Book Title: Anusandhan 2018 11 SrNo 75 01
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 186
________________ १७४ अनुसन्धान-७५(१) सूत्र के लेखन के समय तक 'भाष्य' की रचना नहि हुई होगी। यदि हुई होती तो यहाँ 'भाष्य' का भी उल्लेख अवश्य करते । यहाँ 'संग्रहणी' का उल्लेख हुआ है। संग्रहणी के प्रणेता आर्य कालक है, जिनका समय वीरात् ६०५ यानी वि.सं. २३५ लगभग का अंदाजा गया है। चूंकि आर्य कालक से पहले 'संग्रहणी' नहि थी, अथवा उसके होने का कोई प्रमाण प्राप्त नहि है, और 'पाक्षिकसूत्र' तो था ही; वह तो नियुक्ति-काल से भी पूर्व का, सूत्र-काल का है; इसलिए हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि 'संग्रहणी'-निर्माण-काल के बाद में ही कभी इस सूत्र का पुनः संकलन हुआ है, और वह अरसा वीरात् ९८० का अर्थात् वलभी वाचना का ही हो सकता है। मुनि पुण्यविजयजी ने भी लिखा है कि "आजना जैन आगमोमां एवा घणा घणा अंशो छे, जे जैन आगमोने पुस्तकारूढ करवामां आव्या त्यारे के ते आसपासमां उमेराएला के पूति कराएला छे'८५ । अतः भाष्य का समय वीरात् ९८० यानी वि.सं. ५१० के पहले का हो, पाँचवी शताब्दी हो, ऐसा मानना जल्दबाजी ही होगी। इसी तरह, स्वयं नन्दीसूत्र में भी, जहाँ आगमों का विवरण किया गया है वहाँ, ‘संखेज्जाओ णिज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ' ऐसा पाठ आता है। यहाँ भी भाष्य के बारे में एक शब्द भी नहीं है। अगर भाष्य होते तो वे क्यों न लिखते ?, पश्चात्कालीन 'संग्रहणी' का यदि समावेश किया जा सकता है तो पश्चाद्वर्ती 'भाष्य' का समावेश भी क्यों न होता ?, इसलिए यही मानना अधिक उचित होगा कि भाष्य की रचना ५१० के बाद की है, और इसलिए संघदासगणि का समय अथवा उनका भाष्यरचना-समय ५१० के बाद का ही हो सकता है। उनको ५ वीं शताब्दी के मानना ठीक नहि होगा। इतने विमर्श से स्पष्ट होता है कि भाष्ययुग की पूर्वसीमा ९८० या ५१० है, और उत्तरसीमा सातवीं शताब्दी (६३७) है। इस बात के परिप्रेक्ष्य में अब बृहद्भाष्य के समय के विषय में विचारणा करे : मुनि श्रीपुण्यविजयजी के मतानुसार, बृहद्भाष्य की रचना, चूर्णि एवं विशेषचूर्णि के भी बाद की है। क्योंकि कल्पलघुभाष्य की गाथा १६६१ में प्रतिलेखना के काल का निरूपण किया गया है । इस गाथा के विवरण में

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