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अनुसन्धान-७५(१)
सम्बन्धः - कप्पे आभवंतपच्छित्तं वुत्तं, ववहारे दाणपच्छित्तं वनव्वं । जं च कप्पे ण भणितं, तं ववहारे भण्णति । आलोयणविही ववहारे भण्णति । अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्य व्यवहाराध्ययनस्य...' । यहाँ प्रथम वाक्य से दोनों का एककर्तृकत्व सिद्ध हो सकता है । अगर अलग चूर्णिकार होते तो वे मङ्गलोपचार अवश्य करते । परन्तु वैसा नहीं किया गया है। जैसे 'कप्प-ववहार' एक सुयखंध के दो अध्ययन माने गये हैं, वैसे ही एक चूर्णिकार के द्वारा रची गई चूर्णि के दो विभाग हो कल्पचूणि एवं व्यवहारचूणि के नाम से जाने जाते हैं। संघमाणिक्यगणिकृत 'आगमवाचनानुक्रम' नामक कृति (हस्तलिखित ग्रन्थ : वि. सं. १५९८) में ऐसा उल्लेख है कि 'इति श्रीकल्प-व्यवहारचूर्णिः' । यह उल्लेख प्रमाणित करता है कि कल्प की एवं व्यवहार की - दोनों चूणि एकग्रन्थरूप थी,
और इससे दोनों के कर्ता एक होगे यह भी अनुमान किया जा सकता है। व्यवहारचूर्णि में ऐसा उल्लेख है कि "पूर्वं पंचकल्पे व्याख्याता''७२ । अर्थात्
इन्होंने पञ्चकल्पभाष्य पर भी चूणि बनाई है ऐसा स्पष्ट होता है। ४. पञ्चकल्पचूर्णि में ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि "एतद् उपरिष्टात् तस्मिन्नेव
कल्पे प्रथमोद्देशके मासकल्पद्वितीयसूत्रे व्याख्यास्यामः" । "दशमे उद्देशे व्यवहारस्य वक्ष्यामः''७३ । इन दोनों उल्लेखों का तात्पर्य एक ही है : तीनों
की चूर्णि के प्रणेता एक हैं। ५. व्यवहारचर्णि में कहा : "जहा णिसीहे व्याख्यातं १७४ । इसका तात्पर्य
निशीथचूर्णिकार ही व्यवहारचूर्णिकार हैं - ऐसा स्पष्ट है। और व्यवहारचूर्णि
से पहले निशीथचूणि की रचना हुई है यह भी प्रतीत होता है। ६. व्यवहारचूर्णि में ही “एयं पिंडनिज्जुत्तीए व्याख्यातं''७५ ऐसा भी पाठ प्राप्त
है। इससे 'पिंड-निज्जुत्ती' अर्थात् 'दशवैकालिक' पर भी इनकी चूणि है
ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। ७. अब आवश्यकचूर्णि के बारे में - १) व्यवहारचूणि में "जहा आवस्सए भणिया''७६ ऐसा निर्देश हुआ है।
और कल्पचूर्णि के तो प्रारम्भ में ही लिखा है कि "एताणि आवस्सए