________________
सप्टेम्बर २०१८
प्रारंभ में या अन्त में होता तो कदाचित् ऐसी कल्पना को बल मिल सकता। मगर वैसा तो है नहि । दूसरा, आचार्य क्षेमकीर्ति ने स्पष्ट रूप से संघदासगण का नामोल्लेख भाष्यकार के रूप में कर दिया है, "श्रीसंघदासगणिपूज्यै:... भाष्यं विरचयांचक्रे " इन शब्दों से" । और इस संभावना को दिखाने के अलावा स्वयं पुण्यविजयजी ने भी तीनों भाष्यों के कर्ता संघदासगणि होने की मान्यता कल्पभाष्य- प्रस्तावना में प्रकट की ही है" । निशीथचूर्णि में अनेक बार 'सिद्धसेनाचार्य' का नाम भाष्यकार या निर्युक्ति के व्याख्याकार के रूप में आता है इसलिए निशीथभाष्य के कर्ता तो वे ही हैं, परन्तु निशीथभाष्य की संकलना उन्होंने कल्प एवं व्यवहार के भाष्यों की गाथाओं को लेकर की है इसलिए उन दोनों के कर्ता भी वे ही हो सकते हैं। अर्थात् तीनों भाष्य के प्रणेता, मालवणिया के मत अनुसार, सिद्धसेनाचार्य हैं २० ।
.4
६.
८.
क्षेमकीर्तिसूरि ने 'सिद्धसेन' न लिखकर 'संघदास' नाम क्यों लिखा ? इस प्रश्न को उन्होंने अनुत्तर रखा है, और भविष्य में उसका समाधान पाने की आशा व्यक्त की है 1
२१
७. आगे वे पौर्वापर्य का विमर्श करते हैं । श्रीपुण्यविजयजी ने जिनभद्रगणि को परवर्ती व व्यवहार-भाष्यकार को पूर्ववर्ती माने हैं। क्योंकि जिनभद्रगणिकृत 'विशेष - णवति' में (गा. ३४) 'व्यवहार' का उल्लेख हुआ है । यह १९२/६ की ओर संकेत देता है । इससे सिद्ध होता है कि व्यवहारभाष्य एवं व्यवहारभाष्यकार जिनभद्रगणि के पुरोगामी हैं।
उल्लेख व्यवहारभाष्य
गाथा
१५५
-
-
इस मन्तव्य से विपरीत, मालवणिया का मन्तव्य ऐसा है कि कल्पभाष्य एवं निशीथभाष्य में विशेषावश्यकभाष्य की गाथाएँ उद्धृत हैं, अतः विशेषावश्यकभाष्य ही पूर्ववर्ती है ऐसा मानना होगा। फिर, निशीथभाष्य आदि के कर्ता सिद्धसेनगणि को चाहे जिनभद्रगणि के शिष्य मानो या उनके समकालीन आचार्य, दोनो स्थिति में वे पूर्ववर्ती तो नहीं ही होंगे२२ ।
फिर भी, इस विमर्श के अन्त में वे कह देते हैं कि यह कोई अन्तिम निष्कर्ष नहीं, अपितु संभावना - मात्र है। साथ ही वे एक नया प्रश्न उठाते हैं