Book Title: Anusandhan 2018 11 SrNo 75 01
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 181
________________ सप्टेम्बर - २०१८ १६९ हुआ है। उसके अनुसार वह प्रति सं. १३३४ में लिखी गई बृहत्कल्पचूर्णि की है ६६ । स्पष्टतया यह वाचनदोष के कारण पैदा हुआ भ्रम है। 'प्रलम्ब' नामक आचार्य कोई हुए नहीं, और ऐसा नाम हो भी नहि सकता । हाँ, बृहत्कल्प में 'प्रलम्बप्रकृत' नामक प्रकरण जरूर है, और प्रत के वाचक ने उसके 'प्रलम्ब' शब्द के साथ 'सूरि' को जोड दिया हो तो अशक्य नहीं । वस्तुतः बिना जांचपडताल किये इतिहास के ग्रन्थ में ऐसी भ्रमित करनेवाली बातें जोड देना - यह एक अपराध है। क्या इतिहास नई दन्तकथाएं पैदा करने का साधन है ? अस्तु । जिनदासगणि-रचित चूर्णिग्रन्थ कितने ? अब प्रसंगवश एक नये मुद्दे पर विमर्श करना है। हमारे दिमाग में एक प्रश्न उठ रहा है कि जिनदासगणि महत्तर ने कितनी चूणियों की रचना की थी? । श्रीपुण्यविजयजी के अनुसार उन्होंने तीन चूर्णियाँ बनाई हैं यह निश्चित है : १. नन्दीसूत्रचूर्णि, २. अनुयोगद्वारचूर्णि, ३. निशीथचूर्णि६७ । श्रीमोहनलाल मेहता के कथनानुसार, इन ३ के अतिरिक्त आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और सूत्रकृतांग की चूर्णियाँ भी इन्हीं की रचना हैं ऐसी परम्परागत मान्यता है ६८ । तो आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिजी के मत से जिनदासगणि ने ९ चूर्णियाँ बनाई थी, और उनका रचनाक्रम इस प्रकार है - नन्दी, अनुयोगद्वार, आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (यहा नाम ८ ही दिए है।) उल्लेखनीय है कि एक भी मन्तव्य में कल्प-व्यवहार की चूर्णि का उल्लेख नहि हुआ है। ___ यहाँ पर जिनदासगणि के द्वारा कितनी व कौन कौन ग्रन्थ पर चूर्णि लिखी गई थी, इस विषय में उपलब्ध होते कुछ प्रमाणों का विमर्श करना चाहिए१. व्यवहारचूर्णि में उल्लेख है कि 'पुव्वभणिया ओघनिर्युक्तौ कल्पे वा'७० । इससे प्रतीत होता है कि व्यवहारचूर्णिकार ने ओघनियुक्ति पर एवं कल्प पर चूर्णि लिखी है। व्यवहारचूणि का प्रारम्भ बिना मंगलाचरण के, इस प्रकार किया गया है - 'उक्तः कल्पः, अधुना व्यवहारस्य अवसरः प्राप्तः । तत्र कल्प-व्यवहारस्याऽयं २.

Loading...

Page Navigation
1 ... 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220