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सप्टेम्बर - २०१८
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किन्तु इनका यह लेख ई. १९४२ का है। बाद में सन् १९६४ में उनके विचारों में जो परिवर्तन आया, वह इस प्रकार है : 'संघदासगणि क्षमाश्रमण (वि. ५ वीं शताब्दी) - ये आचार्य वसुदेवहिडि - प्रथम खण्ड के प्रणेता संघदासगणि वाचक से भिन्न हैं एवं इनके बाद के भी हैं । वे महाभाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के पूर्ववर्ती हैं"५४ ।।
अर्थात् १) यहाँ उन्होंने भाष्यकार का निश्चित समय दिखाया है, और २) वे महाभाष्यकार के पूर्ववर्ती हैं ऐसा भी स्पष्ट किया है। यद्यपि इन मुद्दों के लिए प्रमाण क्या ? यह वे स्पष्ट नहि करते हैं। और संघदासगणि दो हुए थे, और वसुदेवहिन्डीकार से भाष्यकार संघदासगणि परवर्ती थे ऐसा भी वे कहते हैं। प्रमाण तो इस विषय में भी उन्होंने नहि दिखाये।
हमारी राय में, जैसे उपर सिद्ध किया गया कि कल्प एवं व्यवहार - दोनों के भाष्य के प्रणेता एक ही हैं, तो वे जिनभद्रगणि के पूर्वभावी हैं ऐसा मानने में अब कोई द्विधा या संशय नहि रहता है। और उपर अमुक आन्तर प्रमाण भी तो दिये गए हैं।
दोनों संघदासगणि भिन्न हैं ऐसी मान्यता के पीछे, दो भिन्न पदवी के सिवा, कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं हुआ है। अतः सिर्फ दो समानार्थक पदवीवाचक शब्दों के भेदमात्र से दो भिन्न व्यक्तियों की कल्पना करने में कहा तक औचित्य है, यह भी सोचना होगा । दो बात हो सकती है : १) या तो 'वाचक' और 'क्षमाश्रमण' दोनों को पर्यायवाचक समझ लें । कहा भी है ही कि -
'वाई य खमासमणे, दिवायरे वायगे ति एगट्ठा।
पुव्वगयम्मी सुत्ते एए सद्दा पउंजंति ॥५५
अथवा, २) एक ही व्यक्ति को प्रथमतः 'वाचक' पद हो, बाद में 'क्षमाश्रमण' पद मिला हो, ऐसा भी संभवित है। जैसे निशीथचूर्णिकार ने अपने विषय में लिखा कि -
'गुरुदिण्णं च गणित्तं, महत्तरत्तं च तस्स तुढेहिं ।
तेण कयेसा चुण्णी, विसेसनामा निसीहस्स ॥५६ इन्हें प्रथम 'गणि' पद मिला, पश्चात् 'महत्तर' पद । क्या संघदासगणि के