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अनुसन्धान- ७
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मान्य पाठ की तुलना में बृहद्भाष्य के पास अधिक अच्छे व उपयुक्त पाठ हैं । इसका एक अर्थ हम ऐसा निकाल सकते हैं कि बृहद्भाष्यकार के पास कल्पलघुभाष्य की जो वाचना होगी वह अधिक शुद्ध, अर्थसंगत व प्रमाणभूत रही होगी ।
३) कोई प्रश्न आता है तो उसका समाधान सर्वत्र मिलता तो है, लेकिन कोई कोई स्थान में चूर्णि-वृत्ति के समाधान की अपेक्षा बृहद्भाष्य का समाधान अधिक वास्तविक एवं बुद्धिगम्य होता है। जैसे कि लघुभाष्य की गा. ४०६ (बृहद्भाष्य गा. ९२९) में प्रश्न आता है कि 'कम्हा उ बहुस्सुओ पढमं' । इसका चूर्णि-वृत्ति-प्रदत्त समाधान अस्पष्ट एवं अधूरा प्रतीत होता है । बृहद्भाष्य में दिया गया समाधान सुस्पष्ट, सम्पूर्ण एवं बुद्धिगम्य लगता है (गा. ९३०) ।
४) गाथा में निरूपणीय विषय की अवतरणिका या उत्थानिका देने की प्रथा शास्त्रों में होती है। यहाँ भी है। लेकिन चूर्णिकार की उत्थानिका कईबार अपूर्ण लगती है, या तो वे संकेत देकर छोड़ देते लगते हैं । ऐसे स्थानों में बृहद्भाष्य की उत्थानिका पदार्थ को इतना अच्छा खोल देती है कि तनिक भी गरबडी तो न रह पाए, अपि तु चूर्णि में नहि मिला हो ऐसा अर्थ भी मिल जाय । उदा. लघुभाष्य गा. ४०९ 'सुत्तं कुणति परिजितं' की उत्थानिका में चूर्णिकार लिखते हैं कि - 'आह, तिसु वरिसेसु अपुण्णेसु आयारे पढिए किं करेउ' । अब बृहद्भाष्य की उत्थानिका देखें -
" किं पुण तिवरिसमाती पकप्पसुत्तातिकप्पितो होति ।
आरेण ण भवति त्ती - भण्णति तिणमो णिसामेहि ॥ ९३४ ॥ दोनों का अन्तर स्वयंस्पष्ट है ।
५) कभी कभी ऐसा भी दिखाई दिया कि लघुभाष्य की कोई गाथा के शुद्ध पाठ तक और उसके अर्थ-तात्पर्य तक चूर्णि एवं वृत्ति नहि पहोंच पाई हैं। यथा - लघुभाष्य गा. ७२६ में 'पच्चंतुस्सारणे अवोच्छित्ती०' पाठ | यहाँ 'अ वोच्छित्ती' ऐसा पाठ समझा गया होता, पदच्छेद करके लिया गया होता, तो अर्थघटन समुचित हो पाता, और 'पच्वंत' का तात्पर्य 'प्रत्यन्त - ग्राम'
तक न जाता ।