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अनुसन्धान-७५ ( १ )
कि निशीथभाष्य, व्यवहारभाष्य एवं जीतकल्पभाष्य तीनों में अमुक गाथाएँ समान दिखाई देती हैं, तो इनमें से पूर्ववतीं कौन ? और किसने किस ग्रन्थ से ये गाथाएँ ली होगी ?२३ ।
अब इन मुद्दों पर हम कुछ विमर्श करेंगे -
श्री पुण्यविजयजी के समग्र मन्तव्यों का आकलन किया जाय तो उनके तीन मन्तव्य ध्यान में आते हैं : १. कल्पभाष्य के प्रणेता संघदासगणि क्षमाश्रमण हैं । २. व्यवहारभाष्य के प्रणेता ज्ञात नहि है । ३. कल्प, व्यवहार एवं निशीथ तीनों पर भाष्य के प्रणेता एक ही हो यह अधिक संभवित है ।
इन मुद्दों पर सोचें तो उनका पहला मन्तव्य बिलकुल योग्य है, तथ्यपूर्ण है। संघदासगणि ही कल्पभाष्य के प्रणेता हैं, यह निर्विवाद सत्य है ।
व्यवहारभाष्य की बात सोचें तो हमारे विनम्र मत अनुसार प्रायः, श्रीपुण्यविजयजी महाराज, व्यवहारसूत्र के भाष्य, चूर्णि, वृत्ति आदि का इस दृष्टि से अवगाहन नहि कर पाये हैं। अगर उन्होंने वह किया होता तो उनका मन्तव्य ऐसा न होता । प्रायः उनके इस विषय को लेकर लिखे गये लेखों में भी व्यवहारभाष्यादि के सन्दर्भों का उद्धरण या हवाला बहुत अल्प देखने मिलता है ।
दूसरी बात, कल्पभाष्य की प्रथम गाथा का यह अंश 'कप्प - व्ववहाराणं वक्खाणविहिं पवक्खामि' उनके लक्ष्य में क्यों नहि आया, यह भी एक समस्या है। इस पाठ का तात्पर्य स्वयं स्पष्ट है कि 'मैं (भाष्यकार ) कल्प और व्यवहार - इन दोनों सूत्रों के व्याख्यान (विवरण) की विधि कहूंगा' । मतलब कि दोनों भाष्य एक कर्ता का प्रणयन है । तथा, व्यवहारभाष्य की यह अन्तिम उपसंहार भाग की गाथा
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कप्प-व्ववहाराणं, भासं मोत्तूण वित्थरं सव्वं ।
पुव्वायरिएहिं कयं, सीसाण हितोवदेसत्थं । ४६९३ ।।
अर्थात्, पूर्वाचार्यों के किये हुए सर्व विस्तार को छोडकर, शिष्यों को हितोपदेश देने के वास्ते, कल्प एवं व्यवहार का (यह) भाष्य बनाया है। यह बात भी यदि उनके ध्यान में आई होती तो दोनों के एककर्तृत्व के बारे में वे सन्देहग्रस्त न रहते ।