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सप्टेम्बर २०१८
चाहते थे यह कई दिनों तक हमारी समज में नहि आया । पन्ने फेरते रहे, सन्दर्भ खोजते रहे । एक दिन अचानक स्फुरणा हुई : 'रुक्खापु' को 'रुक्खायु' पढा जाय तो ?, और प्रकाश हो गया- 'रुक्खायुव्वेतकता' यानी यहाँ 'वृक्षायुर्वेद' से किसी क्रिया करने का सन्दर्भ था। अब यह बात खुल जाने के बाद बडी आसान लगेगी, लेकिन जब तक नहि खुली थी, तब की मनःस्थिति व परिश्रम की तो हमें ही खबर है ।
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गा. ७०७ में 'सामयणाते' पाठ था । बहुत सोचने व खोजने पर भी स्पष्टता नहि होती थी । सहसा एक दिन चूर्णिगत 'अप्पग्गंथ महत्थं' गाथा की चूर्णि पर ध्यान गया, और स्पष्ट हो गया कि यहाँ 'सामातियं - ऽजणाति' पाठ होना चाहिए ।
गा. ७३९ में 'सधगंति सत्तंते' पाठ आया । बहुत परेशानी हुई । उसको यथावत् रखकर आगे भी बढे । और एक बार सहसा स्फुरा कि यहाँ 'यति' की बात है और वह छन्द से जुडी हुई चीज है, तो यहाँ कोई छन्द का नाम तो नहि है ?, जरा जमकर सोचा तो लगा कि यहाँ 'सद्धरम्मि सत्तंते' पाठ होना चाहिए, क्योंकि 'स्रग्धरा' छन्द में सातवें अक्षर पर 'यति' आती है । और यह कई दिनों की माथापच्ची के बाद स्पष्ट हुआ था ।
इन सभी कठिनाईयों के बावजूद, जब भी ऐसे स्थान पर अर्थ से और विषयनिरूपण से सुसंगत पाठ की कल्पना स्फुरित हो जाय, और उस कल्पना या स्फुरणा को अन्यान्य शास्त्रसन्दर्भों के साथ मिलाने पर वह उचित होने की प्रतीति हो जाय, तब तो हमने आनन्दोत्सव की अनुभूति पाई है, और एतदर्थ किये गये सारे श्रम का जवाब या फल प्राप्त हो जाने का परितोष पाया है ।
परन्तु इतने परिश्रम के बाद भी, हम, बृहद्भाष्य के एक अंश को यानी कि पीठिका-अंश को, उसके स्पष्ट, शुद्ध एवं महत्तम उचित रूप में, प्रस्तुत कर पाएं है उसका हमें तीव्र आनन्द है ।
कर्तृत्व पर विमर्श
जैसे पूर्वसूरिओं को, वैसे हमें भी कुछ सवाल उठे हैं, उठते हैं, और उन सवालों का समाधान खोजने का प्रयत्न हमने भी किया है । यद्यपि पूर्वसूरिओं ने इन