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सप्टेम्बर २०१८
कल्पनाविहार अधिक लगता है। संक्षेप से उनके कथन का सार ऐसा है कि
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१. जीतकल्पभाष्य की चूर्णि के कर्ता सिद्धसेनगणि हैं । २. निशीथभाष्य के संकलयिता भी वही सिद्धसेन क्षमाश्रमण हैं ४ । ३. चूंकि निशीथभाष्य में कल्प एवं व्यवहार के भाष्यों की अनेक गाथाएँ ली गई हैं व व्याख्यायित भी हैं अत: इन तीनों के प्रणेता सिद्धसेन ही हो सकते हैं ४५ । ४. यह सिद्धसेनगणि, जिनभद्रगणि के शिष्य अथवा समकालीन हैं, अत: इन तीनों भाष्य महाभाष्य के परवर्ती हो ऐसा माना जा सकता है ४६ 1
इन विधानों के समर्थन में यदि उन्होंने कोई ठोस प्रमाण दिये होते, तो उनकी इन कल्पनाओं को वजूद मिलता। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है । उनके पास एक प्रमाण यह है कि निशीथ एवं कल्प के भाष्यों में विशेषावश्यकभाष्य की गाथाएँ उद्धृत हुई हैं, अत: भाष्यकार परवर्ती हैं। और परवर्ती होने से वे सिद्धसेन ही हैं, क्यों कि संघदासगणि तो बहुत पूर्ववर्ती थे, और सिद्धसेन का नाम निशीथभाष्यकार के रूप में स्पष्ट है ।
पं. मालवणिया ने महाभाष्य की जिन गाथाओं को कल्पभाष्य उद्धृत होने का बताया है, वहाँ दरअसल में कल्पभाष्य से वे गाथाएँ महाभाष्यकार ने उद्धृत की हैं। देखें
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इत्याह
कल्पभाष्य में गा. ९६४ ' पण्णवणिज्जा भावा०' है व गा. ९६५ 'जं चउदसपुव्वधरा०' हैं" । इन दोनों को विशेषावश्यकभाष्यकार इस तरह उद्धृत करते हैं --
“विनेय: पृच्छति
कत्तो एत्तियमेत्ता, भावसुय - मईण पज्जया जेसिं ।
भासइ अणंत भागं ?, भण्णइ, जम्हा सुएऽभिहियं ॥ १४० ॥
'यस्मात् सूत्रे - आगमे वक्ष्यमाणमभिहितम् ... किं तत् सूत्रेऽभिहितम् ?
पण्णवणिज्जा भावा अनंतभागो उ अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अनंतभागो सुयनिबद्धो ॥ १४१ ॥