से - यह प्रश्न विचारणीय है।" - वही, पृ. ४५ । २४. व्यवहारसूत्रम् - ३, सं. आ. मुनिचन्द्रसूरि, प्र. आ. ॐकारसूरि ज्ञानमन्दिर -
सूरत, ई. २०१० । व्यवहारभाष्य, प्र. जैन विश्वभारती - लाडनूं, ई. १९९६ (इसमें गा. १२२६)। बृहत्कल्पसूत्रम् - ५, पृ. १३४५-४६, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. जैन आत्मानन्द
सभा, भावनगर, ई. १९३८ । २६. बृहत्कल्पसूत्रम् - १, पृ. ११४, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. जैन आत्मानन्द
सभा, भावनगर, ई. १९३३ । २७. व्यवहारसूत्रम् - ४, पृ. ९९८-९९, सं. आ. मुनिचन्द्रसूरि, प्र. आ. ॐकारसूरि
ज्ञानमन्दिर, सूरत, ई. २०१० । २८. वही, पृ. १०३३ । २९. वही, पृ. १०६४-६५ ।