________________
सप्टेम्बर - २०१८
१७१
पुव्वभणिताणि''७७ । ये निर्देश इनके द्वारा रचित आवश्यकचूर्णि की
ओर ही संकेत करते हैं, ऐसा मानना चाहिए। और ऐसे उल्लेख अनेक स्थल पर देखे जाते हैं । इनका क्या मतलब होगा? । यही कि इन्होंने
आवश्यकचूर्णि की रचना की है। २) यहाँ सवाल यह उठता है कि यदि वर्तमान में उपलब्ध आवश्यकचूर्णि
जिनदासगणि की हो, तो उसमें कहीं भी विशेषावश्यकमहाभाष्य का उल्लेख क्यों नहीं?, अपने सभी ग्रन्थ में उन्होंने महाभाष्य का आधार या संकेत दिया है, तो इसमें क्यों नहि ? । इसका अर्थ यही होगा कि
यह चूणि उनकी रचना नहि हो सकती। ३) एक और भी विचार उपस्थित हुआ है कि महाभाष्य में कई मत ऐसे
बताये गये हैं कि जिनका महाभाष्यकार ने खण्डन किया है या तो अस्वीकार किया है । अब विचित्रता यह है कि ये सभी मत आवश्यकचूर्णि में प्रतिपादित मिल रहे हैं !७८ । जिनदासगणि का समय तो जिनभद्रगणि के बाद का निश्चित है। वे स्वयं महाभाष्य को जगह जगह पर आधार बनाकर चले हैं। अब आवश्यकचूर्णि में वे ही महाभाष्यकार जिससे संमत न हो उन बातों या मतों को स्थान दे, यह तो कितना विचित्र-सा प्रतीत होता है ? ।
ये दो तर्क आवश्यकचूर्णि को जिनदासगणि की रचना मानने में बाधक हैं। और हमारी राय में यह सत्य भी है। उपलब्ध आवश्यकचूणि जिनदासगणि की नहि है - ऐसा ही मानना चाहिए।
__ अब पुनः प्रश्न उठेगा कि, तो वर्तमान में, वस्तुतः परम्परा से, आवश्यकचूर्णि जिनदासगणि की है ऐसी जो मान्यता है वह गलत ही हुई न?, और, तो, उपर जो व्यवहारचूर्णि के उल्लेखों का हवाला दिया है, उसका क्या करेंगे?, इस सवाल के जवाब में हमारी सोच ऐसी है -
__ आवश्यकसूत्र पर दो चूर्णियाँ लिखी गई हैं। एक पुरातन, जो आज उपलब्ध है, और जिनदासगणि के नाम से प्रचलित है वह, और दूसरी जो अलब्ध-अप्राप्त है मगर वास्तव में जिनदासगणि ने रची होगी वह।