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अनुसन्धान- ७५ (१)
चूर्णिकार ने उसी के आधार पर थोडे कम मतों को संगृहीत किये ।
मतान्तरों के कम-ज्यादा संग्रह को आधार बनाकर ही यदि 'यह पहला, यह बाद का' ऐसा निश्चय किया जाय तो, बृहद्भाष्य में 'हेट्ठिल्ला उवरिल्लाहिं०८६ गाथावाले प्रकरण में बहुत मतों या मतान्तरों का उल्लेख मिलता है, और कल्पवृत्तिकार उनमें से एक मत का भी उल्लेख नहि किया है - तो क्या इस बात को आधार बनाकर बृहद्भाष्य को वृत्तिकार से भी पश्चाद्वर्ती मान लेंगे ? |
कोई ऐसा भी तर्क उठा सकता है कि चूर्णि में बृहद्भाष्य का कोई उल्लेख नहि है, अत: वह पश्चात्कालीन है । इसके सामने ऐसा भी तर्क हो सकता है कि बृहद्भाष्य में चूर्णि के बारे में कोई निर्देश नहीं, इसलिए चूर्णि पश्चात् है और भाष्य पूर्व । वस्तुतः ऐसे अवास्तविक तर्कों का कोई मूल्य नहीं होता ।
विक्रम की १२वीं - १३वीं शताब्दी में हुए चन्द्रकीर्तिगणि नामक श्रमण ने ‘नि:शेषसिद्धान्त-विचारपर्याय' नामक ग्रन्थ रचा है । उसमें कल्पलघुभाष्य के एवं कल्पचूर्णि के पर्याय लिखे हैं । वहाँ ऐसा पाठ है : " भाष्ये 'भय सेवणाए धाउ' त्ति, भज् श्रिग् सेवायाम् धातुः '
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अब वृत्तिसंमत एवं चूर्णिसंमत भाष्य - वाचना में, यहाँ, ऐसा पाठ गाथा में हि है । जब कि बृहद्भाष्य में इस पाठ का विवरण है। इसका मतलब यह हुआ कि चन्द्रकीर्तिगणि के समक्ष एवं बृहद्भाष्यकार के समक्ष भाष्य की जो वाचना थी, उसमें यह पाठ था । किन्तु चूर्णिकार के सामनेवाली वाचना में यह पाठ नहि होगा, ऐसा हठात् मानना पडेगा । क्योंकि ऐसा पाठ होता तो वे व्याख्या भी करते ।
और इस गाथा में 'भज्' के दो अर्थ हैं : 'विचारेहिं' एवं 'सेवायाम्' | क्या चूर्णिकार के समक्ष इन दो अर्थवाली परम्परा भी नहि रही होगी ? | बृहद्भाष्य के कर्ता के पास दो अर्थ की परम्परा है, अत एव उन्होंने वैसी व्याख्या भी की है, जो कि चूर्णिकार ने और वृत्तिकार ने भी नहि की है । और इन दो अर्थों के बिना गाथार्थ पूर्ण नहि होता है ।
इसका मतलब इतना ही होगा कि चूर्णिकार को जहाँ जितना उचित व आवश्यक लगा उतना ही उन्होंने लिया व उतने अंश को ही व्याख्यायित किया । जब कि बृहद्भाष्य बृहद् - व्याख्यारूप है, अत: उन्होंने जहाँ विषय और प्रकरण के