________________
सप्टेम्बर - २०१८
१७५
चूर्णिकार ने एवं विशेषचूर्णिकार ने जितने आदेशान्तरों का उल्लेख किया है, उसकी अपेक्षा बृहद्भाष्य में नई नई अनेक अधिक मान्यताओं की बात की गई है। ये सभी मान्यताएँ हरिभद्रसूरि-कृत 'पञ्चवस्तुक' की स्वोपज्ञ वृत्ति में उपलब्ध होती हैं । इसका तात्पर्य हम निश्चित रूप से ऐसा निकाल सकते हैं कि बृहद्भाष्य के प्रणेता आचार्य, चूर्णिकार एवं विशेषचूर्णिकार के बाद में ही हुए हैं'५ ।
मुनिजी के इस मत के उपर जब सोचा तब कुछ समस्याएं खडी होने लगी - चूर्णिकार (जिनदास-गणि) का समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । विशेषचूर्णिकार तो चूर्णिकार के बाद के हैं । उनको आठवीं शती के उत्तरार्ध में रखने चाहिए, और चूर्णि और विशेषचूर्णि - दोनों के बीच में ४०-५० साल का अन्तर तो अवश्य होने का मानना चाहिए । बृहद्भाष्य उसके बाद का है ऐसा अगर मानों तो उसे जल्दी से जल्दी भी नवीं शताब्दी से पहले हम नहि रख पाएंगे। फलतः हमने उपर जो भाष्ययुग की उत्तर-सीमा आंकी, उससे पीछे दो या ढाई सौ साल तक भाष्ययुग को ले जाना पडेगा । यह किसी भी स्थिति में संभवित नहि लगता।
क्योंकि १) चूर्णियुग में भाष्य - आगमिक भाष्य लिखे गये हो ऐसा कोई निर्देश प्राप्य नहि है। २) एकबार गद्य व्याख्या शुरू हो गई, तो फिर पद्य व्याख्या लिखी जाय ऐसा प्राय: कहीं पर भी देखने नहि मिलता । यहाँ तो लघुभाष्य के उपर चूणि व विशेषचूणि जैसे दो दो गद्य विवरण लिखे जाने के बाद बृहद्भाष्य की रचना हुई हो ऐसा प्रतिपादन है ! । क्या ऐसा संभवित है ? । ३) यदि चूर्णि या विशेषचूर्णि पूर्वकालीन और बृहद्भाष्य उत्तरकालीन - ऐसा मान भी लें, तो भी इन दोनों के बीच का अन्तर, अधिक से अधिक, सौ साल का हो सकता है ।
और सिर्फ इतने काल में इतने सारे आदेशान्तर या मतान्तर पैदा हो गये, ऐसा मानना जरा मुश्किल सा लगता है।
___ हमारे अभिप्राय से ये 'मतान्तर' पहले से ही चले आते होंगे। उनमें से कुछ का संग्रह चूर्णि में हुआ, बृहद्भाष्यकार ने अधिक मतान्तरों का संग्रह किया। बाकी कम या ज्यादा संग्रह करने से, एक पूर्वकालीन और दूसरा पश्चात्कालीन - ऐसा मानना तर्कसंगत नहि लगता । बल्कि इससे ऊलटा तर्क भी किया जा सकता है कि बृहद्भाष्य में सभी प्रचलित मतों का समावेश हुआ था, और बाद में