Book Title: Anusandhan 2018 11 SrNo 75 01
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 216
________________ २०४ अनुसन्धान-७५(१) लेकर १७५ तक कडी आलोचना के साथ निरसन किया गया है। ऐसे तो अनेक स्थान हैं, जहाँ चूर्णिकार के प्रतिपादित मत की जिनभद्रगणि ने आलोचना या खण्डन किये हो । यदि इस चूर्णि के कर्ता बाद में हुए या वे जिनदासगणि हैं ऐसा स्वीकार करें तो, महाभाष्यकार निर्दिष्ट 'अन्ने' कौन है वह खोजना होगा, और महाभाष्य को अनुकूल या मान्य नहि थे ऐसे अभिप्रायों को जिनदासगणि ने मान्यता दी, ऐसा मानना पडेगा । यह तो बिल्कुल गलत होगा। यहाँ चूर्णि व चूर्णिकार को महाभाष्य से प्राचीन मानना ही उचित हल है। ७९. "परिजुण्णेसा भणिता सुविणे देवीए पुप्फचूलाए । नरगाण दंसणेण पव्वज्जाऽऽवस्सए वुत्ता ॥ ६०९ ॥ पंचकल्पभाष्ये आमां भाष्यकार पुष्पचूलाना दृष्टान्त माटे 'आवश्यक' नो निर्देश करे छे । आ दृष्टान्त आवश्यकनियुक्ति के भाष्यमां क्यांय नथी । आवश्यकचूर्णिमा छ । जो चूर्णि पहेलां आनी रचना होय तो आ निर्देश न होय । आथी सिद्ध थाय छे के आनी (पंचकल्पभाष्यनी) रचना आवश्यकचूर्णि पछी थई छे ।' ले. मुनि पुण्योदयसागर, पंचकल्पभाष्य-प्रस्तावना, पृ. ९, कपडवंज । ८०. ज्ञानांजलि, हिन्दी विभाग, पृ. ३७ । ८१. यह कृति अप्रकाशित है । हस्तप्रति के रूप में है। ८२. ज्ञानांजलि, हिन्दी विभाग, पृ. ७२-७३ । ८३. वही, पृ. २७। ८४. ज्ञानांजलि, गुजराती विभाग, पृ. ८५ । ८५. बृहत्कल्पसूत्रम् - ६, 'बृहत्कल्पसूत्र : प्रास्ताविक', पृ. ६५, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. जैन आत्मानन्द सभा - भावनगर, ई. १९४२ । ८६. बृहत्कल्पसूत्रम् - १, भाष्यगाथा - ६००, पृ. १७३, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. जैन आत्मानन्द सभा - भावनगर, ई. १९३३ । ८७. 'निःशेषसिद्धान्तविचारपर्यायः', पृ. ४०, सं. पं. लाभसागर गणि, प्र. जैनानंद पुस्तकालय - सूरत, सं. २०२९ । ८८. देखें गा. १२९१ एवं १३१३ । ८९. बृहत्कल्पचूर्णिः - गा. ६०१, पृ. १५५, 'भयत्ति वियारेहिं । ... एस विचारणा' । बृहत्कल्पवृत्तिः - १, पृ. १७३, गा. ६००, 'भज - विकल्पय, जानीहीत्यर्थः' । ९०. बृहत्कल्पसूत्रम् - २, पृ. २५६, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्र. जैन आत्मानन्द सभा - भावनगर, ई. १९३६ ।

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