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अनुसन्धान-७५(१) १. चूर्णि की वाचना यथासंभव अधिकांश में शुद्ध हुई। २. गाथाओं का क्रम पुनः प्रस्थापित हुआ। ३. छुट जानेवाली गाथाओं का यथास्थान निवेश-समावेश किया, तो अनावश्यक
गाथाओं को निकाल भी दी। चूर्णिग्रन्थ का विवरणात्मक अंश व अवतरणात्मक अंश - दोनों कई जगह पर एक-दूसरे में घुलमिल गये थे, उन अंशों का उचित विभाजन व व्यवस्थापन हुआ। प्रथम संस्करण में जो पाठान्तर टिप्पणीरूप में लिये थे, उनमें से कई पाठ मूल वाचना के अनुरूप थे, अतः ऐसे पाठों को वाचना में समाकर, वाचनावाले
पाठों को पाठान्तर बनाये। ६. ताडपत्रपोथी में भी पुनर्वाचन के समय पर कितनेक अच्छे व सुसंगत पाठ
प्राप्त हुए, तो उनको भी यथास्थान ले लिये। चूर्णिकार को मान्य जो भाष्यवाचना रही होगी, अथवा जिस वाचना के शब्द एवं पाठ पर चूर्णिकार ने चूर्णि बनाई है, उस वाचना का चूर्णिग्रन्थ के अनुसार पुनः संयोजन किया। पहले संस्करण में कल्पभाष्य-गाथाओं की वाचना लगभग वृत्तिग्रन्थ में मुद्रित गाथाओं का अन्ध अनुसरणमात्र था । जब गौर से चूणि का वाचन हुआ, तब पता चला कि गाथा में जो पद हैं उसकी या उनकी व्याख्या चूणि में नहि है, और चूर्णि में जिस या जिन पद का विवरण है, वह गाथाओं में नहि है । तो हमने भरपूर प्रयास करके चूर्णिसम्मत भाष्यवाचना का संयोजन किया है। अध्येताओं को वृत्तिग्रन्थ की गाथाओं में और चूर्णिग्रन्थ की गाथाओं में अगर भिन्नता मालूम पडे, तो उसका कारण यही है। विरामचिह्नों को हरसम्भव यथास्थान लगाये । पूर्व संस्करण में विरामचिह्न आगे-पीछे यानी जहाँ होने चाहिये एवं जैसे होने चाहिये वहाँ और वैसे न होने से अर्थसंगति एवं पाठसंगति में बहुत कठिनाई व क्षति होती थी। यहाँ यथाशक्य उसका निवारण किया गया है।