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अनुसन्धान-७५(१)
है ६० । यह एक विलक्षण बात है । आवश्यकता के अनुसार गाथाएँ उद्धृत की जाय यह तो आम स्थिति है, मगर उन पर अलग से चूर्णि भी लिख दे, कल्पचूर्णि का सन्दर्भ उद्धत न कर दे, यह भी जरा विलक्षण महसूस होता है। हमारा अभिप्राय होता है कि कल्पचूर्णिकार स्वयं ही नन्दीचूर्णिकार हो तो ही वे ऐसी छूट ले सकते हैं।
तीसरी बात : कल्पचूणि में गा. २७० 'पज्जव पुव्वुद्दिट्ठा'६१ के विवरण में चूर्णिकार ने लिखा कि - ‘एयं नंदीए पुव्वुत्तं' । इसका अर्थ : 'यह बात (हमने) नन्दीसूत्र (की चूर्णि / विवरण) में पहले कह दी है' ऐसा होगा। अगर उन्हें यहाँ 'नंदी' से 'नन्दिसूत्र' (मूल ग्रन्थ) अभिप्रेत होता तो 'नंदीए उत्तं' अथवा 'जहा नंदीए' ऐसा कुछ लिखते, 'पुव्वुत्तं' न लिखते । इससे सिद्ध होता है कि नन्दीचूर्णिकार ही कल्पचूर्णि के प्रणेता है।
कल्पभाष्य गा. ८० की चूर्णि में भी 'जहा णंदीए आवस्सए मणवग्गणासु' ऐसा उल्लेख है। उपरोक्त विवरण के बाद लगता है कि यह पाठ भी नन्दीचूर्णिपरक ही है और दोनों चूर्णियाँ एककर्तृक हो ऐसा संकेत दे रहा है।
एक और बात : १६वीं - १७वीं शताब्दी में हुए तपागच्छीय उपाध्याय श्रीधर्मसागर गणि ने स्वरचित 'तपागच्छीय पट्टावली' ग्रन्थ में निशीथ, बृहत्कल्प, आवश्यक आदि की चूणि के कर्ता के रूप में जिनदासगणि महत्तर का नाम बताया है ६३ । इसका अर्थ है कि १७वीं शती तक तो कल्पचूर्णिकार के रूप में जिनदासगणि का नाम प्रख्यात एवं स्पष्ट या निश्चित होगा ही । यद्यपि पुण्यविजयजी ने, आवश्यकचूणि के सन्दर्भ में, धर्मसागरजी की बात को नकार दिया है ६, लेकिन वैसा करना ठीक नहि लगता है। धर्मसागरजी की बात पर भी जरा गौर तो करना ही चाहिए, जो यहाँ आगे हम करेंगे । यहाँ तो इतना ही कहना है कि धर्मसागरजी के अनुसार भी कल्पचूर्णि के कर्ता जिनदासगणि ही हैं।
एक ऐसी विचित्र भ्रान्ति भी चल रही है कि तदनुसार कोई कहते हैं कि 'बृहत्कल्पचूर्णिकार का नाम प्रलम्बसूरि है'६५ । ऐसा विधान करने का आधार है, 'जैन ग्रन्थावली' नामक प्राचीन सूचि का पुस्तक । उसमें, पूणे स्थित डेक्कन कोलेज के संग्रह की ताडपत्र-प्रति के प्रान्त भाग में ऐसा नामोल्लेख होने का सूचन