________________
१८६
अनुसन्धान- ७५ ( १ )
1
१९३ वाली गाथा उसके पश्चात् हो तो क्रमौचित्य होता । परन्तु व्याख्याकारों ने इसी क्रम से विवरण लिखा है, अतः परिवर्तन को अवकाश नहीं । बृहद्भाष्य में यह क्रम सुआयोजित है । यहाँ पहले 'अत्थं भासति अरहा०’ (५०७) आती है, और उसके अनुसन्धान की बात कहते कहते भाष्यकार 'उक्खित्तणाते०' (५११) गाथा लिख देते हैं । यद्यपि लघुभाष्य की गा. १९३ से बृहद्भाष्य की गा. ५११ का पाठ अंशत: भिन्न है, तो भी दोनों का निरूपण तो एक ही है ।
ऐसी तो अनेक विशेषताएँ इस बृहद्भाष्य में देखने मिल सकती हैं । और अभी तो बृहद्भाष्य का 'पीठिका - अंश' ही हमने पढा है । आगेवाला हिस्सा पढेंगे तब ऐसी अनेक विशिष्ट बातें सामने आएगी, ऐसा विश्वास के साथ कह सकते है ।
बृहद्भाष्य के पीठिकांश में कहीं कहीं पर अमुक अंश त्रुटित भी है । जैसे कि लघुभाष्य ३३६ में 'सेल-घण' आदि दृष्टान्त दिये हैं । उनमें से 'कुट' दृष्टान्त से लेकर 'मशक' दृष्टान्त तक का वर्णन करनेवाली गाथाएँ यहाँ नहि मिली हैं, यानी वह पाठ त्रुटित है ।
ऐसा अन्यत्र भी है । परन्तु ऐसी जगह में कभी मुद्रित लघुभाष्य में से त्रुटित अंश को लेकर [ ] में लिया है और वहाँ नीचे प्रायः टिप्पणी भी दी है। तो अमुक जगह पर त्रुटित पाठ के स्थान पर क्या पाठ होना चाहिए, एतद्विषयक सन्दिग्धता रह जाने के कारण, कुछ भी न लिखकर, वह स्थान खाली ही रखा
गया 1
पीठिका के प्रान्त भाग में लिखी पुष्पिका में गाथासंख्या " षोडश शतानि द्विनवतीनि' ऐसा वाक्य है। इससे स्पष्ट है कि बृहद्भाष्य-पीठिकांश का गाथासमूह १६९२ का था । लेकिन आज तो १६६२ ही उपलब्ध हैं। यदि उद्धरण की हुई गाथाओं (संस्कृत) को भी यहाँ क्रम दिया जाय तो कोई ५ या ७ गाथाएँ बढ सकती हैं। जैसे - बृहद्भाष्य गा. २१७ - १८ के मध्य में आती उद्धरणात्मक गाथा - 'वाग् - दिग्-भू-रश्मि-वज्रेषु ० ' इत्यादि ।
I
८) बृहद्भाष्य में प्राकृत का पुरातन स्वरूप महत्तम मात्रा में सुरक्षित रहा है महाराष्ट्री का प्रभाव यहाँ बहुत ही कम मात्रा में दिखाई देता है । यहाँ जो