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सप्टेम्बर २०१८
गत गा. १९२ ( उद्देश ६) की ओर संकेत करते हैं । (बृहत्कल्पसूत्र : प्रास्ताविक, पृ. २२) । यदि सिद्धसेन व्यवहारभाष्यकार माने जाय तो इस प्रमाण के आधार से उन्हें जिनभद्र से पूर्व माना जा सकता है, पश्चात्कालीन या उनके शिष्यरूप नहीं माना जा सकता । अस्तु । सिद्धसेन जिनभद्र के शिष्य कैसे हुए यह प्रश्न यहाँ सहज ही उपस्थित हो सकता है । किन्तु इसका स्पष्टीकरण यह किया जा सकता है कि स्वयं बृहत्कल्प और निशीथभाष्य में विशेषावश्यकभाष्य की अनेक गाथाएँ उद्धृत हैं । देखिए, निशीथ गा. ४८२३२४-२५ विशेषावश्यक की क्रमशः गा. १४१-४२-४३ हैं । विशेषावश्यक की गा. १४१-४२ बृहत्कल्प में भी हैं - गा. ९६४-६५ । हाँ, तो जीतकल्पचूर्णि की प्रशस्ति के आधार पर यदि सिद्धसेन को आचार्य जिनभद्र का शिष्य माना जाए तब तो जिनभद्र के उक्त गाथागत 'ववहार' शब्द का अर्थ 'व्यवहारभाष्य' न लेकर 'व्यवहारनिर्युक्ति' लेना होगा। जिनभद्र ने केवल 'ववहार' शब्द का ही प्रयोग किया है, ‘भाष्य' का नहीं किया । और बृहत्कल्प आदि के समान व्यवहार - भाष्य में भी व्यवहारनिर्युक्ति और भाष्य दोनों एकग्रन्थरूपेण संमिलित हो गए हैं, अत एव चर्चास्पद गाथा को एकान्त भाष्य की ही मानने में कोई प्रमाण नहीं है । अथवा कुछ देर के लिए यदि यही मान लिया जाए कि जिनभद्र को भाष्य ही अभिप्रेत है, निर्युक्ति नहीं, तब भी प्रस्तुत असंगति का निवारण यों हो सकता है कि सिद्धसेन को जिनभद्र का साक्षात् शिष्य न मानकर उनका समकालीन ही माना जाय । ऐसी स्थिति में सिद्धसेन के व्यवहारभाष्य को जिनभद्र देख सकें, तो यह असंभवित नहीं ।" वही, पृ. ४५ ।
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सभा
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४७. बृहत्कल्पसूत्रम् २, पृ. ३०४, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. जैन आत्मानन्द भावनगर, ई. १९३६ ।
४८. विशेषावश्यकभाष्य - १, पृ. ४५, प्र. दिव्यदर्शन ट्रस्ट - मुंबई, सं. २०३९ । ४९. "जओ सुएऽभिहियं ' इसका अर्थ कोई यह कर सकता है कि गा. १४१ को विशेषावश्यक के कर्ता उद्धृत कर रहे हैं । किन्तु गा. १४१ का वक्तव्यांश श्रुत में कहा गया है, न कि स्वयं वह गाथा - ऐसा मानकर ही मैंने प्रस्तुत में १४१४२-४३ गाथाओं को विशेषावश्यक से निशीथ में उद्धृत माना हैं ।" निशीथसूत्रम् - पीठिकाखण्ड १ में प्रस्तावना, पृ. ४५, सं. उपा. अमरमुनि, मुनि कन्हैयालाल, प्र. अमर पब्लिकेशन, वाराणसी, ई. २००५ ।
५०. बृहत्कल्पसूत्रम् २, पृ. ३०४, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. जैन आत्मानन्द
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