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सप्टेम्बर - २०१८
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हुआ है। उसके अनुसार वह प्रति सं. १३३४ में लिखी गई बृहत्कल्पचूर्णि की है ६६ ।
स्पष्टतया यह वाचनदोष के कारण पैदा हुआ भ्रम है। 'प्रलम्ब' नामक आचार्य कोई हुए नहीं, और ऐसा नाम हो भी नहि सकता । हाँ, बृहत्कल्प में 'प्रलम्बप्रकृत' नामक प्रकरण जरूर है, और प्रत के वाचक ने उसके 'प्रलम्ब' शब्द के साथ 'सूरि' को जोड दिया हो तो अशक्य नहीं । वस्तुतः बिना जांचपडताल किये इतिहास के ग्रन्थ में ऐसी भ्रमित करनेवाली बातें जोड देना - यह एक अपराध है। क्या इतिहास नई दन्तकथाएं पैदा करने का साधन है ? अस्तु ।
जिनदासगणि-रचित चूर्णिग्रन्थ कितने ?
अब प्रसंगवश एक नये मुद्दे पर विमर्श करना है। हमारे दिमाग में एक प्रश्न उठ रहा है कि जिनदासगणि महत्तर ने कितनी चूणियों की रचना की थी? ।
श्रीपुण्यविजयजी के अनुसार उन्होंने तीन चूर्णियाँ बनाई हैं यह निश्चित है : १. नन्दीसूत्रचूर्णि, २. अनुयोगद्वारचूर्णि, ३. निशीथचूर्णि६७ । श्रीमोहनलाल मेहता के कथनानुसार, इन ३ के अतिरिक्त आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन
और सूत्रकृतांग की चूर्णियाँ भी इन्हीं की रचना हैं ऐसी परम्परागत मान्यता है ६८ । तो आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिजी के मत से जिनदासगणि ने ९ चूर्णियाँ बनाई थी, और उनका रचनाक्रम इस प्रकार है - नन्दी, अनुयोगद्वार, आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (यहा नाम ८ ही दिए है।) उल्लेखनीय है कि एक भी मन्तव्य में कल्प-व्यवहार की चूर्णि का उल्लेख नहि हुआ है।
___ यहाँ पर जिनदासगणि के द्वारा कितनी व कौन कौन ग्रन्थ पर चूर्णि लिखी गई थी, इस विषय में उपलब्ध होते कुछ प्रमाणों का विमर्श करना चाहिए१. व्यवहारचूर्णि में उल्लेख है कि 'पुव्वभणिया ओघनिर्युक्तौ कल्पे वा'७० ।
इससे प्रतीत होता है कि व्यवहारचूर्णिकार ने ओघनियुक्ति पर एवं कल्प पर चूर्णि लिखी है। व्यवहारचूणि का प्रारम्भ बिना मंगलाचरण के, इस प्रकार किया गया है - 'उक्तः कल्पः, अधुना व्यवहारस्य अवसरः प्राप्तः । तत्र कल्प-व्यवहारस्याऽयं
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