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( अनुभव का उत्पल )
प्रिय कौन?
ब्रह्मचर्य मुझे प्रिय है। इसलिए मुझे वही व्यक्ति प्रिय होगा जिसे ब्रह्मचर्य प्रिय हो। प्रियता रुचि की समता से फलती है। अप्रियता किसी से भी नहीं होनी चाहिए। किन्तु अप्रियता का अभाव और प्रियता आदि से अन्त तक एक ही नहीं है। अप्रियता के अभाव से आगे की एक विशेष मनोदशा सात्विक अनुरागात्मक है- प्रियता है।
प्रिय वह नहीं जो आपात-भद्र मार्ग में ले जाए। हो सकता है वह मोहवश प्रिय लगे, किन्तु बुरी आदत जो डाले, वह परिणाम विरसता के क्षणों में प्रिय बना रहे, यह सम्भव नहीं लगता।
आखिर श्रद्धा वहां पनपती है जो असत् से सत् की ओर ले जाए। पहले क्षण में हेय का मार्ग भले अप्रिय लगे किन्तु प्रियता का स्थिर-पद वही है। वासना का आकर्षण मनुष्य में रिक्तता पैदा करता है और वह वासना से कभी भरती नहीं। वह रिक्तता मनुष्य को बैचेन बना देती है। वही बैचेनी उसे वासना-हीन मार्ग की ओर जाने को प्रेरित करती है। श्रद्धा और वासना के मार्ग भिन्न हैंयह स्पष्ट हो जाता है।
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