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सप्टेम्बर
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महत्तर हैं ऐसा सिद्ध होता है । और यह तो प्रथमदर्शी प्रमाणों पर आधारित बात है। अधिक एवं बारीकी से इन चूर्णियों का अध्ययन होगा, तब हमारे द्वारा की गई उक्त कल्पनाएँ तो यथार्थ साबित हो सकती हैं, किन्तु अन्य चूर्णियों के तथ्य भी प्रकाश में आ जाएंगे ।
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२०१८
बृहत्कल्पबृहद्भाष्य के विषय में विमर्श
अब कुछ विचार बृहद्भाष्य के सन्दर्भ में -
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सामान्यत: परम्परा के अनुसार भाष्ययुग की पूर्वसीमा विक्रमसंवत् से पूर्व तीसरी सदी, एवं उत्तरसीमा विक्रम की ७वीं शताब्दी है, ऐसा माना जाता है परन्तु इस विषय में किसी संशोधक ने विचार किया हो ऐसा देखने में नहि आता । भाष्यकार के तौर पर, अभी तक तीन ही नाम हमें उपलब्ध हुए हैं : श्रीसंघदासगणि, श्रीसिद्धसेनगणि एवं श्रीजिनभद्रगणि । इनमें श्रीसंघदासगणि पाँचवी शताब्दी के हैं ऐसा श्रीपुण्यविजयजी का मत है । परन्तु इसके लिये उन्होंने कोई प्रमाण नहि दिया। हमें वह ढूँढना चाहिए ।
'पाक्षिकसूत्र' हमारे संघ में, 'आगम' न होने पर भी, आगम जैसा दर्जा पाया हुआ सूत्र है । आवश्यकसूत्र के बाद तुरन्त उसका स्थान रहा है; या तो ऐसा कहे कि वह आवश्यकसूत्र के साथ का सूत्र है तो भी गलत नहि होगा । 'आगमवाचनानुक्रम'८१ में संघमाणिक्यगणि ने लिखा है कि 'आवश्यकानन्तरं पाक्षिकसूत्रवाचनानुक्रमो ज्ञेय:' । इससे उक्त धारणा को पुष्टि मिलती है।
वैसे तो यह सूत्र प्राचीन है । लेकिन शायद इसमें पश्चात्काल में कुछ अंश प्रक्षिप्त हो, अथवा इसका पुनर्घटन या संकलन हुआ हो, ऐसा लगता है। इसमें जिन आगमों के नाम आते हैं उनमें 'नन्दी' का भी नाम है । अतः श्रीदेवर्धिगणि क्षमाश्रमण की वलभीवाचना के दौरान इसका संकलन व लेखन किया गया है ऐसा मानना चाहिए। तो ही इसमें 'नन्दी' का नाम आ सकता है, क्योंकि 'नन्दी' की रचना (या संकलना) तो देववाचक ने की है। और देववाचक ही देवर्धिगणि हैं ऐसा कई विद्वज्जनों का मत है ।
अब इस सूत्र में 'ससुत्ते सअत्थे सगंथे सनिज्जुत्तीए ससंगहणीए' ऐसा पाठ आता है । यहाँ 'भाष्य' का उल्लेख नहीं है । इससे ऐसा लगता है कि इस